जननायक कर्पूरी ठाकुर की 35 वीं पूण्यतिथि पर विशेष..!

लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव साहित्यिक मंडली शंखनाद
महापुरुषों की कोई जाति या धर्म नहीं होता, वे सब जाति व धर्म के होते हैं और सभी उनका आदर करते है, ऐसा ही जननायक कर्पूरी ठाकुर के साथ भी है। आज ही के दिन 34 वर्ष पूर्व 17 फरवरी 1988 को जननायक कर्पूरी ठाकुर का निधन हुआ था। उनका सारा जीवन समाज के लिए समर्पित रहा। अनेक खूबियों के कारण बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के नाम के आगे जननायक की उपाधि जुड़ी, उनका नाम उन महान समाजवादी नेताओं की पंक्ति में आता है जिन्होंने निजी और सार्वजनिक जीवन, दोनों में आचरण के ऊंचे मानदंड स्थापित किए थे।
हमारे सामने आज जो राजनीतिक परिदृश्य है उसके देखते हुए क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि कर्पूरी ठाकुर जैसी जाति में पैदा होने वाला व्यक्ति उनकी या उनके आस पास की उंचाई तक पहुंच सकता है। फिर यह सवाल उठता है कि कर्पूरीजी ने कैसे वह मुकाम हासिल कर लिया! इस सवाल का जवाब हमें उनके राजनीतिक जीवन के सफर में तलाश करने की कोशिश करनी होगी।
आज अजीब लग सकता है कि जो कर्पूरी ठाकुर जी दो बार मुख्यमंत्री रहे, अपना एक ढंग का घर तक नहीं बनवा पाए। एक बार प्रधानमंत्री रहते चौधरी चरण सिंह उनके घर गए तो दरवाजा इतना छोटा था कि उन्हें सिर में चोट लग गई।
 अगर आप सभी से पूछा जाए कि एक मुख्यमंत्री कितना अमीर हो सकता है, तो आपका क्या जवाब होगा? आप सोचेंगे इसकी भला कोई सीमा हो सकती है क्या? लेकिन क्या आप सोच सकते हैं कि एक मुख्यमंत्री इतना गरीब हो सकता है कि उसके पास अपनी एक गाड़ी तक न हो… गाड़ी छोड़िए, मुख्यमंत्री रहते हुए वह अपना एक ढंग का मकान न बनवा पाए... और तो और उसके पास पहनने को ढंग के कपड़े न हों! हम बात कर रहे हैं, जननायक कर्पूरी ठाकुर की। वे एक शिक्षक रहे, एक स्वतंत्रता सेनानी रहे, एक राजनेता रहे और इन सबसे बढ़कर एक जननायक रहे। आज उन्हीं की पुण्यतिथि है।

विस्मिल्लाह खान ने कहा था कर्पूरी जी को “गुदड़ी के लाल”

एक बार की बात है कि भारतीय शास्त्रीय संगीत में कर्पूरी जी की गहरी रुचि थी। पहले पटना के दशहरा पूजा के दरम्यान होने वाले संगीत समारोहों की देश भर में चर्चा होती थी। शहर में जगह जगह देश भर के प्रतिष्ठित गायक, वादक और नर्तकों का जुटान होता था। इन समारोहों में कहीं न कहीं कर्पूरी जी संगीत का आनंद लेते बैठे जरूर दिखाई दे जाते थे। एक बार पटना कालेजियट स्कूल के मैदान में स्व. रामप्रसाद यादव की भारतमाता मंडली द्वारा आयोजित समारोह का अंतिम कार्यक्रम हो रहा था। मंच पर विस्मिल्लाह खान साहब और उस्ताद अब्दुल हलीम जाफर खान साहब का संयुक्त कार्यक्रम था। समापन के बाद लोगों के साथ साथ कर्पूरीजी भी चलने लगे थे। अचानक रामप्रसाद जो ने कार्यक्रम समापन पर धन्यवाद ज्ञापन के लिए कर्पूरी जो को आमंत्रित कर दिया। कर्पूरीजी ने धन्यवाद ज्ञापन भाषण में हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की गंगा जमुनी चरित्र पर चंद मिनटो में जो कुछ कहा उसकी गूंज लोगों के मानस पटल पर छा गई। विस्मिल्लाह खान साहब ने कहा कि में इतने दिनों से पटना आ रहा हूँ। अब तक आप कहाँ छिपे थे गुदड़ी के लाल।

कर्पूरी ठाकुर का जन्म और पारिवारिक जीवन 

24 जनवरी को कर्पूरी ठाकुर का जन्म दिन है। युगों-युगों से उंच-नीच व्यवस्था में शिक्षा से वंचित समाज में जन्मे कर्पूरी ठाकुर का यह जन्मदिन वास्तविक नही है, जैसाकि वो अपने कार्यकर्ताओं से बोला करते थे। 
जननायक कर्पूरी ठाकुर का जन्म 24 जनवरी 1924 को समस्तीपुर जिला के  पितौंझिया गांव में हुआ उनकी माता “राम दुलारी देवी” और उनके पिताजी का नाम “गोकुल ठाकुर” था और उनकी पत्नी का नाम ‘फुलेशरी देवी’ था ठाकुर जी के बाल्यावस्था अन्य गरीब परिवार के बच्चों की तरह खेलकूद तथा गाय, भैंस और पशुओं के चराने में बीता उन्हें दौड़ने, तैरने, गीत गाने तथा डफली बजाने का शौक था। इनके पिता गांव के सीमांत किसान थे तथा अपने पारंपरिक पेशा नाई का काम करते थे।

कर्पूरी ठाकुर का शिक्षा-दीक्षा और राजनीति में प्रवेश 

6 वर्ष की आयु में कर्पूरी जी को गांव  की ही पाठशाला में पिताजी के द्वारा दाखिला कराया गया था। इनके अंदर बचपन से ही नेतृत्व क्षमता ने जन्म लेना शुरू कर दिया था। छात्र जीवन के दौरान युवाओं के बीच लोकप्रियता हासिल कर चुके कर्पूरी ठाकुर ने अंग्रेजो के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। इसके बाद उन्होंने 1940 में मैट्रिक प्रथम श्रेणी से पास किया और दरभंगा के चंद्रधारी मिथिला महाविद्यालय में आई.ए. में नामांकन करा लिया। कर्पूरी ठाकुर अपने घर से कॉलेज रोज 50-60 किलोमीटर तक यात्रा करते हुए 1942 में आइ.ए. द्वितीय श्रेणी से पास किया और पुनः उसी कॉलेज से B.A. में नामांकन करा लिया। जब भारत छोड़ो आंदोलन चल रहा था, तब उन्होंने 1942 में अपनी पढ़ाई छोड़ दी और उस आंदोलन में हिस्सा लिया और जयप्रकाश नारायण के द्वारा गठित “आजाद दस्ता” के सक्रिय सदस्य बने। तंग आर्थिक स्थिति से निजात पाने के लिए उन्होंने गांव के ही मध्य विद्यालय में 30 रूपये प्रति माह पर प्रधानाध्यापक का पद स्वीकार किया। ये दिन में स्कूल के अध्यापक और रात में आजाद दस्ता के सदस्य के रूप में जो भी जिम्मेदारी मिलती उसे बखूबी निभाते थे।

समतामूलक सोच के धनी कर्पूरी ठाकुर

समतामूलक सोच के धनी कर्पूरी ठाकुर वंचित समाज के आवाज थे। बिहार में सामंतवाद का खात्मा करने हेतु वंचित समाज को जागृत करने में उनका बहुत बड़ा योगदान था। कर्पूरी ठाकुर संक्षिप्त काल तक बिहार के मुख्यमंत्री 22 दिसंबर 1970 से 2 जून 1971 तथा 24 जून 1977 से 21 अप्रैल 1979 के दौरान दो बार बिहार के मुख्यमंत्री पद पर रहे। और क्रांतिकारी बदलाव के पुरोधा बने। कर्पूरी ठाकुर ने ही सबसे पहले बिहार में पिछड़े, अतिपिछड़े और महिलाओ के लिए नौकरियों में आरक्षण लागू किया था। उन्होंने गरीबी को देखा ही नहीं भोगा भी था। बिहार के मुख्यमंत्री रहते हुए कर्पूरी ठाकुर की ईमानदारी और सादगी बेमिसाल थी। मुख्यमंत्री रहते हुए कर्पूरी ठाकुर ने अपनी बेटी की शादी लालटेन की रोशनी में की थी। 

सम्राट महापद्मनंद की परम्परा को कर्पूरी ने आगे बढ़ाया

कर्पूरी ठाकुर देश में अति पिछड़े वर्ग के पहले ऐसे नेता थे जिन्हे बिहार जैसे प्रदेश में दो बार मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिला। सम्राट महापद्मनंद की कुशल शासन करने की परम्परा को कर्पूरी ठाकुर जी ने आगे बढ़ाया और जनता से जननायक की उपाधि प्राप्त की। भारतीय इतिहास में कर्पूरी ठाकुर ही अब तक पहले और शायद आखिरी मुख्यमंत्री हुए हैं, जिन्होंने सिर्फ डिग्री के आधार पर बेरोजगारों को बुलाकर सरकारी नौकरी का नियुक्ति पत्र बाटने का ऐतिहासिक कार्य किया। बहुत आश्चर्य होता है ये देखकर कि सिर्फ एक बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने पंडित गोविन्द बल्लभ पंत को भारत रत्न दे दिया गया लेकिन बिहार प्रदेश के दो बार लोकप्रिय मुख्यमंत्री रहे देश भक्त जननायक कर्पूरी ठाकुर को आज तक भारत रत्न के योग्य भी नहीं समझा गया। 

सादगी भरा था जननायक का जीवन

मुख्यमंत्री रहते हुए जननायक कर्पूरी ठाकुर सरकारी गाड़ी का उपयोग ना करके रिक्शा की सवारी करते थे। दो-दो बार मुख्यमंत्री रहने के बावजूद उन्हों ने सादगी नहीं त्या गी। वे राज्यद और राष्ट्र  के प्रति इतने समर्पित थे। सरकारी राशि का कभी दुरुपयोग नहीं किया। समाज में उनके योगदान को कभी नहीं भूला जा सकता। जननायक कर्पूरी ठाकुर ने मैट्रिक तक की शिक्षा को मुफ्त किया। साथ ही साथ अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म किया। वे पिछड़े, अति पिछड़े, दलित, महादलित सहित कमजोर वर्गों के सर्वांगीण विकास को तत्पेर रहते थे। इन वर्गों के उत्थान के लिए शिक्षा के क्षेत्र में अविस्मरणीय काम किया। उन्होंने पिछड़े वर्गों के लिए 27 फीसद आरक्षण को लागू किया।
 
 कर्पूरी ठाकुर की विचारधारा आज भी प्रासंगिक

"आज जब वोटों के गणित, सामाजिक ध्रुवीकरण और सियासी नफा-नुकसान के लिए सत्ता पक्ष और विपक्ष के लोग संवैधानिक मर्यादाओं और संवैधानिक प्रावधानों की धज्जियां उड़ा रहे हों और चाहे-अनचाहे वेबजह टकराव ले रहे हों तब जननायक कर्पूरी ठाकुर की विचारधारा और अधिक प्रासंगिक हो जाती है। कर्पूरी जी का मानना था कि संसदीय परंपरा और संसदीय जीवन राजनीति की पूंजी होती है जिसे हर हाल में निभाया जाना चाहिए। उनकी चिंता के केंद्र में हमेशा गरीब, पिछड़े, अति पिछड़े और समाज के शोषित-पीड़ित-प्रताड़ित लोग रहे हैं। शायद यही वजह रही है कि उनकी समस्याओं के निराकरण के लिए कर्पूरी ठाकुर ने सदैव लोकतांत्रिक प्रणालियों का सहारा लिया। मसलन, उन्होंने प्रश्न काल, ध्यानाकर्षण, शून्य काल, कार्य स्थगन, निवेदन, वाद-विवाद, संकल्प आदि सभी संसदीय विधानों-प्रावधानों का इस्तेमाल जनहित में किया।  

लोकसभा में कर्पूरी जी ऐतिहासिक भाषण 

मुख्यमंत्री रहे कर्पूरी ठाकुर जब 1977 में लोकसभा का चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे थे, तब कर्पूरी जी ने अपने संबोधन में कहा था, ‘संसद के विशेषाधिकार कायम रहें लेकिन जनता के अधिकार भी। यदि जनता के अधिकार कुचले जायेंगे तो एक न एक दिन जनता संसद के विशेषाधिकारों को चुनौती देगी।’ आज की स्थितियां कमोबेश यही हैं। सरकारें जनहित को हाशिए पर धकेल चंद लोगों की भलाई और चंद लोगों की सलाह पर जनविरोधी फैसले लेने लगी हैं। उनका मानना था कि लोकतंत्र के मंदिर में ही जनता-जनार्दन से जुड़े अहम मुद्दों पर फैसले लिए जाएं। 

देश में पहली बार ओबीसी को कर्पूरी ने आरक्षण दिलाया

सामाजिक न्याय के हिमायती कर्पूरी ठाकुर ने उस वक्त सर्वसमाज को आरक्षण देने का गजट निकाला था, जब इसे लागू करने की कल्पना कठिन थी। बिहार में कर्पूरी ठाकुर ने 1973-77 के दौरान जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चले आंदोलन में अहम भूमिका निभाई। इंदिरा गांधी के आपातकाल के खिलाफ जेल गए और जब 1977 में लोकसभा चुनाव हुए तो वो समस्तीपुर लोकसभा क्षेत्र से सांसद चुने गए। उन्होंने 11 नवंबर 1977 को मुंगेरी लाल समिति की सिफारिशें लागू कर दीं, जिसके चलते पिछड़े वर्ग को सरकारी सेवाओं में उन्होंने कुल 27% कोटा लागू किया था। एससी-एसटी के अलावा ओबीसी के लिए आरक्षण लागू करने वाला बिहार देश का पहला राज्य बना। तीन दशक बाद नीतीश कुमार ने उसी बिहार में महादलित और महापिछड़ा वर्ग बनाकर और महिलाओं को नौकरियों और पंचायती राज संस्थाओं में आरक्षण देकर कर्पूरी जी के सपनों को साकार किया है। बिहार सरकार ने सरकारी ठेकों में भी आरक्षण का प्रावधान किया है। कहना न होगा कि एक गरीब परिवार में जन्में विचारों के धनी कर्पूरी ठाकुर ने जिस राजनीतिक दूरदर्शिता का परिचय आज से करीब 40 साल पहले दिया था वो देश के लिए आज और भी प्रासंगिक बन चुके हैं। उन्होंने देशी और मातृभाषा को बढ़ावा देने के लिए तब की शिक्षा नीति में बदलाव किया था। वो भाषा को रोजी-रोटी से जोड़कर देखते थे। देश आज भी नई शिक्षा नीति की बाट जोह रहा है। उन्होंने गरीबों और भूमिहीनों के खातिर भूमि सुधार लागू करने की बात कही थी जो आज भी लंबित है। वो जानते थे कि इससे न केवल सामाजिक विषमता दूर होगी बल्कि कृषि उत्पादन में भी आशातीत बढ़ोत्तरी होगी। देश में आज भी भूमि अधिग्रहण पर एक मुकम्मल कानून बनाने में सरकारों को पसीने छूट रहे हैं क्योंकि वे जनमानस की जगह कॉरपोरेट घरानों से प्रेरित हो रही हैं।

जननेता कर्पूरी ठाकुर का निधन

कर्पूरी ठाकुर देशी माटी में जन्में देशी मिजाज के राजनेता थे जिन्हें न पद का लोभ था, न उसकी लालसा और जब कुर्सी मिली भी तो उन्होंने कभी उसका न तो धौंस दिखाया और न ही तामझाम। मुख्यमंत्री रहते हुए सार्वजनिक जीवन में ऐसे कई उदाहरण हैं जब उन्होंने कई मौकों पर सादगी की अनूठी मिसाल पेश की। भारतीय राजनीति में ऐसे विलक्षण राजनेता कम ही मिलते हैं। इन्होंने दलित और पिछड़ों के हक में कई काम किए। 17 फरवरी 1988 को अचानक तबीयत बिगड़ने के चलते जननेता, जननायक कर्पूरी ठाकुर का निधन हो गया था, लेकिन उनका सामाजिक न्याय का नारा आज भी बिहार में बुलंद है। कर्पूरी ठाकुर सर्व समाज के नेता थे। वह पिछड़ों और मजलूमों की आवाज थे, उनके सतत प्रयासों से ही समाज के दलित, शोषित, वंचित लोगों के अधिकार सुरक्षित हो सके।

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