बिहार में गैर-कांग्रेसी सरकार के वास्तुकार थे भोला प्रसाद सिंह....!!
लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली
भारत के इतिहास में ऐसे कई नायक हुए हैं जिनका जिक्र इतिहास की पुस्तकों में प्रायः नहीं किया गया। दरअसल, इतिहास लिखना भी एक राजनीति है। कुछ लोगों का मानना है कि इतिहास यथार्थ की अभिव्यक्ति होती है, लेकिन एक इतिहासकार जिस यथार्थ को अपनी अभिव्यक्ति के लिए चुनता है उसके पीछे उसकी विचारधारा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। भारत में जाति एक बहुत बड़ी विचारधारा के रूप में भी काम करती रही है इसलिए हमारे यहां इतिहास लेखन भी जातिगत विचारधारा से प्रेरित रहा है। यही कारण है कि भारत के इतिहास की पुस्तकों में जाति के क्रम में जो नीचे के महापुरुष हैं उनके बारे में कम लिखा गया है या कुछ भी नहीं लिखा गया है।
इतिहास लेखन पर जातिगत विचारधारा इस कदर हावी दिखती है कि कुछ तो ऐसे लोग भी हैं जिनकी समाज में कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं रही है, लेकिन उनके बारे में अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन करके उन्हें महापुरुष बनाया गया। यह मात्र संयोग नहीं है कि ऐसे लोगों की एकमात्र खूबी यह रही है कि उन्होंने भारतीय जाति-व्यवस्था में ऊपर के क्रम में जन्म लिया है।
बहुजन समाज में भोला प्रसाद सिंह त्यागी, निष्कलुष और समाज के लिए मर मिटने वाले विभूति हैं, जिन्होंने बगैर किसी शोहरत, लालच और स्वार्थ के समाज के लिए कई अनुकरणीय काम किये। राजनीति और सामाजिक जीवन में भय नाम का शब्द भोला प्रसाद सिंह के शब्दकोष में नहीं था। वो भयविहीन व्यक्ति थे। एक चीज़ उनमें और थी। जिस चीज़ को करने को वो ठान लेते थे, उसके पीछे वो तब तक पड़े रहते थे, जब तक वो पूरी नहीं हो जाती थी। भोला प्रसाद सिंह का जीवन वाक्य था- 'कबिरा खड़ा बाज़ार में लिए लकूटी हाथ, जो घर फूके आपना, जो चले हमारे साथ।"
भोला प्रसाद सिंह का जन्म, शिक्षा-दीक्षा और पारिवारिक जीवन
भोला प्रसाद सिंह, जिन्हें लोग प्यार से 'भोला बाबू' के नाम से जानते थे। भोला बाबू का जन्म पैत्रिक गाँव बिहार राज्य के नालन्दा जिलांतर्गत सेवदह में न होकर 1 जनवरी 1932 को पाटलिपुत्र की पवित्र भूमि पर काली मंदिर चौहट्टा (पटना सिटी) में एक पारंपरिक किसान कुर्मी परिवार में हुआ था। जिस कमरे में उनका जन्म हुआ था वहां शिवलिंग स्थापित था, जिसके कारण परिवार के सदस्यों ने उनका नाम "भोला" रखा।
स्वर्गीय भोला बाबू के दादा स्वर्गीय रूपलाल सिंह थे, जो अपने जमानें के एक स्वतंत्रता सेनानी थे। भोला बाबू के पिता को विरासत में समाजसेवा और निर्भीक स्वतंत्रता सेनानी रहे। इनके पिता देवशरण लाल सिंह और माता मुन्दर कुँवर भी पिता के रास्ते पर ही आजीवन चलते रहे। देवशरण लाल सिंह के तीन पुत्र भोला प्रसाद सिंह, कृष्णा प्रसाद सिन्हा और राम प्रवेश सिन्हा थे। भोला बाबू को एक पुत्र दिवाकर प्रसाद सिन्हा और एक पुत्री श्रीमती शोभा सिन्हा हुई। भोला बाबू का अधिकांश समय पटना में ही गुजरा। भोला बाबू का जन्म पटना सिटी में हुआ था लेकिन हरनौत से भी उनका गहरा समाजवादी रिश्ता था।
दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.ए. ऑनर्स करने के बाद भोला प्रसाद सिंह ने पटना विश्वविद्यालय से बी.एल. किया। फिर कुछ वर्षों तक पटना उच्च न्यायालय में उन्होंने वकालत करने के बाद समाजवादी आंदोलन से आकृष्ट होकर डॉ. राममनोहर लोहिया के बताए रास्ते पर जो चलना शुरू किया उसे उन्होंने अपने जीवन के अंतिम क्षण तक निभाया। जननायक कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में रहकर भोला बाबू ने समाजवादी आंदोलन की आवाज का बुलन्द किया। समाजवादी विचारधारा के इस करिश्माई नेता को समाज कल्याण में भी खासी रुचि रही। वक्तृत्व कला के धनी प्रतिभा संपन्न, संभावनाशील, हाजिरजवाबी और हरफनमौला राजनीतिज्ञ भोला बाबू अपने तीन भाइयों में सबसे बड़े थे। इनके मंझले भाई कृष्णा प्रसाद सिन्हा महालेखाकार तथा छोटे भाई राम प्रवेश सिन्हा दूरसंचार विभाग में कार्य किये।
भोला प्रसाद सिंह का राजनैतिक जीवन
राजनीति के शिखर पुरुष भोला प्रसाद सिंह ने अपने कर्मों से बनायी थी पहचान। स्वतंत्रता सेनानी भोला प्रसाद सिंह अपने ढंग के अकेले नेता थे। आजादी के बाद वे राज्य स्तरीय राजनीति में जीवन पर्यन्त सक्रिय रहे। भोला प्रसाद सिंह अपने लिए खुद ही अपनी राजनीतिक राह बनाई थी। वर्ष 1952 में भोला बाबू "बार" में शामिल हुए और जनवरी 1956 में पटना उच्च न्यायालय में एक वकील के रूप में नामांकित हुए। 1955 में, राम मनोहर लोहिया ने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पीएसपी) से अलग होकर सोशलिस्ट पार्टी बनाई और स्वतंत्र भारत में पहली बार कांग्रेस सरकार के कुशासन के खिलाफ सत्याग्रह शुरू किया। भोला बाबू इस पार्टी के सदस्य बन गए और उन्हें पूरे बिहार में आंदोलन की योजना बनाने और संगठित करने की जिम्मेदारी सौंपी गई। सत्याग्रह के दौरान उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार कर लिया गया और डॉ. लोहिया के साथ हज़ारीबाग़ जेल में रखा गया। 1968 में आंदोलन के सिलसिले में उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया। उन्होंने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (एसएसपी) के सचिव और कोषाध्यक्ष के रूप में पार्टी की जिम्मेदारी संभाली। 1962 में मात्र 30 वर्ष की अल्पायु में भोला बाबू पहली बार सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में कांग्रेस उम्मीदवार को हराकर बिहार विधान परिषद के लिए चुने गए। 1967 में, उन्हें एसएसपी विधान इकाई का उपनेता और विधान परिषद में नेता बनाया गया।
1967 में भोला बाबू ने कट्टरपंथी विचारधारा वाले दलों को एक मंच पर लाकर बिहार में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार के गठन में निर्णायक भूमिका निभाई। महामाया प्रसाद सिन्हा की अध्यक्षता वाले मंत्रिमंडल में उन्हें स्थानीय प्रशासन, निगरानी, आवास और पर्यटन विभाग का कैबिनेट मंत्री बनाया गया। निगरानी विभाग में मंत्री रहते हुए उन्होंने पूर्व कांग्रेस मंत्रिमंडल के निवर्तमान मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण वल्लभ सहाय और पूर्व दिग्गज मंत्री महेश प्रसाद सिन्हा, सत्येन्द्र नारायण सिन्हा, राम लखन सिंह यादव, राघवेन्द्र नारायण सिंह और के खिलाफ जांच आयोग का गठन किया था। भ्रष्टाचार की जांच के लिए अंबिका शरण सिंह. श्री टी.एल.वेंकटराम अय्यर की अध्यक्षता में जांच आयोग के गठन से न केवल प्रदेश बल्कि देश की राजनीति में भूचाल आ गया।
1968 में, भोला बाबू विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में दूसरी बार विधान परिषद के लिए चुने गए। वे 1970 में कर्पूरी ठाकुर मंत्रिमंडल में योजना एवं भ्रष्टाचार निरोधक विभाग के मंत्री बने। उन्होंने भ्रष्टाचार निरोधक विभाग को और अधिक धारदार बनाने के उद्देश्य से इसे "सतर्कता विभाग" के रूप में पुनर्गठित किया। उन्होंने कोशी बांध में बड़े पैमाने पर अनियमितताओं के लिए तत्कालीन केंद्रीय मंत्री ललित नारायण मिश्रा और भारत सेवक समाज के अन्य प्रतिनिधियों के खिलाफ न्यायमूर्ति दत्ता के नेतृत्व में एक आयोग का गठन किया।
भोला बाबू ने बिहार में उग्र समाजवाद की नींव रखी
साठ और सत्तर के दशक में उन्हें बिहार की राजनीति में एक प्रखर “एंग्री यंग मैन” के रूप में जाना जाता था। वर्ष 1973 में एमआईटी प्रेस, कैम्ब्रिज, मैसाचुसेट्स और लंदन द्वारा प्रकाशित पॉल आर. ब्रास और अन्य द्वारा संपादित "रेडिकल पॉलिटिक्स इन साउथ एशिया" में बताया गया है कि "भोला प्रसाद सिंह एसएसपी (संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी) में राजनीतिक नेतृत्व की अधिक तेजतर्रार शैली का प्रतिनिधित्व करते हैं।", अतीत में डॉ. लोहिया और उत्तर प्रदेश के राजनारायण से भी जुड़े रहे हैं। इन दोनों व्यक्तियों की तरह, भोला प्रसाद सिंह भी लगातार नाटकीय तरह के सार्वजनिक बयान देते रहे हैं, कांग्रेसियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगाते रहे, कम्युनिस्टों के खिलाफ झूठ बोलने, सर्वोदय कार्यकर्ताओं के खिलाफ धोखाधड़ी में शामिल होने और पीएसपी के खिलाफ उग्रवाद की कमी के आरोप लगाते रहे। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के लोग। उनके बयान, उनके नाटकीय चरित्र के कारण, उन्हें अक्सर पटना प्रेस में उद्धृत किया जाता है। इन पदों ने, विशेष रूप से, उन्हें एसएसपी विधायक के एक गुट के नेता नहीं तो मुख्य प्रवक्ता की भूमिका में रखा, जो पूर्व पीएसपी कैडरों के नेतृत्व से असंतुष्ट थे।
1971 में श्री धर्मवीर सिंह के बाढ़ लोकसभा क्षेत्र से सांसद चुने जाने के बाद बख्तियारपुर विधानसभा की सीट खाली हो गयी। उस सीट पर हुए उप-चुनाव में भोला बाबू पहली बार संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में कांग्रेस उम्मीदवार को हराकर इस विधान सभा के लिए चुने गए और 1972 में विधान परिषद सीट से इस्तीफा दे दिया।
1974 में संपूर्ण क्रांति आंदोलन के पहले दौर के दौरान आंदोलन की रूपरेखा पर उनका जयप्रकाश नारायण से मतभेद हो गया। परिणामस्वरूप, जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने आंदोलन से अलग होकर सोशलिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया की स्थापना की और उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। पार्टी को चुनाव आयोग द्वारा आठ राज्यों केरल, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, बिहार और पश्चिम बंगाल में मान्यता दी गई थी।
1977 में जनता पार्टी की लहर के बावजूद भोला बाबू ने हरनौत विधानसभा क्षेत्र से जनता पार्टी के उम्मीदवार नीतीश कुमार को हराया और उनकी पार्टी को बिहार विधान सभा में दो सीटें मिलीं। 1980 में उन्होंने हरनौत की जगह हिलसा विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा, लेकिन करीब 2000 वोटों से हार गये। 1980 में उन्होंने रांची लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा, लेकिन सफल नहीं हो सके। 1986 में वे कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गये और 1988 में उन्हें बिहार राज्य पाठ्यपुस्तक निगम का अध्यक्ष बनाया गया। 1990 में उन्होंने जनता दल के उम्मीदवार के रूप में हरनौत विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा, लेकिन जातीय वोटों के बिखराव के कारण निर्दलीय उम्मीदवार बृजनंदन यादव से हार गये। 1995 में, उन्हें दानापुर विधानसभा क्षेत्र से जॉर्ज फर्नांडीस के नेतृत्व वाली नवगठित समता पार्टी का उम्मीदवार बनाया गया। लेकिन यादव बहुल इस सीट पर तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद से हार गये। 1998 में, उन्हें बिहार विधान परिषद के लिए राज्यपाल द्वारा नामित किया गया और तीसरी बार इसके सदस्य बने। 2007 में, उन्हें बिहार नागरिक परिषद के वरिष्ठ उपाध्यक्ष के रूप में नामित किया गया था। वह कई सरकारी आयोगों और समितियों सहित विभिन्न पार्टी संगठनों के अध्यक्ष, संयोजक और सदस्य रहे थे।
राजनीति ही नहीं सामाजिक क्षेत्र में भी भोला बाबू ने अपनी जिम्मेदारी का बखूबी निर्वहन किया। 1962 में सांसद राम शेखर सिंह और राजेंद्र सिंह के साथ मिलकर चीनी आक्रमण के खिलाफ पटना में एक विशाल सभा का आयोजन किया, जिसमें निवर्तमान राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद और फील्ड मार्शल केएम करियप्पा भी शामिल हुए। 1961 में स्वामी दयानंद सरस्वती की मदद से उन्होंने "जाति तोड़ो सम्मेलन" का आयोजन किया, जिसे राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण ने भी संबोधित किया।
कुर्मी समाज की एकता एवं उत्थान के लिए भोला प्रसाद सिंह का योगदान अविस्मरणीय रहा। वर्ष 1963 में उन्होंने रांची क्षेत्र में कुर्मी समाज और आदिवासियों के हित के लिए "मूलवासी मोर्चा" का गठन किया, जो बाद में "झारखंड मुक्ति मोर्चा" के उदय में सहायक साबित हुआ।
भोला प्रसाद सिंह जी ने 1971 में पटना में "कुर्मी सम्मेलन" और "पिछड़ा वर्ग सम्मेलन" आयोजित करके समाज के कमजोर और वंचित वर्गों को एकजुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसमें सरदार पटेल के पुत्र श्री दह्या भाई पटेल और बेटी मणि बहन पटेल की भागीदारी महत्वपूर्ण थी। उन्होंने गुरुसहाय देवशरण मेमोरियल कॉलेज की स्थापना कर नालन्दा जिलान्तर्गत हरनौत के पिछड़े क्षेत्र को उच्च शिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ा। उन्होंने समाज के कमजोर वर्गों को समर्पित "शंबूक" नामक एक साप्ताहिक पत्रिका भी प्रकाशित की। उन्होंने गुरुसहाय देवशरण मेमोरियल कॉलेज की स्थापना कर नालन्दा जिलान्तर्गत हरनौत के पिछड़े क्षेत्र को उच्च शिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ा। उन्होंने समाज के कमजोर वर्गों को समर्पित "शंबूक" नामक एक साप्ताहिक पत्रिका भी प्रकाशित की। उन्होंने गुरूसहाय देवशरण मेमोरियल कॉलेज की स्थापना कर नालन्दा जिलान्तर्गत हरनौत के पिछड़े क्षेत्र को उच्च शिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ा। उन्होंने समाज के कमजोर वर्गों को समर्पित "शंबूक" नामक एक साप्ताहिक पत्रिका भी प्रकाशित की।
भोला बाबू दबे-कुचले लोगों की आवाज थे
भोला बाबू ने जहाँ समाज के दबे-कुचले लोगों की आवाज को बुलन्द किया, वहीं समाज के कमजोर वर्गों को मुख्य धारा में लाने के लिए संघर्ष करते रहे। अपने लंबे जीवन काल में समाजवाद और राजनीति के विभिन्न पक्षों को न केवल उन्होंने प्रभावित किया, बल्कि कमजोर वर्गों के हर कदम के साथी रहे।
भोला बाबू 1962, 1968 और 1998 में बिहार विधान परिषद के सदस्य तो रहे ही, साथ ही बिहार के मंत्री तथा बिहार नागरिक परिषद के मंत्री का दर्जा प्राप्त वरीय उपाध्यक्ष भी रहे। भोला बाबू का राजनीतिक जीवन संघर्षो से भरा था। वे किसानों के सदैव हितैषी और ग्रामीण जनता के सुख-दुःख के साथ रहे। उन्होंने राजनीतिक समस्याओं के समाधान में अपने विलक्षण निर्णयों से राज्य की राजनीति को प्रभावित किया। भोला बाबू की कृतियों और बिहार के उत्थान में उनके योगदान बिहार की राजनीति में जयप्रकाश नारायण, कर्पूरी ठाकुर को छोड़कर कोई दूसरे नेता इनकी पंक्ति में खड़े नहीं दिखाई पड़ते।
कर्मयोगी भोला प्रसाद सिंह का निधन
भोला प्रसाद सिंह का निधन 68 साल की उम्र में 9 अक्टूबर 2017 को हुआ था। और पटना के दीघा घाट पर राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया। भोला बाबू अपने समय के महानायक सदृश राजनेताओं के व्यक्तित्व की विराटता के मद्देनजर उनमें मौजूद हिम्मत, विडम्बनाओं-विसंगतियों को भुलाया नहीं जा सकता।
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