टीपू सुल्तान की 224 वीं पूण्यतिथि पर विशेष : दुनिया का पहला मिसाइलमैन टीपू सुल्तान ..!!
टीपू सुल्तान, प्रसिद्ध मैसूर साम्राज्य का प्रतापी शासक तथा निर्भीक स्वतंत्रता सेनानी था, ये ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ युद्ध में अपनी बहादुरी के लिए प्रसिद्ध हैं। वे अपनी वीरता और साहस के लिए जाने जाते हैं। इन्हें अंग्रेज, सुल्तान के शासन प्रदेशों को हमेशा जीतने की कोशिश किया करते थे, अंग्रेज के खिलाफ अपनी बेहतरीन लड़ाई के लिए भारत के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी के रूप में महत्व दिया जाता है। टीपू सुल्तान ने मैसूर के सुल्तान हैदर अली के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में, 22 दिसंबर सन 1782 में टीपू सुल्तान ने अपने पिता की मृत्यु के बाद सिंहासन पर बैठा।
टीपू सुल्तान का जन्म और शिक्षा और पारिवारिक जीवन
इतिहास के पन्नों में टीपू सुल्तान के नाम पर भले ही विवाद चल रहा हो लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इतिहास के पन्नों से टीपू सुल्तान का नाम मिटा पाना असम्भव है। टीपू सुल्तान का जन्म 20 नवंबर सन 1750 को देवनहल्ली, जिसे "देवनदहल्ली", "दयावंदल्ली", देवनाडोड्डी और देवनपुरा भी कहा जाता है, भारत में कर्नाटक राज्य के बेंगलुरु ग्रामीण जिले में एक शहर और नगर नगरपालिका परिषद है यह शहर बेंगलुरु के उत्तर-पूर्व में 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। जिसे आज के समय में बेंगलौर, कर्नाटका के नाम से जाना जाता है, में हुआ। टीपू का पूरा नाम सुल्तान सईद वाल्शारीफ़ फ़तह अली खान बहादुर साहब टीपू था। जो पंजाब मूल के भट्टी जाट थे और शिप्रा गोत्र में थे। उनकी वीरता से प्रभवित होकर उनके पिता हैदर अली ने ही उन्हें शेर-ए-मैसूर के खिताब से नवाजा था
इनके पिता हैदर अली थे, जोकि दक्षिण भारत में मैसूर के साम्राज्य के एक सैन्य अफसर थे, और माता फ़ातिमा फकरुन्निसाँ थी। इनके पिता सन 1761 में मैसूर के साम्राज्य के वास्तविक शासक के रूप में सत्ता में आये। इन्होंने अपने रुतबे से मैसूर राज्य में शासन किया। हैदर अली, जोकि खुद पढ़े लिखे नहीं थे, फिर भी इन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार टीपू सुल्तान को अच्छी शिक्षा देने के बारे में सोचा और उन्हें अच्छी शिक्षा भी दिलवाई। इन्होंने बहुत ही कम उम्र में शूटिंग, तलवारबाजी और घुड़सवारी सीख ली थी और यही कारण था कि उन्होंने 15 साल की उम्र में अपने पिता का साथ देते हुए युद्ध में प्रदर्शन किया।
टीपू सुल्तान ने दलित महिलाओं को दिलाया था सम्मान
1924 तक दलित महिलाओं को स्तन ढकने के लिए टैक्स देना पड़ता था, छाती पर कपड़ा दिखा तो चाकू से फाड़ देते थे। टीपू सुल्तान ने दलित महिलाओं को दिलाया था सम्मान से जीने का अधिकार। महिलाएं अर्धनग्न अवस्था में न रहकर यदि कपड़े से अपना स्तन ढकती थीं तो उन्हें ब्रेस्ट टैक्स देना होता था। जी हां, ब्रेस्ट टैक्स,जिसे “मूलाकरम” कहा जाता था। आज हमें इस बात की आजादी है कि हम अपने शरीर को कैसे ढकें, किस तरह के कपड़े पहनें? लेकिन अगर इतिहास के पन्नों को पलटें तो केरल के तटवर्ती इलाकों में एक ऐसा वक्त था जब निचली जाति की महिलाओं को ये हक नहीं था, वे अपने कमर से ऊपर का हिस्सा नहीं ढक सकती थीं। इतना ही नहीं मूंछ रखने पर टैक्स, मछली का जाल रखने पर टैक्स, आभूषण पहनने पर टैक्स, नौकर या दास रखने पर टैक्स लगाये जाते थे।
स्तन ढंकने के लिए लगाए इसी टैक्स के खिलाफ क्रांतियों के देश भारत में 1822 में एक क्रांति हुई जब गरीब महिलाओं ने इस शासनादेश के खिलाफ बगावत कर दिया। इसके बाद एक के बाद एक कुल तीन विद्रोह हुए। पहला 1822 से 1823 दूसरा 1827 से 1829 और तीसरा 1858 से 1859 को हुआ। इस क्रांति की नायिका थी नांगेली नाम की एक साधारण महिला। इस प्रथा के खिलाफ विद्रोह जताने के लिए नांगेली ने जो किया वो स्तब्ध कर देने वाला है। क्रोध से तपती नांगेली ने अपना स्तन ढंकने के लिए टैक्स मांगने वाले राजा से खतरनाक प्रतिशोध लिया। नांगेली ने टैक्स वसूलने आए अधिकारी को अपना ही स्तन काटकर भेंट कर दिया। उस समय जातिवाद की जड़ें बहुत गहरी थीं और निचली जातियों की महिलाओं को उनके स्तन न ढकने का आदेश था। उल्लंघन करने पर उन्हें ‘स्तन कर’ देना पड़ता था। ये वो समय था जब पहनावे के कायदे ऐसे थे कि एक व्यक्ति को देखते ही उसकी जाति की पहचान की जा सकती थी। ‘स्तन कर’ ब्रेस्ट टैक्स का मक़सद जातिवाद के ढांचे को बनाए रखना था। ये एक तरह से एक औरत के निचली जाति से होने की कीमत थी। इस कर को बार-बार अदा कर पाना इन ग़रीब समुदायों के लिए मुमकिन नहीं था। केरल के हिंदुओं में जाति के ढांचे में नायर जाति को शूद्र माना जाता था जिनसे निचले स्तर पर दलित समुदायों को रखा जाता था। उस दौर में दलित समुदाय के लोग ज़्यादातर खेतिहर मज़दूर थे और ये कर देना उनके बस के बाहर था। ऐसे में नायर समुदाय की औरतें ही इस कर को देने की थोड़ी क्षमता रखती थीं। इतिहासकारों ने टीपू सुल्तान को लेकर थोड़ा बड़ा दिल दिखाया पर अब टीपू सुल्तान को भी विवादित करने का प्रयास किया गया और औरंगजेब के जैसा बनाने का प्रयास किया गया। इतिहासकार टीपू सुल्तान के प्रति इसलिए झूठ ना लिख सके क्योंकि टीपू सुल्तान का सारा इतिहास बहुत करीब के दिनों का है।
साथ ही यह तथ्य और सबूत है कि वह अंग्रेज़ों से लड़ते हुए शहीद हुए और अपनी पूरी सल्तनत बर्बाद कर दी। दरअसल उनको बदनाम भी केवल सवर्ण कर रहे हैं, हकीकत यह है कि यदि इस देश के इतिहास को यदि निष्पक्ष रूप से लिख दिया जाए तो आज अचानक पैदा हो गये बड़े-बड़े महापुरुष नंगे हो जाएंगे और जिन्हें खलनायक बनाया जा रहा है वह देश के महापुरुष हो जायेगें। आखिर मनुवादी को टीपू सुल्तान से इतनी नफरत क्यों होती है?
राजाओं की साम्राज्यवाद के कारणों से हुई लड़ाईयों को हिन्दू-मुस्लिम की लड़ाई प्रस्तुत किया जा रहा है और लड़ाई में मरने वाले सैनिकों को गिन-गिनकर बताया जा रहा है कि इतने वध उस मुस्लिम शासक ने किये। जैसे हिन्दू राजाओं ने युद्ध में विरोधी सेनाओं का धर्म देखकर ही मारा हो कि केवल मुस्लिम सैनिक मारें जाएं। हिन्दू सैनिकों को कोई नुकसान ना हो चाहे विरोधी सेना का ही क्यों ना हो।
तब तो ऐसा कुछ नहीं हुआ पर अब ऐसा ही किया जा रहा है। ब्रिटेन की नेशनल आर्मी म्यूज़ियम ने अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लेने वाले 20 सबसे बड़े दुश्मनों की लिस्ट बनाई है जिसमें केवल दो भारतीय योद्धाओं को ही इसमें जगह दी गई। नेशनल आर्मी म्यूज़ियम के आलेख के अनुसार टीपू सुल्तान अपनी फौज को यूरोपियन तकनीक के साथ ट्रेनिंग देने में विश्वास रखते थे। टीपू विज्ञान और गणित में गहरी रुचि रखते थे और उनकी मिसाइलें अंग्रेजों के मिसाइल से ज़्यादा उन्नत थे, जिनकी मारक क्षमता दो किलोमीटर तक थी।
जो अंग्रेज टीपू से इतना घबराते थे उनके बनाए झूठे इतिहास को दिखाकर लोग टिपू का विरोध कर रहे हैं। सच यह है कि विरोध कर रहे ऐसे लोग ही भारत के निष्पक्ष इतिहास के लिखने पर नंगे हो जाएंगे क्योंकि यही लोग हर दौर में अत्याचारी रहे हैं और इसी अत्याचार को करने के लिये इन लोगों ने टीपू से अंग्रेजों की लड़ाई में अंग्रेजों का साथ दिया था।
टीपू सुल्तान को हराने के लिए सारे राजाओं ने अंग्रेजों से दोस्ती कर ली
त्रावणकोर के सवर्ण महाराजा मराठे और हैदराबाद के निजाम अंग्रेजों के सबसे बड़े मित्र थे। चारों ने मिलकर एक अकेले टीपू सुल्तान के विरूद्ध युद्ध किया जिससे इनकी अय्याशियां चलती रहें और देश जाए भाड़ में। चाहे इसपर अंग्रेजों का राज हो या किसी और का। दरअसल जो सामंती विचार धारा के ब्राह्मणों की हत्याएं करने का आरोप टीपू सुल्तान पर है वह त्रावणकोर राज्य में है जहां का सामंती राजा निरंकुश और अय्याश था। उसके जुल्मों से वहां की जनता को छुटकारा दिलाने के लिए टीपू ने उसपर आक्रमण किया और युद्ध में त्रावणकोर की सेना में शामिल सामंती विचार धारा के लोग मारे गए। अंततः राजा को वहां की दलित महिलाओं को न्याय देना पड़ा। 1814 में त्रावणकोर के अंग्रेजों के चमचे दीवान कर्नल मुनरो ने आदेश निकलवाया कि ईसाई नादन और नादर महिलाएं ब्लाउज पहन सकती हैं। टीपू सुल्तान ने त्रावणकोर को हराकर इस रूढ़िवादी व्यवस्था का अंत किया। टीपू सुल्तान ने इसी अन्याय को समाप्त करने के लिए त्रावणकोर पर आक्रमण किया जिससे त्रावणकोर की सेना के तमाम लोग मारे गए। जिसे आज ब्राम्हणों के वध के रूप में बताकर उनका विरोध किया जा रहा है।
दुनिया का पहला मिसाइलमैन टीपू सुल्तान ने रखी थी नींव रॉकेट का
रॉकेट का नाम सुनते ही हमारे दिमाग में एक ऐसी चीज आती है, जो हवा से कई गुना स्पीड में उड़ती है और बड़े-बड़े कामों में इस्तेमाल होती है। मिसाइल, स्पेस क्राफ्ट और एयर क्राफ्ट इसी रॉकेट टेक्नोलॉजी का ही बदला हुआ रूप है। रॉकेट इंजिन, न्यूटन की गति के तीसरे नियम यानी क्रिया और उसकी बराबर एवं विपरीत प्रतिक्रिया पर ही काम करते हैं। ये रॉकेट दुनिया में भारत की ही देन है। इसका सबसे पहला सटीक इस्तेमाल दक्षिणी राज्य मैसूर के शासक टीपू सुल्तान ने किया था। जिसके बाद दुनिया को इसकी उपयोगिता का पता चला और आज दुनिया उसी रॉकेट का बदला हुआ रूप इस्तेमाल कर रही है। इसी वजह से टीपू सुल्तान को दुनिया का पहला मिसाइलमैन कहा जाता है। टीपू सुल्तान ने रॉकेट का इस्तेमाल करते हुए कई चर्चित् युद्ध जीते। हालांकि उनके पिता हैदर अली ने भी इसका इस्तेमाल किया था। लेकिन वो उतने सफल नहीं रहे थे। 1792 में टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में लोहे के बने रॉकेटों का इस्तेमाल किया था। इसके बाद ये तकनीक पूरी दुनिया में अंग्रेज ले गए। टीपू सुल्तान से लड़ाई के बाद ही अंग्रेजी सेना को भी रॉकेट की उपयोगिता समझ में आई और उन्होंने इसे और उन्नत बनाने पर काम करते हुए दुनियाभर में इसका इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। टीपू के रॉकेट ने ही भविष्य में बनने वाले रॉकेट की नींव रखी थी।
लंदन के म्यूजियम में रखें हैं टीपू सुल्तान के रॉकेट
लंदन के मशहूर साइंस म्यूजियम में आज भी टीपू सुल्तान के जमाने के कुछ रॉकेट रखे हैं, जिन्हें अंग्रेज अपने साथ 18वीं सदी के अंत में ले गए थे। टीपू सुल्तान के जमाने के रॉकेट आज के दौर में दीपावली पर इस्तेमाल होने वाले रॉकेट से मिलते जुलते हैं। हालांकि वो थोड़े ज्यादा लंबे होते थे। टीपू सुल्तान ने अपने शासनकाल में 3 बड़ी लड़ाईयां लड़ी और अपनी तीसरी बड़ी लड़ाई में वे वीरगति को प्राप्त हो गए।
टीपू सुल्तान की मृत्यु
टीपू सुल्तान की तीसरी बड़ी लड़ाई जोकि चौथा एंग्लो-मैसूर युद्ध था, जिसमें 4 मई सन 1799 को मृत्यु हो गई। इनकी मृत्यु मैसूर की राजधानी श्रीरंगपट्टनम में हुई। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने मैसूर पर हमला कर, टीपू सुल्तान को धोखा देते हुए उनकी हत्या कर दी और मैसूर पर अपना कब्ज़ा कर लिया। इनके शव को मैसूर के श्रीरंगपट्टनम शहर (जिसे आज के समय में कर्नाट कहा जाता है) में दफ़न किया गया। उन्होंने अपने साम्राज्य की रक्षा करते हुए, युद्ध लड़ते-लड़ते अपने प्राणों की आहुति दे दी और वे शहीद हो गए। टीपू सुल्तान की मृत्यु के बाद ब्रिटिशर्स उनकी तलवार लेकर, ब्रिटेन चले गए और इसे अपनी जीत की ट्रोफी समझ कर वहां के संग्रहालय में इसे स्थापित कर लिया। टीपू सुल्तान का नाम पहले भारतीय राजाओं में से एक के रूप में लिया जाता है, जिनकी युद्ध के मैदान में औपनिवेशिक ब्रिटिश के खिलाफ अपने साम्राज्य की रक्षा करते हुए मृत्यु हुईं थी।
इसके लिए इन्हें अधिकारिक तौर पर भारत सरकार द्वारा एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में मान्यता दी गई है। इस तरह टीपू सुल्तान का शासनकाल समाप्त हो गया और टीपू अपने पिता के नक्शे कदम पर चलते हुए, वीरगति को प्राप्त हो गए। ये भारत और पाकिस्तान में और कई क्षेत्रों में भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के नायक के रूप में प्रतिष्ठित हैं। हालांकि भारत के कई क्षेत्रों में इन्हें एक अत्याचारी शासक के रूप में भी माना जाता है।
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