1947 में आजादी के वक्त जवाहर लाल नेहरू को सौंपा गया था सेंगोल..!!

लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव-शंखनाद साहित्यिक मंडली
सेंगोल दंडनुमा आकृति का ‘राजदंड’ होता है। यह राजा की राज-शक्ति का प्रतीक चिन्ह है। सेंगोल एक पांच फीट लंबी छड़ी होती है। इसके सबसे ऊपर भगवान शिव के वाहन नंदी विराजमान होते हैं। मान्यता है कि नंदी न्याय व निष्पक्षता को दर्शाते हैं। सेंगोल का निर्माण चेन्नई के एक सुनार वुमुदी बंगारू चेट्टी ने किया था। देश के प्राचीन इतिहास में राजदंड की परिकल्पना रही है। ऐतिहासिक ग्रंथ बताते हैं कि हर राजभवन में एक राजदंड होता था, जिस पर अधिकार राजा का होता था। यह ‘राजदंड’ जिसके पास होता था, वही साम्राज्य का अधिपति होता था। यह माना जाता था कि ‘राजदंड’ से कभी गलत निर्णय नहीं दिए जा सकते। इसे संप्रभुता का प्रतीक माना जाता है। यह धातुओं से बना एक दंड होता था, जिसे राजकीय आयोजनों में राजा अपने साथ रखते थे। मौर्य, गुप्त से लेकर चोल और विजयनगर साम्राज्य तक में इस ‘राजदंड’ का इस्तेमाल हुआ है। मुगल साम्राज्य में भी अकबर ने सेंगोल राजदंड का इस्तेमाल किया था। इसे अब नए संसद भवन में रखा जाएगा।

आजादी का प्रतीक (सेंगोल) ‘राजदंड’

 1947 में देश को आजादी मिलने की घोषणा कर दी गई थी, बस औपचारिकता पूरी होनी थी। इस बीच एक दिन आखिरी वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने प्रधानमंत्री पद के लिये नामित हो चुके पंडित जवाहर लाल नेहरू से एक अजीब सा सवाल किया। 'मिस्टर नेहरू, सत्ता हस्तांतरण के समय आप क्या चाहेंगे... कोई खास प्रतीक या रिवाज (रिचुअल) का पालन करेंगे? अगर आपने मन में कुछ हो तो हमें बताइये! नेहरू असमंजस में फंस गए, क्योंकि उन्होंने इसके बारे में पहले कुछ सोचा नहीं था। फिर भी उन्होंने माउंटबेटन को कहा कि मैं आपको बताता हूँ।
 
सी राजगोपालचारी की मेहनत से बना ‘राजदंड’ (सेंगोल)

इसी उधेड़बुन में नेहरू ने उस समय के वरिष्ठ नेताओं से इसे लेकर विचार-विमर्श किया कि क्या करना चाहिए, तब नेहरू ने इसकी जिम्मेदारी सौंपी सी राजगोपालचारी (राजाजी) को। राजाजी ने कई धार्मिक और ऐतिहासिक धरोहरों को देखा, पढ़ा और जाना। इसी बीच उनको चोल साम्राज्य के एक प्रतीक के बारे में जानकारी हुई। भारतीय स्वर्णिम इतिहास में चोल साम्राज्य का अपना ही नाम रहा है। उस साम्राज्य में एक राजा से दूसरे राजा के हाथ में सत्ता जाती थी तो राजपुरोहित एक ‘राजदंड’ देकर उसका सम्पादन करते थे। एक तमिल पांडुलिपि में वो प्रतीक चिन्ह यानी ‘राजदंड’ का चित्रण उनको मिल गया। उसे लेकर वह नेहरू के पास गए। नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद और अन्य नेताओं से विमर्श कर उसपर हामी भर दी।

किसने बनाया था ‘राजदंड’ (सेंगोल)

सेंगोल चांदी का बनाया गया था। इस पर सोने की परत चढ़ाई गई थी। उस वक्त अलग अलग कई कारीगरों ने इस पर काम किया था। बहुत ही चुनौती थी उस ‘राजदंड’ यानी सेंगोल को बनाने की। राजाजी ने तंजोर के धार्मिक मठ से संपर्क किया था। उनके सुझाव पर चेन्नई के एक ज्वेलर्स को इस ‘सेंगोल’ राजदंड को बनाने के लिए ऑर्डर दिया गया। 5 फुट का ये प्रतीक चांदी का बनाया गया। उसपर सोने की परत लगाई गई थी। इस प्रतीक चिन्ह के शीर्ष पर नंदी बनाये गये, जिसे न्याय के रूप में दर्शाया गया। इसका निर्माण वम्मुदी बंगारू चेट्टी ज्वेलर्स वुम्मिदी एथिराजुलु ने किया था। जब ‘सेंगोल’ तैयार हो गया तो उसे मठ के अधिनामो ने लॉर्ड माउंटबेटन को दिया। उसे माउंटबेटन ने पुरोहितों को लौटा दिया। फिर इस प्रतीक को गंगा जल से शुद्धिकरण हुआ और तब जाकर पंडित नेहरू ने इसे धारण किया। इस तरह 'गुलाम भारत' इस पवित्र प्रतीक चिन्ह 'सेंगोल' के साथ आज़ाद भारत बना।
पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को मिला था सेंगोल (राजदंड)

सेंगोल शब्द तमिल शब्द ‘सेम्मई’ से निकला है। इसका अर्थ ‘नीतिपरायणता’ होता है। तमिल परंपरा के अनुसार नए राजा को सत्ता ग्रहण करने पर एक सेंगोल यानी कि ‘राजदंड’ दिया जाता है। यह राज्य के राजगुरु द्वारा ही दिया जाता है। इसलिए थिरुवदुथुरै अधीनम मठ के राजगुरु ने आजादी मिलने से कुछ मिनट पहले 14 अगस्त 1947 की रात को यह लॉर्ड माउंटबैटन को दिया था। इसके बाद भारत के अंतिम शासक लॉर्ड माउंटबैटन ने बकायदा विधिविधान के साथ 15 अगस्त 1947 की आधी रात को यह प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को सेंगोल सौंप दिया था। अब वही सेंगोल नए संसद भवन में स्थापित किया जायेगा। संसद के इस नए भवन में लोकसभा सदन में अध्यक्ष के आसन के ठीक ऊपर ये प्रतीक चिन्ह स्थापित किये जायेंगे।  

अब तक कहां था यह दुर्लभ ‘सेंगोल’

सवाल उठता है कि इतने सालों तक ‘सेंगोल’ का क्या हुआ था? कहा रखा गया था?  इतने सालों बाद ही सरकार को कैसे इसकी याद आई और इसे ही क्यों चुना गया? ‘सेंगोल’ आज़ादी के समय सत्ता हस्तांतरण का पवित्र प्रतीक के रूप में धारण किया गया था। देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इसे समारोह में अपनाया था। कुछ दिनों के बाद दुर्लभ ‘सेंगोल’ दिल्ली से इलाहाबाद पहुंच गया और वो भी नेहरू के पैतृक निवास यानी ‘आनंद भवन’ में रख दिया गया। नेहरू के समय ही इसे 1960 में इलाहाबाद संग्रहालय में सुरक्षित रखवा दिया गया। 
 
पीएम मोदी को कैसे आई ‘सेंगोल’ की याद

जब संसद का नया भवन तैयार हो रहा था पीएम इसकी बारीकियों पर करीबी नजर बनाए हुए थे। इसी बीच लगभग डेढ़ साल पहले एक विशेषज्ञ अधिकारी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ‘सेंगोल’ का जिक्र किया। तो मोदी ने इसकी खोज और उसकी जांच करने को कहा। तब शुरू हुई 14 अगस्त 1947 के सेंगोल को ढूंढने की। न कोई लिखित डॉक्यूमेंट और न ही कोई चश्मदीद। टेढ़ी खीर साबित होने लगा इसकी खोज। पुराने राजे रजवाड़ों के तहखानों और संग्रहलयों कि तलाशी ली गई। सभी संग्रहलयों में तलाशा गया, लेकिन कोई सुराग नहीं। फिर खोजकर्ताओं को प्रयागराज संग्रहालय के एक कर्मचारी ने जैसे तब नया जीवन दे दिया जब उसने कहा कि दंड जैसी कोई वस्तु को संग्रहालय के एक कोने में देखा है। खोजकर्ता तुरंत वहां गए। बहुत ही दयनीय स्थिति में रखी थी ये ‘सेंगोल’। 
 
पूरी तरह से की गई जांच-परख

‘सेंगोल’ मिलने की जानकारी मोदी को दी गई। उन्होंने इसकी पूरी तरह से जांच परख करने को कहा। 1947 से1960 तक के तमिल अखबारों में इस प्रतीक के बारे में छपी आर्टिकल को खंगाला गया। विदेशी अखबारों को भी खंगाला गया। वर्ष 1975 में शंकराचार्य ने अपनी जीवनी लिखवाई थी, उसमें इसके जिक्र का अध्य्यन किया गया। फिर ढूंढ़ते-ढूंढ़ते चेन्नई के उस ज्वेलर के पास पहुंचा गया, जिसने 1947 में इसे बनाया था। शुक्र था कि 96 वर्षीय ज्वेलर्स अभी जीवित थे। उन्होंने प्रयागराज के संग्रहालय से लाई गई ‘सेंगोल’ को दिखाया गया। ज्वेलर्स ने अपने हाथों से बनाई इस अद्वितीय कलाकृति को पहचान लिया और इस तरह से 1947 के पवित्र दुर्लभ प्रतीक को नया जीवन मिल गया।
 
फिर से ‘सेंगोल’ को उसी ज्वेलर्स से कराई गई मरम्मत

दयनीय स्थिति के कारण उस ‘सेंगोल’ को उसी 96 वर्षीय ज्वेलर्स वम्मुदी बंगारू चेट्टी ज्वेलर्स वुम्मिदी एथिराजुलु को ठीक करने के लिये दे दिया गया। जब 28 मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकसभा अध्यक्ष के आसन के ऊपर इसे स्थापित करेंगे तो गौरवशाली ‘सेंगोल’ का पुराना वैभव ही दिखाई देगा। मालूम हो कि ‘सेंगोल’ शब्द तमिल शब्द ‘सेम्मई’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है ‘नीतिपरायणता’। सेंगोल का इतिहास काफी पुराना है। आजाद भारत में इसका बड़ा महत्व है।14 अगस्त 1947 में जब भारत की सत्ता का हस्तांतरण हुआ तो वो इसी सेंगोल द्वारा हुआ था। एक तरह कहा जाए तो सेंगोल भारत की आजादी का प्रतीक है।

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