बोधिसत्व अनागारिक धम्मपाल की 159 वीं जयंती पर विशेष ..!!
पूरे उत्तर भारत तथा बिहार के बोधगया सहित जहां-जहां भी भगवान बुद्ध के चरण पड़े उनके पुनरुद्धार का श्रेय बोधिसत्व अनागारिक धम्मपाल को ही है। बौद्ध धर्म के प्रचार- प्रसार में अनागरिक धर्मपाल ने अहम भूमिका निभाई थी। उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। बौद्ध धर्म के उद्धारक के रूप में उन्होंने देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी अपनी अलग पहचान बनाई।
अनागरिक धम्मपाल का जन्म, शिक्षा और पारिवारिक जीवन
भारत में प्रथम बौद्ध धर्म के पुनर्जागरणकर्ता अनागरिक धम्मपाल जिनका बचपन का नाम डॉन डेविड हेवावितरणे था। इनका का जन्म 17 सितंबर 1864 को कोलंबो (श्रीलंका) के एक बौद्ध परिवार में हुआ था। श्रीलंका पूर्व में सिंहलद्वीप के नाम से जाना जाता था। फिर कोलोनियल शासन में इसका नाम सीलोन नाम दिया। जोकि वर्तमान नाम श्रीलंका वर्ष 1972 में दिया गया। बालक डॉन डेविड हेवावितरणे का जन्म एक धनी व्यापारी परिवार में हुआ था। इनके शुरूआती जीवन में मेडम मेरी ब्लावस्त्सकी और कर्नल हेनरी आलकौट का बहुत बड़ा योगदान रहा। सन् 1875 के दौरान मेडम मेरी ब्लावस्त्सकी और कर्नल हेनरी आलकौट ने अमेरिका के न्यूयार्क में थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना की थी। इन दोनों ने बौद्ध धर्म का काफी अध्ययन किया था मगर 1880 में ये श्रीलंका आये तो इन्होने वहां न सिर्फ स्वयं को बुद्धिष्ट घोषित किया बल्कि भिक्षु का वेश धारण किया। इन्होने श्रीलंका में 300 के ऊपर स्कूल खोले और बौद्ध धर्म की शिक्षा पर भारी काम किया। डेविड इनसे काफी प्रभावित हुए। बालक डॉन डेविड हेवावितरणे को पालि सीखने की प्रेरणा इन्हीं से मिली। यह वह समय था जब डेविड ने अपना नाम बदल कर “अनागरिक धम्मपाल” कर दिया था। बौद्ध परिवार में जन्म लेने के कारण बौद्ध संस्कार उन्हें जन्मजात मिले थे। कुशाग्र बुद्धि होने के कारण युवावस्था तक उन्होंने पूरा ’त्रिपिटक’ पढ़कर आत्मसात कर लिया था। बचपन में एक ईसाई मिशनरी स्कूल में पढ़ने के कारण उनका नाम डॉन डेविड हेवावितरणे था, इनके पिता का नाम डॉन केरोलिस हेवावितरणे तथा माता का नाम मल्लिका धर्मागुनवर्धने था। उस समय अंग्रेजी शासन के विरुद्ध युवावस्था में उन्होंने क्रांतिकारी कदम उठाया और अपना ईसाई नाम त्यागकर बौद्ध नाम ‘अनागरिक धर्मपाल’ धारण कर लिया। फिर बचपन की हसरत को साकार करते हुए वे युवावस्था में, पच्चीस वर्ष की आयु में वर्ष 1889 में जापान, बर्मा इत्यादि देशों की यात्रा की।
धर्मपाल द्वारा भारत में बौद्ध तीर्थों की यात्रा और गैरबौध्द से मुक्ति
अनागारिक धम्मपाल ने भारत के बौद्ध तीर्थों की यात्रा की तो बौद्धों के मंदिर-मठ को खंडहर अवस्था में देखकर वे हतप्रभ रह गये। बोधगया, जहां तथागत बुद्धत्व को प्राप्त हुए थे। वहा के बुद्ध मंदिर की दशा देखकर तो वह रो पड़े थे। 1891 में अनागरिक धम्मपाल ने भारत स्थित बौद्ध गया के महाबोधि महाविहार की यात्रा की थी। यह वही जगह है जहाँ सिद्धार्थ गोतम को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी। वे देखकर हैरान रह गए की किस प्रकार से पुरोहित वर्ग ने बुद्ध के मुर्तीयों को हिन्दू देवी-देवता में बदल दिया है। इन विषमतावादियों ने तब बुद्ध महाविहार में बौद्धो को प्रवेश करने से भी निषेध कर रखा था। अनागरिक धम्मपाल के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप उनके निधनोपरांत राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के हाथों बौद्ध गया को वैशाख पूर्णिमा, संवत् 2012 अर्थात् 6 मई,सन 1955 को बौद्धों को दे दिया गया।
अनागारिक धर्मपाल ने सार्वजनिक प्रचार कार्य के लिए एक मोटर बस को घर बनाया और उसका नाम 'शोभन मालिगाँव' रखकर गाँव-गाँव घूमकर विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार तथा बौद्ध धर्म का संदेश दिया। मेरी फास्टर नामक एक विदेशी महिला ने इनसे प्रभावित होकर महाबोधि सोसायटी के लिए लगभग पाँच लाख रुपए दान दिए थे।
भारत में बौद्ध धम्म और बौद्ध तिर्थ-स्थलों की दुर्दशा देखकर अनागरिक धम्मपाल को बेहद दुख हुआ। बौद्ध धर्म स्थलों की बेहतरीन के लिए इन्होने विश्व के कई बौद्ध देशों को पत्र लिखा। इन्होने इसके लिए वर्ष 1891 में महाबोधि सोसायटी की स्थापना की। तब इसका हेड आफिस कोलंबो था। किंतु शीध्र ही इसे कोलकाता स्थानांतरित किया गया। महाबोधि सोसायटी की ओर से अनागरिक धम्मपाल ने एक सिविल सुट दायर किया जिसमें मांग की गई थी कि महाबोधि विहार और दूसरे तीन प्रसिद्ध बौद्ध स्थलों को बौद्धो को हस्तांतरित किये जाये। इसी रिट का ही परिणाम था कि आज महाबोधि विहार में बौद्ध जा सकते हैं। परंतु तब भी वहां तथाकथित हिन्दुओं का कब्जा आज भी है। उस समय बोधगया का मंदिर गैरबौध्द महंतो के कब्जे में था। इस दुर्दशा को देखकर ही उन्होंने आजीवन भारत में रहकर बौद्ध तीर्थों के उध्दार का संकल्प लिया। उन्होंने बोधगया के बुद्ध मंदिर की मुक्ति का एक राष्ट्रव्यापी, विश्वव्यापी आन्दोलन चलाया। अनागरिक धम्मपाल के अथक प्रयास से कुशीनगर, जहाँ तथागत का महापरिनिर्वाण हुआ था फिर से बौद्ध जगत में दर्शनीय स्थल बन गया। उन्होंने एक बौद्ध सांस्कृतिक सम्मेलन का आयोजन किया। जिसमें भारत सहित जापान, श्रीलंका, चीन, बर्मा इत्यादि बौद्ध देशों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। 31 मई 1891 में उन्होंने महाबोधि सोसाइटी की स्थापना की।
विश्व धर्म सम्मेलन में अनागारिक धम्मपाल और विवेकानंद ने हिस्सा लिया
सन् 1893 में अनागारिक धम्मपाल ने शिकागो, अमेरिका में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में भी हिस्सा लिया, जिसमें अनागारिक धम्मपाल के साथ स्वामी विवेकानंद भी सम्मिलित हुए थे। ये दोनों बोधगया में साथ-साथ रह चुके थे। दोनों में अच्छी मैत्री थी। दोनों एक दुसरे से प्रभावित थे, अनागारिक धम्मपाल के सानिध्य में स्वामी विवेकानंद ने बौद्ध दर्शन का अध्ययन किया तथा शून्यवाद से अत्यंत प्रभावित हुए।
शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में अनागारिक धम्मपाल ने अपने व्याख्यान के लिए निर्धारित समय में से स्वामी विवेकानंद को समय दिलवाया था, क्योंकि स्वामी जी आमंत्रित वक्ताओं में सूचीबद्ध नहीं थे। तब स्वामी जी ने बुद्ध के शून्यवाद पर ही अपना व्याख्यान केंद्रित किया था। जिसके लिए आज तक किंवदन्ती हैं कि विवेकानंद जीरो पर बोले थे, दरअसल उन्होंने बुद्ध के शून्यवाद पर बोला था। इस सम्मेलन में सम्मिलित हो कर दोनों प्रतिभाएं विश्वविख्यात हो गये।
अमेरिका के शिकागो में संपन्न विश्व धर्म संसद जो 18 सितंबर 1893 में संपन्न हुआ था अनागरिक धम्मपाल के द्वारा बौद्ध दर्शन पर दिये भाषण से वहां पर उपस्थित दुनीया के विभिन्न धर्मों के विद्वान भौचक्के रह गए। स्वामी विवेकानन्द जी को अधिकृत निमंत्रण नहीं था। अनागारिक धम्मपाल ने बुद्ध के भूमि से आए मित्र को आयोजकों से निवेदन कर अपने भाषण के समय में से तीन मिनट का समय बोलने के लिए दिया था, धर्म-संसद में हिन्दू दर्शन पर स्वामी विवेकानंद का भाषण हुआ था।
अनागरिक धम्मपाल ने कई स्कूल और अस्पताल का निर्माण कराया
बोधिसत्व अनागरिक धम्मपाल ने अपने जीवन के 40 वर्षों में भारत, श्रीलंका और विश्व के कई देशों में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के बहुत से उपाय किये। इन्होने कई स्कूलों और अस्पतालों का निर्माण कराया। कई जगह इन्होने बौद्ध विहारों का भी निर्माण कराया। सारनाथ का प्रसिद्ध महाविहार अनागरिक धम्मपाल ने ही बनवाया था।
बोधिसत्व अनागरिक धम्मपाल का निधन
13 जुलाई 1931 अनागरिक धम्मपाल बाकायदा बौद्ध भिक्षु बन गये इन्होने प्रव्रज्या ली। 16 जनवरी 1933 को प्रव्रज्या पूर्ण हुई और इन्होने उपसंपदा ग्रहण की। और फिर नाम पड़ा भिक्षु देवमित्र धर्मपाल। बौद्ध धर्म के इतने बड़े पुनरुद्धारक 29 अप्रैल 1933 को 69 वर्ष की अवस्था में इस दुनिया से विदा हो गये। इनकी अस्थियां पत्थर के एक छोटे से स्तूप में मूलगंध कुटी विहार में पार्श्व में रख दी गई।
अनागरिक धम्मपाल बुद्धिष्ट जगत के एक ख्याती प्राप्त हस्ती बौद्ध धर्म के पुनर्उद्धारक भारत में बौद्ध धर्म के पतन के हजारो साल बाद अनागरिक धम्मपाल ही वह व्यक्ति थे, जिन्होंने न सिर्फ इस भारत में बौद्ध धर्म का पुन: झंडा फहराया बल्कि एशिया, यूरोप और उत्तरी अमेरिका में इसके प्रचार-प्रसार के लिए भारी काम किया।
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