दशहरा में नीम पौधा लगा कर करें प्रकृति का पूजा..!!


लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली

 तुलसी का पौधा शायद पृथ्वी पर सबसे उपयोगी पौधा है क्योंकि इसके धार्मिक महत्व का विस्तार से वर्णन किया गया है जबकि नीम का धार्मिक अनुप्रयोग कुछ धार्मिक संदर्भ पुस्तकों तक ही सीमित है। वैज्ञानिक रूप से तुलसी के पौधे का अर्क मानव शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है, जबकि नीम रक्त शुद्धि और त्वचा रोगों, कई कवक और जीवाणु रोगों को ठीक करने में भूमिका निभाता है। विचार करने के लिए एक और बात इसकी वृद्धि के लिए घेरी गई जगह है जिसकी नीम को बढ़ने के लिए अधिक आवश्यकता होती है। तुलसी के पौधे को विकास की कम आवश्यकता होती है।
नीम का पेड़ भारत में पाई जाने वाली सर्वाधिक उपयोगी और मूल्यवान वृक्ष है। ये औषधीय गुणों से भरपूर होता है, इसलिए आम जीवन में इसका खूब प्रयोग होता है। इसकी पत्तियों से लेकर इसके बीज तक सब कुछ बहुत उपयोगी होता है। त्वचा, पेट, आँखें और विषाणु जनित समस्याओं में इसका अद्भुत प्रयोग होता है। इसकी पत्तियां किसी भी प्रकार के संक्रमण को रोक सकती हैं ।

नीम प्रकृति का सबसे अनुपम उपहार  
 
नीम का पौधा या पेड़ प्रकृति का सबसे अनुपम उपहार है। शहरों में जगह के अभाव के कारण बडे़ पैमाने पर पौधे लगाना मुश्किल है। फिर भी बची हुई पर्याप्त जगह पर भी पौधे लगाकर इसकी थोड़ी बहुत भरपाई कर पर्यावरण को संतुलित किया जा सकता है। नीम के पेड़ का हर हिस्सा स्वास्थ्य के लिए अमृत से कम नहीं है। इसकी पत्तिया, तना, छाल, जड़, फल सब कुछ सेहत के लिए फायदेमंद है। नीम के पेड़ को सदाबहार भी कहा जाता है और पर्यावरणविदों की मानें तो यह हवा साफ करने वाला प्राकृतिक प्यूरीफायर है। यह पेड़ प्रदूषित गैसों जैसे कार्बन डाइआक्साइड, सल्फर और नाइट्रोजन को हवा से ग्रहण करके पर्यावरण में आक्सीजन को छोड़ता है।
आज पूरी दुनिया पर्यावरण को लेकर चिंतित है, जलवायु परिवर्तन धीरे-धीरे हमारे लिए खतरा बनता जा रहा है। हालांकि, पर्यावरण संरक्षण के लिए कई बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं, लेकिन धरातल पर यह सभी बातें गौण नजर आती हैं। पेड़ों की कटाई निरंतर जारी है, जिससे हमारा भविष्य अंधेरे में डूबता जा रहा है।
अक्सर किताबों में लोग पर्यावरण संरक्षण की बातें करते हैं, लेकिन बहुत कम ही लोग ऐसे हैं, जो किताबी ज्ञान को असल जीवन में उतार रहे हैं। भारतीय गांवों में नीम को 'नारायण' माना जाता है। गांव के लोगों के लिये नीम का पेड़ एक प्रकृति का वरदान है। नीम की टहनीयों से दातुन की जाती है। नागपंचमी पर्व में घर-घर नीम के पत्तेदार टहनी को रखते हैं। इसके अलावा बहुत से औषधीय नुस्खे नीम के पेड़ से बनते हैं। छांह तो हर पेड़ देता ही है किन्तु सुख पूर्वक नींद नीम की छांह में ही आयेगी। इसका एक कारण यह भी है कि नीम के पेड़ पर विषैले जीव नहीं रहते हैं। गांव के लोगों को नीम का औषधीय गुणों का ज्ञान परम्परा से प्राप्त होता है, इसलिए इसका महत्व जानकर नीम का पेड़ घर के आसपास लगाया जाता है। स्वयं का पेड़ होने से कुछ सीमा तक दूसरो पर निर्भरता भी समाप्त हो जाती है, शाय़द इस वजह से भी गांव में घर के बाहर नीम का पेड़ लगाया जाता है।
भारत में नीम के पेड़ को प्राचीन काल से पूजा जाता है

भारत में नीम के पेड़ को प्राचीन काल से पूजा जाता है। यह पेड़ सदैव मंदिरों एवं मस्जिदों से जुड़ा रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में लोग नीम के पेड़ को शीतला माता का स्वरूप मानते हुए अनादि काल से ही पूजा करते आ रहे है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार नीम और माता आदिशक्ति का संबंध अटूट है। मान्यता है कि शरीर पर चेचक (माता) निकलने पर नीम की टहनियों से जहां उसे सहलाया जाता है, वहीं देवी मां नीम के पेड़ पर सदैव वास कर झूला झुलती हैं। निमिया की डरिया मईया झूले ली झुलनवा हो कि झूमी-झूमी ना भोजपुरी भजन को लगभग सभी गायकों ने अपनी-अपनी शैली में गाया है। नीम का पेड़ वैज्ञानिक दृष्टि से भी रोग एवं कीटाणुनाशक बताया जाता है। अनेक रोगों में इसकी पत्ती, छाल, जड़, तना, फल तथा फूल दवा का काम करता है।
धर्म के उद्देश्य की बात की जाए तो प्रत्येक धर्म प्रत्येक व्यक्ति के उत्तम आचरण पर जोर देता है। कल्याण के लिए किसी अदृश्य दुनिया में स्वर्ग का लालच या नरक का भय भले दिखाया जाए, पर अगर तौर-तरीकों पर ध्यान दें तो साफ दिखता है कि उसका मूलभूत लक्ष्य जीवन में व्यवस्था लाने और दुनिया को शांत और सुंदर बनाए रखना ही है। 

मानव जाति की रक्षा करता है उसे भगवान का दर्जा मिलता है 

जो कुछ भी मानव जाति की रक्षा करता है उसे भगवान का दर्जा मिलेगा और नीम एक ऐसा ही पेड़ है जिसे भारतीय लोगों द्वारा इसके औषधीय महत्व के लिए पहचाना जाता है। इसलिए नीम के पेड़ की पूजा शीतला माता के नाम से की जाती है।
'सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया' के स्वप्न को साकार करने का यही एकमात्र मार्ग है प्रकृति पूजा। इसी उद्देश्य से विभिन्न अवसरों के लिए कई पर्व-त्योहार तय किए गए। इन त्योहारों के बहाने हम प्रकृति में अपना साक्षात्कार करते हैं और स्वयं में प्रकृति का। इन्हीं अवसरों पर कथा-कहानियों और संतों-महापुरुषों की जयंतियों के बहाने हम उनके दिए दर्शन को बार-बार याद करते रहते हैं, उस पर मनन करते हैं और जहां हमसे चूक हो रही होती है, उसे फिर से सुधारने की कोशिश करते हैं। 

धीरे-धीरे त्योहारों से पेड़-पौधे का मूल ज्ञान गायब हो गया

 धीरे-धीरे त्योहारों से उनका मूल ज्ञान गायब हो गया और बाकी बचा सिर्फ अंधविश्वास व कर्मकांड। हालांकि कर्मकांड सिर्फ साधन थे, जो किसी न किसी रूप में हमें प्रकृति से जुडऩे का संदेश देते थे। त्योहारों में अब धर्म, प्यार, सद्भावना, तप, प्रेम, अहिंसा आदि सभी मूल भाव भी पीछे छूटते जा रहे हैं। अब दिख रहा है केवल धन का नशा एवं वैभव का अभिनय। आज त्योहारों को मनाने में चारों तरफ कान फाड देने वाले लाउडस्पीकरों, बैंड, आतिशबाजी, बिजली आदि का बहुतायत मात्रा में उपयोग होने लगा है। इससे एक ओर जहां ध्वनि एवं वातावरण प्रदूषित होता है, वहीं दूसरी ओर आम जनता को अत्यधिक असुविधा होती है एवं परेशानी का सामना करना पडता है। ध्वनि प्रदूषण के चलते कितने तरह की बीमारियां होती हैं, यह सभी जानते हैं। इसके बावजूद त्योहारों ही नहीं, सामान्य दिनों में भी अन्य कारणों के अलावा धार्मिकता के नाम पर भी ऊंची आवाज में लाउडस्पीकरों का प्रयोग होता है। धर्म के प्रचार-प्रसार के नाम पर लोग ध्वनि प्रदूषण फैलाते हैं तथा आम नागरिक की शांति में व्यवधान उत्पन्न करते हैं। इसी तरह जनसामान्य और विपन्न लोगों के लिए भंडारा करना या प्याऊ लगाने की बात तो समझ में आती है, लेकिन विभिन्न अवसरों पर दावतों के नाम पर अनावश्यक भंडारे और धन का जो अभद्र दिखावा होता है, वह पाखंड के अलावा और क्या है? इन सभी प्रकार के आयोजनों में धन, समय और खाद्यान्नों की बर्बादी तो होती ही है, साथ ही समाज में अनुचित प्रतिस्पर्धा, तनाव तथा अन्य कुरीतियां भी बढती हैं। प्रदूषण बढता है और कई तरह की बीमारियां फैलती हैं। फिर उनके इलाज पर अच्छी-खासी रकम खर्च होती है। लोगों का सुख-चैन जाता है, वह अलग। केवल धर्म ही नहीं, दूसरे कारणों से भी इसी तरह की प्रवृत्तियां समाज पर हावी होती दिख रही हैं। इस मामले में सभी एक-दूसरे से होड करते नजर आ रहे हैं। कभी कोई निजी आयोजन, तो कभी उत्सव और कभी जुलूस के चलते सडकों पर जाम लगना आम बात हो गई है। इन आयोजनों में केवल आम आदमी ही भाग लेता हो, ऐसा भी नहीं है। कई जगहों पर राजनैतिक हस्तियों, कलाकारों आदि को भी इनमें भाग लेते देखा जा सकता है। इससे ऐसे आयोजनों के प्रति लोगों का आकर्षण व उत्साह और बढता है। सरकारी धन का भारी दुरुपयोग होता है तथा इन आयोजनों की सुरक्षा एवं व्यवस्था पर भारी सरकारी संसाधन व्यय होता है। इन रूढिय़ों से धर्म का व्यवसाय भले फले-फूले, लेकिन क्या इससे धार्मिकता के मूल उद्देश्य की पूर्ति होती दिखती है? क्योंकि पर्व-त्योहारों का विधान तो आत्मानुशीलन के लिए किया गया था। इसलिए कि समय-समय पर आप प्रकृति से अपने तादात्म्य और उसके तरीके पर शांत मन से विचार कर सकें। यह सोच सकें कि जो कुछ हम कर रहे हैं, उससे हम पर और हमारी प्रकृति पर क्या असर पड रहा है। क्योंकि धरती पर जीवन उतने ही दिन सुरक्षित है, जितने दिन प्रकृति सुरक्षित है और प्रकृति तभी तक सुरक्षित है जब तक इससे मनुष्य के रिश्ते सहज बने रह सकें। 

विज्ञान से पहले धर्मगुरुओं ने प्रकृति से जुड़ने की बात की

आज कितना हास्यास्पद लगता है कि विज्ञान के अहंकार में चूर आज का मनुष्य प्रकृति से होड लेने और उसे हराने की सोच से ग्रस्त हो गया है। ऐसा करते हुए वह भूल जाता है कि विज्ञान के सारे सिद्धांत, यहां तक कि आविष्कार भी, प्रकृति से ली गई प्रेरणा पर ही आधारित हैं। विज्ञान के भरोसे प्रकृति को नुकसान पहुंचाने के एक-दो नहीं, सैकडों नतीजे हमारे सामने हैं। इसके बावजूद हम उससे होड लेने की भावना से बाज नहीं आ रहे हैं। यहां तक कि आज विज्ञान भी हमें बार-बार आगाह कर रहा है, तो भी हम इस भाव से उबर नहीं पा रहे हैं। क्योंकि हम व्यक्तिगत तौर पर अपने लिए अधिक सुविधा चाहने लगे हैं। भले दूसरे लोगों को इससे कितनी भी असुविधा क्यों न हो। ठीक इसी तरह प्रकृति से हम अपने लिए अधिक लाभ भी लेना चाहते हैं, चाहे दूसरों को इससे कितना भी नुकसान क्यों न हो। ऐसा करते हुए हम यह भूल जाते हैं कि हर कर्म के साथ फल स्वाभाविक रूप से जुडा हुआ है और प्रतिदान वैसे भी प्रकृति का नियम है। इसका नतीजा एक दिन हमें भी भुगतना पडेगा। विज्ञान से पहले धर्मगुरुओं ने प्रकृति से जुड़ने की बात कही। किसी भी धर्म के रीति-रिवाज और परंपराओं को उसके इतिहास से जोड कर देखें तो यह बात आसानी से समझ में आ जाती है। इसीलिए धूप, हवा, पानी जैसी जो चीजें अधिकतर जगहों पर सहज उपलब्ध हैं, उनका भी सभी धर्मों में सोच-समझकर इस्तेमाल करने की सलाह दी गई है। कुछ भी करने से पहले न केवल अपने कुटुंबियों, बल्कि पूरे परिवेश का भला-बुरा सोच लेने की बात कही गई है। दुख की बात है कि आज यह सब हो रहा है और केवल हो ही नहीं रहा, बल्कि धर्म के नाम पर भी हो रहा है। कुछ अराजक तत्व तो धर्म की आड में उच्छृंखलता की पूरी छूट ले रहे हैं और इनसे पूरा समाज प्रभावित हो रहा है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि दिखावे की प्रवृत्ति के चलते पाखंड खतरनाक रूप से दिन-प्रतिदिन बढता जा रहा है। यह संपूर्ण राष्ट्र के सामने जटिल समस्या बन चुकी है। सबको उसके हिस्से की प्रकृति का सार्थक आनंद लेने की पूरी सुविधा देने की बात करता है और हम हैं कि अकेले उसे भरपूर भोग लेने के चक्कर में अपनी ही अगली पीढी तक के बारे में नहीं सोच पा रहे हैं। क्या कभी आपने सोचा कि अगर इसी तरह नदियां प्रदूषित होती रहीं, ऐसे ही वायुमंडल जहरीले धुएं और धूल से भरता रहा, दिन-रात कान फाडऩे वाली आवाजें हमारे चारों तरफ तैरती रहीं तो हमारी अगली पीढिय़ों का क्या होगा? अन्न-जल से लेकर हवा और शांति तक का संकट अगर छा गया दुनिया पर तो कैसे जिएंगे लोग? धार्मिकता का वास्तविक अर्थ वास्तव में इस बात की परवाह करना है। अपने साथ-साथ समूची मानवता के हितों का चिंतन करना है और इस चिंतन के लिए शोर, हंगामे या उत्सव से ज्यादा शांति आवश्यक है। क्योंकि शांति ही वह साधन है जो आपके चिंतन को सही दिशा दे सकता है।  

नीम लाभदायक और औषधीय गुण से भरपूर पेड़

नीम बहुत ही लाभदायक और औषधीय गुण से भरपूर पेड़ है। जिसका प्रयोग प्राचीनकाल से प्राकृतिक, होमियोपैथिक और आयुर्वेदिक दवाओं को बनाने में तो किया ही जाता है साथ ही बहुत से अंग्रेजी और आर्गेनिक दवायों में किया जाता है। इतना ही नहीं नीम का प्रयोग त्वचा संबंधित क्रीम, लोशन, पाउडर और  फेशियल, फेश वास में भी किया जाता है। इसलिए तो नीम को औषधीय गुण से भरपूर माना जाता है, जिससे हम विभिन्न बीमारियों से लड़ने में सहता मीलती है। जैसे की एंटीवाइरल बुखार, त्वचा रोग, मधुमेह, चेचक, रक्तशुद्ध इत्यादिक बीमारियों में (एंटीसेप्टिक ) रोगाणुरोधक की तरह अपना काम करता है और जल्दी आराम भी दिलाता है।

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