गुरु रविदास की 647 वीं जयंती पर विशेष ..!!
रविदासजी का जन्म ऐसे समय में हुआ था जब उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों में मुगलों का राज हुआ करता था। चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ था। हर तरफ अत्याचार, भ्रष्टाचार से लोग परेशान थे। ऐसे समय में रविदास जी की ख्याति बढ़ रही थी। लाखों की संख्या में लोग उनके भक्त थे। ऐसे में एक सदना पीर नाम का व्यक्ति उनके पास आया और उन्हें धर्म परिवर्तन के लिए कहने लगा उसने सोचा अगर रविदास जी धर्म परिवर्तन कर लेते हैं तो उनके लाखों भक्त भी धर्म बदल लेंगे। लेकिन, रविदास जी ने धर्म से पहले हमेशा मानवता को रखा।
गुरु रविदास जयंती हिंदू कैलेंडर के अनुसार माघ महीने की पूर्णिमा को होती है। ग्रेगोरियन कैलेंडर पर, यह आमतौर पर फरवरी में पड़ता है। रविदास एक प्रसिद्ध रहस्यवादी कवि और गीतकार थे, उनका “भक्ति आंदोलन” पर बहुत ज्यादा प्रभाव था, जो हिंदू धर्म के अनुसार एक “आध्यात्मिक भक्ति आंदोलन’ था। बाद में इस आंदोलन ने नया रूप ले लिया और सिख धर्म की शुरुआत हुई। रविदास के भक्ति छंदों को सिख धर्मग्रंथों में गुरु ग्रंथ साहिब के नाम से शामिल किया गया था। रविदास के अनुयायियों ने 21 वीं सदी में ‘रविदासिया’ धर्म की स्थापना की। रविदासिया के अनुयायी हर साल गुरु रविदास जयंती श्रद्धापूर्वक मनाते हैं।
रहस्यवादी कवि रविदास का जन्म और पारिवारिक जीवन
संत रविदास के जन्म को लेकर इतिहासकार एकमत नहीं हैं। कई इतिहासकारों का कहना है कि संत रविदास का जन्म सन 1398 ई में हुआ है। वहीं, कुछ जानकारों का कहना है कि उनका जन्म सन 1482 में हुआ है। संत रविदास का संबंध चमार जाति से है। गुरु रविदास के जन्म को लेकर कोई स्पष्ट जानकारी मौजूद नहीं है, लेकिन माना जाता है कि गुरू रविदास (रैदास) का जन्म काशी में माघ पूर्णिमा दिन रविवार को संवत 1433 को हुआ था। संत रविदास कबीरदास के समकालीन और गुरुभाई कहे जाते हैं। रविदास जी के जन्म को लेकर कई मत हैं लेकिन कई विद्वानों का कहना है कि जिस दिन उनका जन्म हुआ उस दिन रविवार था, इसलिए उनका नाम रविदास रखा गया।
गुरु रविदास को रैदास के नाम से भी जाना जाता था। उनका जन्म वाराणसी के पास सीर गोवर्धनपुर गांव में हुआ था, जो अब उत्तर प्रदेश में स्थित है। उनका जन्मस्थान अब श्री गुरु रविदास जन्म स्थान के नाम से जाना जाता है। रविदास के पिता का नाम रघू और माता का नाम घुरविनिया था। माना जाता कि उनकी पत्नी का नाम लोना था। जीवनयापन के लिए रविदास जूते बनाने का काम किया करते थे। रविदास ज्ञान अर्जित करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने संत रामानन्द को अपना गुरु बना लिया। संत कबीर के प्रेरणा से उन्होंने संत रविदास जी को अपना गुरु बनाया था, गुरु कबीर साहेब जी उनके पहले गुरु थे। उनके मधुर व्यवहार के कारण उनसे मिलने वाले लोग बहुत प्रसन्न रहते थे। रविदास जी बहुत परोपकारी तथा दयालु थे, दूसरों की सहायता करने में उन्हें परम सुख मिलता था। साधु-सन्तों की मदद करने में उन्हें विशेष आनन्द प्राप्त होता है। ज्यादातर वे बिना पैसे लिए जूते दे दिया करते थे। उनके इस स्वभाव के कारण उनके माता-पिता उनसे दुखी रहते थे। पैसों की बात से दुखी हो कर उनके माता पिता ने रविदास तथा उनकी पत्नी को अपने घर से निकाल दिया। रविदास पड़ोस के एक इमारत में किराए का घर लेकर पत्नी के साथ रहने लगे। और अधिकतर समय संत वचन और विद्वानों के सत्संग में बिताया करते थे।
समाज में फैले भेद-भाव का करते थे विरोध
रविदास जी ने हमेशा ही भेदभाव को दूर कर सामाजिक एकता का प्रचार प्रसार किया। संत रविदास जी अपनी कविताओं के जरिए भी यही संदेश दिया करते थए। वह अपनी कविताओं में जनसाधारण की ब्रजभाषा का प्रयोग किया करते थे। इसके अलावा वह अपनी कविताओं में अवधि , उर्दू-फारसी, राजस्थानी, खड़ी बोली और रेख़्ता आदि का भी प्रयोग किया करते थे। उनके चालीस पद पवित्र धर्म ग्रंथ गुरुग्रंथ साहब में भी सम्मिलित किए गए। कहा जाता है कि कृष्ण भक्त मीराबाई भई उनकी शिष्य थी। कहा तो यह भी जाता है कि चित्तौड़ के राणा सांगा की पत्नी झाली रानी भई उनकी शिष्य थी। चित्तौड़ में संत रविदास की छतरी भी बनी है। वाराणसी में भी आपको संत रविदास जी का मठ और भव्य मंदिर देखने को मिलेगा।
समाज में फैले भेदभाव, छुआछूत का वह जमकर विरोध करते थे, जीवनभर उन्होंने लोगों को अमीर-गरीब हर व्यक्ति के प्रति एक समान भावना रखने की सीख दी। उनका मानना था कि हर व्यक्ति को भगवान ने बनाया है, इसलिए सभी को एक समान ही समझा जाना चाहिए। वह लोगों को एक दूसरे से प्रेम और इज्जत करने की सीख दिया करते थे।
रविदास पर गुरु नानक देव का प्रभाव
अधिकांश विद्वानों का मानना है कि रविदास सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक से मिले थे और उनसे बहुत ज्यादा प्रभावित थे। वह सिख धर्मग्रंथों में पूजनीय हैं, इसलिए रविदास की 41 कविताओं को सिख धर्मग्रंथ में शामिल किया गया है। ये कविताएं उनके विचारों और साहित्यिक कृतियों के सबसे पुराने प्रमाणित स्रोतों में से एक हैं। 1693 में रविदास की मृत्यु के 170 साल बाद रचित इस पाठ को भारतीय धार्मिक परंपरा के सत्रह संतों में से एक के रूप में शामिल किया गया है। 17 वीं सदी के नाभादास के भक्तमाल और अनंतदास के पारसी दोनों में रविदास पर अध्याय हैं। इसके अलावा, सिख परंपरा के ग्रंथ और हिंदू दादुपंथी परंपराएं, रविदास के जीवन के बारे में अधिकांश अन्य लिखित स्रोत, जिनमें रविदासी (रविदास के अनुयायी) शामिल हैं।
रविदास जी का साहित्य साधना
पीटर फ्रीडलैंडर कहते हैं कि रविदास की जीवनी, हालांकि उनकी मृत्यु के लंबे समय बाद लिखी गई। इनका साहित्य, भारतीय समाज के भीतर के संघर्ष को दर्शाता है, जहां रविदास का जीवन विभिन्न प्रकार के सामाजिक और आध्यात्मिक विषयों को व्यक्त करने का साधन देता है। एक स्तर पर, यह तत्कालीन प्रचलित विधर्मी समुदायों और रूढ़िवादी ब्राह्मणवादी परंपरा के बीच संघर्ष को दर्शाता है। वे एक समाज सुधारक थे। उन्होंने कई भक्ति और सामाजिक संदेशों को अपने लेखन के जरिए अनुनायियों, समुदाय और समाज के लोगों के लिए ईश्वर के प्रति प्रेम भाव को दर्शाया। संत रविदास को आज भी लोग याद करते हैं।
जात-पात के अंतर को दूर किया
लोगों का कहना है कि संत रविदास जी बड़े परोपकारी थे। उन्होंने समाज में जातिगत भेदभाव को दूर कर सामाजिक एकता पर बल दिया और भक्ति भावना से पूरे समाज को एकता के सूत्र में बाधने के लिए सदा कार्य किया. संत रविदास की शिक्षाएं आज भी लोगों को प्रेरित करती हैं।
रविदास जी से मीरा को बताया भक्ति का मार्ग
संत रविदास ने अपना जीवन प्रभु की भक्ति और सत्संग में बिताया था. वह बचपन से ही प्रभू की भक्ति में लीन रहते थे। उनकी प्रतिभा को जानकर स्वामी रानानंद ने उन्हें अपना शिष्य बनाया। मान्यता है कि कृष्ण भक्त मीराबाई भी संत रविदास की शिष्या थीं। कहते हैं कि मीराबाई को संत रविदास से ही प्रेरणा मिली थी और फिर उन्होंने भक्ति के मार्ग पर चलने का निर्णय लिया। मीराबाई के एक पद में उनके गुरु का जिक्र मिलता है - ‘गुरु मिलिआ संत गुरु रविदास जी, दीन्ही ज्ञान की गुटकी.’‘मीरा सत गुरु देव की करै वंदा आस.जिन चेतन आतम कहया धन भगवन रैदास..’
रविदास का लोकप्रिय उक्ति 'मन चंगा तो कठौती में गंगा'
कहते हैं कि संत रविदास का जन्म चर्मकार कुल में हुआ था, वह जूते बनाने का काम करते थे। उन्होंने कभी जात-पात का अंतर नहीं किया। जो भी संत या फकीर उनके द्वार आता वह बिना पैसे लिए उसे हाथों से बने जूते पहनाते। वह हर काम पूरे मन और लगन से करते थे। फिर चाहे वह जूते बनाना हो या संत की भक्ति। उनका कहना था कि शुद्ध मन और निष्ठा के साथ किए काम का अच्छा परिणाम मिलता है। 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' - रविदास जी का ये कथन सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है, इस कथन में रविदास जी ने कहा है कि कार्य अगर पवित्र मन से किया जाए ये तीर्थ करने के समान मना गया है।
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