राजनीति के शिखर पुरुष जगजीवन राम की 37 वीं पूण्यतिथि पर विशेष ..!!

लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली
आज भारत के पूर्व उप प्रधानमंत्री बाबू जगजीवन राम की 37 वीं पुण्यतिथि है। जगजीवन राम एक प्रख्यात समाज सुधारक, असाधारण सांसद और सर्वहारा वर्ग के झंडाबरदार अगुआ थे। उन्होंने अपना राजनीतिक सफर एक अनुसूचित नेता के तौर पर शुरू किया था, बहुमुखी प्रतिभा के धनी, कई भाषाओं के जानकार, चिन्तक और विचारक बाबूजी समय समय पर हर वर्ग को जगाया करते थे। 
बाबू जगजीवन राम, लोकप्रिय स्वतंत्रता सेनानी शोषितों की आवाज गंगाराम धानुक के राजनीतिक शिष्य थे। जगजीवन राम बुद्धिजीवियों, शिक्षाविदों, छात्रों, नौजवानों, साहित्यकारों और सवर्णों के बीच भी वे उतने ही लोकप्रिय थे जितने अनुसूचितों एवं पिछड़ों में बाबूजी ने करीब पाँच दशक तक देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन को प्रभावित किया। उनका जन्मदिन समता दिवस के रूप में देशभर में मनाया जाता है। उन्होंने भारत में जनवितरण प्रणाली की नींव रखी।
उस जमाने में जगजीवन राम, कर्पूरी ठाकुर और रामनरेश यादव पर मनुवादी लोगों द्वारा फब्तियाँ कसते थे और कहते थे- दिल्ली से चमरा भेजा संदेश, कर्पूरी केश बनावे भैंस चरावे रामनरेश।

जगजीवन राम का जन्म, शिक्षा और पारिवारिक जीवन  

जगजीवन राम का जन्म बंगाल प्रेसिडेंसी के तत्कालीन शाहाबाद जिला, वर्तमान भोजपुर (आरा) जिला बिहार राज्य के आरा मुख्यालय से सटे चंदवा नामक गांव में पिता शोभी राम और माता वासंती देवी के यहाँ 5 अप्रैल 1908 को हुआ था। उनके पिता का नाम शोभी राम था। वे संत रैदास और संत कबीर के भक्त थे। जगजीवन राम तीन भाइयों और पाँच बहनों में सबसे छोटे थे। शोभी राम के दो बेटे और तीन बेटियाँ ही जीवित बचे थे। मात्र 8 वर्ष की अल्पायु में जगजीवन राम की शादी हो गयी। उनकी शादी अपने गांव से 5 किलोमीटर दूर सोनपुरा गांव के सुख लाल की 6 वर्षीया पुत्री भूली से हुई। उनकी प्रारंभिक शिक्षा नगरपालिका पाठशाला आरा में हुई थी। 5वीं कक्षा तक प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत आरा के अग्रवाल मिडिल (महाजनी) स्कूल में उन्होंने दाखिला लिया। मिडिल स्कूल पास करने के बाद उन्होंने सन् 1922 में आरा टाउन स्कूल में प्रवेश लिया। यहाँ युवा जगजीवन राम को फिर छुआछूत और जात पात का कटु अनुभव हुआ। उनके पानी पीने हेतु एक अलग घड़े की व्यवस्था की गई। इस बात ने उन्हें कहीं गहरे तक जाकर प्रभावित किया और इसका उत्तर आक्रोश बनकर उनके अंदर से निकला। जिसके चलते उन्होंने अलग रखे घड़े को फोड़ दिया- एक बार नहीं तीन–तीन बार। अंततः घड़े के बार-बार फूटने से परेशान प्रधानाध्यापक ने बड़ी जाति के छात्रों की शरारत समझकर आदेश दिया कि जगजीवन राम भी सवर्ण हिन्दुओं के घड़े से ही पानी पिया करेगा, जिसे इस पर एतराज हो, वह अपनी व्यवस्था स्वयं करे। जगजीवन राम धीरे-धीरे जीवन के हर क्षेत्र में विजय प्राप्त करते रहे। उस जमाने में सवर्णों की गली से जूता पहनकर, छाता लगाकर चलना, सड़कों पर बैलगाड़ी में बैठ कर चलना, घोड़े पर सवार होकर चलना, अच्छे कपड़े पहनना अछूत का बहुत बड़ा अपराध समझा जाता था। उन्हें मरे हुए जानवर (गाय, भैंस) को उठाना और उसका सड़ा माँस खाने को मजबूर किया जाता था। कोई अछूत इसकी अवहेलना करने की हिमाकत नहीं कर सकता था। पर, बालक जगजीवन राम ने वह हिम्मत दिखाई।
अपने गृह जिला शाहाबाद, बिहार से मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण करने के बाद पंडित मदन मोहन मालवीय के बुलावे पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्ययन करने गए। यहाँ भी उन्हें कथित अछूत जाति के होने का कटु अनुभव हुआ। बिरला छात्रावास में ब्लाक सर्वेन्ट (कहार) ने बर्तन धोने तथा नाई ने बाल काटने से इनकार कर दिया। जगजीवन राम को बिरला छात्रवृत्ति प्रदान की गई थी। बिरला छात्रवृत्ति धारकों को छात्रावास में रहना अनिवार्य था। जगजीवन राम आचार्य ध्रुव से मिले और छात्रावास में अपनी कठिनाइयों को बताया तथा विश्वविद्यालय से बाहर रहने की इजाजत माँगी। आचार्य ध्रुव ने कहा कि मेरे साथ आ जाओ। जगजीवन राम ने कहा कि कल आपका नौकर बर्तन मलने से इन्कार कर देगा तब आप क्या करेंगे? आचार्य ध्रुव ने कहा कि देखो, महाराष्ट्र का एक अछूत विद्यार्थी शंकर जी गुल्डेकर चौथे हॉस्टल ( रुईया छात्रावास) में रहता है और अपना खाना बना लेता है, तुम भी बना लेना। जगजीवन राम ने कहा कि विश्वविद्यालय में रहकर वे यह काम नहीं करेंगे, बाहर रह कर सभी काम कर लेंगे। जब विश्वविद्यालय में रहकर खाना बनायेंगे तो हर वक्त दिमाग में यही आयेगा कि चूंकि चमार इसलिए उन्हें अपना खाना अलग बनाना पड़ रहा हर वक्त हीन भावना दिमाग में रहेगी। यह पसन्द नहीं करते। आचार्य ध्रुव विश्वविद्यालय के नियमों के विरुद्ध उन्हें छात्रावास बाहर रहने की स्वीकृति दी। उन्हें छात्रावास छोड़कर अस्सी घाट पर रहना पड़ा। जहाँ एक केवट (मल्लाह) के मकान में किराये पर रहे। बाद में केवट ने भी जाति का पता चलने पर घर छोड़ने को कहा। पर, पेशगी पहले दे देने के कारण कुछ लोगों के द्वारा बीच बचाव करने के बाद केवट ने उन्हें मकान रहने दिया। माहौल में रहते हुए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से आई०एससी० की परीक्षा पास की। काशी में उन्होंने संत रैदास, संत कबीर एवं मध्य युगीन संतों अन्य धर्म ग्रंथों का भी अध्ययन किया। उनसे उन्हें संघर्ष की प्रेरणा मिली। जगजीवन राम हिंदू महासभा के सक्रीय सदस्य थे। वो संस्कृत भाषा के प्रकांड विद्वान थे।

बाबू जगजीवन राम का लंबा संसदीय जीवन रहा

बाबू जगजीवन राम के संसदीय जीवन का इतिहास 50 साल का रहा। वो आजादी से पहले से बनी सरकारों में भी शामिल थे।  1938 से 1979 तक लगातार चुने जाते रहे। 1946 से लेकर 1979 तक लगातार केंद्रीय मंत्री रहे। 1946 में नेहरूजी की प्रोविजनल कैबिनेट में जगजीवन राम सबसे युवा मंत्री के रूप में शामिल हुए थे।

जगजीवन राम और प्रधानमंत्री पद की कुर्सी
 
बाबू जगजीवन राम प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे। उनके सामने चार बार प्रधानमंत्री बनने के अवसर आये- सन् 1966, 1977, जुलाई 1979 और अगस्त 1979 में लेकिन प्रत्येक बार षड्यंत्रपूर्वक एवं जातिवादी पूर्वाग्रहों के चलते किसी न किसी बहाने उन्हें यह पद प्राप्त नहीं हुआ। यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि यदि वे अनुसूचित जाति के नहीं होते तो प्रधानमंत्री अवश्य बन गये होते। बाबूजी को प्रधान मंत्री पद की राह में जन्मना जातिप्रथा का कलंक हमेशा अवरोधक बना।

 जगजीवन राम की विरासत

जगजीवन राम ने राजनीति में अपनी बहुत लम्बी और सफल पारी खेली थी। सफलता ने उनके व्यक्तित्व को वह चमक दी, जिसे देख कर बहुतों को ईर्ष्या भी होती थी। उनका कद राजनेताओं के लिए अनुकरणीय और कामना की चीज बनी। उन्होंने बड़े पदों की शोभा बढ़ाई। राजनीति में उन्होंने बहुतों को उपकृत किया। बाबूजी एक भविष्यद्रष्टा थे। वे अपने समय से आगे की सोचा करते थे। वे मानते थे कि ज्ञान एक बड़ी शक्ति है। इसलिए उन्होंने ज्ञान की साधना करने वाली संस्थाओं का शिलान्यास और उद्घाटन किया। उस बड़ी सोच के तहत ही उन्होंने विभिन्न प्रकार के सामाजिक और अकादमिक कार्यों की नींव रखी और उनको अंजाम तक पहुँचाने का कार्य किया। सामाजिक क्षेत्र में भी उन्होंने कई अच्छे कार्य किये थे। जगजीवन राम को धार्मिक प्रवृति, उच्च विचार, आदर्श मानवीय मूल्य और सूझबूझ जैसे गुण अपने माता-पिता से विरासत में मिला था।

बाबू जगजीवन राम का स्वतंत्रता आन्दोलन में योगदान

भारतीय राजनीति के कई शीर्ष पदों पर आसीन रहे जगजीवन राम न सिर्फ एक स्वतंत्रता सेनानी, कुशल राजनीतिज्ञ, सक्षम मंत्री एवं योग्य प्रशासक रहे वरन् एक कुशल संगठनकर्ता, सामाजिक विचारक व ओजस्वी वक्ता भी थे। बाबू जगजीवन राम शिक्षित थे जिसके कारण वो अंग्रेजों की “फूट डालो, राज करो” की नीति को अच्छे से समझते थे और वे गांधी जे के विचारों के प्रबल समर्थक थे। उस समय महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत दल से जुड़ गये। हिन्दू-मुश्लिम विभाजन, दलितों और सवर्णों के बीच मतभेद आदि समस्याएं थी। मुस्लिम लीग की कमान जिन्ना के हाथ में थी और जिन्ना अंग्रेजी सरकार के इशारों पर ही कार्य करते थे। उन्होंने विभिन्न उपक्रमों-विभागों मंक अनुसूचितों-पिछड़ों को जोड़ने, भर्ती करने और मुख्यधारा में लाने की राह प्रशस्त की।

बाबू जगजीवन राम की राजनितिक सफलता

सन् 1946 ई. में जवाहरलाल नेहरू की अंतरिम सरकार में शामिल हुए और उसके बाद सत्ता की उछ सीढ़ियों पर चढ़ते गये। पांच दशक से अधिक समय तक राजनीति में सक्रिय रहे। राजनीति में रहते हुए उनहोंने श्रम मंत्री, कृषि मंत्री, संचार मंत्री, रेलवे मंत्री और रक्षा मंत्री के पद को शुशोभित किया। इन क्षेत्रों में विकास के लिए कई महत्वपूर्ण कार्य भी किये। किसी भी मंत्रालय की समस्या का समाधान बड़े ही कुशलता से करते थे। बाबू जगजीवन राम ने कभी भी मंत्रालय से इस्तीफ़ा नहीं दिया। सभी मंत्रालयों का कार्यकाल पूरा किया। जगजीवन राम 1936 से लेकर 1986 तक संसद या विधान सभा सदस्य रहे। लगातार 50 वर्ष तक किसी ने किसी सदन का सदस्य रहना अपने आप में एक रिकॉर्ड है। 

शोषितों की आवाज थे जगजीवन राम

जगजीवन राम को भारतीय समाज में दलित वर्ग के मसीहा के रूप में याद किया जाता है। वह स्वतंत्र भारत के उन गिने चुने नेताओं में से एक थे जिन्होंने राजनीति के साथ ही दलित समाज के लिए नई दिशा प्रदान की। उन्होंने उन लाखों-करोड़ो अभिवंचितों की आवाज उठाई जिन्हें सवर्ण जातियों के साथ चलने की मनाही थी, जिनके खाने के बर्तन अलग थे, जिन्हें छूना पाप समझा जाता था और जो हमेशा दूसरों की दया के सहारे रहते थे। पांच दशक तक सक्रिय राजनीति का हिस्सा रहे जगजीवन राम ने अपना सारा जीवन देश की सेवा और दलितों के उत्थान के लिए अर्पित कर दिया। इस महान राजनीतिज्ञ का 6 जुलाई 1986 को दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में उनका देहांत हुआ। बाबूजी ने एक सपना देखा था कि अभिवंचितों, पिछड़े और मजलूम सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था के मजबूत स्तम्भ बने, आत्मसम्मानी बने और देश को दिशा निर्देश देने का कार्य करें। उन्होंने जातिविहीन समाज बनाने तथा सच्चा स्वस्थ लोकतंत्र लाने का भी सपना देखा था। जातिवाद को समाप्त करने के लिए एक जाति के वर वधू की शादी को नाजायज करार देने का कानून बनाने की वकालत की थी। उन्होंने एक और सपना देखा था- सबको दो वक्त की रोटी देने का शिक्षा देने का, रोजगार देने का। ये सपने अभी अपनी मंजिल तक नहीं पहुँचे हैं। क्या ये सपने पूरे होंगे?

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