जितिया में नोनी का साग और सतपुतिया झींगा..!!
आज मैं आप लोगों को "नोनी का साग और सतपुतिया झींगा" के बारे मैं बताने जा रहा हूँ। ‘जिउतिया ’या जिसे मगध में लोग जितिया का पर्व से जानते हैं ‘जिउतिया' का पर्व आया तो घर में नोनी के साग की चर्चा चल पड़ी। यह साग जिउतिया पर्व की व्रती महिला के ‘पारण’ में जरूरी समझा जाता है। प्रकृति के प्रांगण में असंख्य वनस्पतियां हैं, जिनका उपयोग विभिन्न अवसरों पर होता है। भारत के पूर्वांचल,मगध के अनेक पर्व-त्योहारों में जिउतिया का एक खास स्थान है। इसे ‘जीवित्पुत्रिका’ व्रत भी कहते हैं। महिलाएं बड़ी निष्ठा और पवित्रता के साथ इस व्रत में चौबीस घंटे निर्जला उपवास करके अपने पुत्र के दीर्घायु होने की कामना करती हैं। इस व्रत के साथ चिल्हो-सियारिन की एक पौराणिक कथा जुड़ी हुई है। व्रती महिला मान्यता के अनुसार सरगही खाने के समय भोर में चिल्हो-सियारिन के लिए नेनुआ के पत्तों पर भोजन रख देती हैं। इसी समय सतपुतिया झींगा (एक प्रकार का सब्जी ) की भी जरूरत पड़ती है। पांच प्रकार की सब्जियों में एक सतपुतिया झींगा(गुक्ष में फरने वाला सब्जी) भी होती है। भोजपुरी व मगध अंचल में इस व्रत को बड़ी निष्ठा से निबाहा जाता है।
अक्सर सोचता हूं कि बेटी के जन्म या उसकी दीर्घायु के लिए भी क्या कोई इस तरह का व्रत हमारी परंपरा में रहा है। क्या हमारा ध्यान कभी इस ओर जाता है कि हमारी आस्था में भी बेटियों का जीवन हमारे बेटों से कम महत्त्वपूर्ण क्यों दिखता है?
खैर, महानगरीय जीवन में नोनी या सतपुतिया तरकारी जैसी चीजें दुर्लभ होती जा रही हैं। नई पीढ़ी तो कठिनाई से इन्हें पहचान पाती है। देहात में नोनी का साग, रेंगनी का कांटे या सूथनी भले दिख जाए, शहरी जीवन में इनका मिलना कठिन हो जाता है। इसलिए मुझसे जब कहा गया कि जिउतिया के लिए नोनी का साग जरूरी है, तब मैं चिंता में पड़ गया। पारंपरिक विधि-विधान की कुछ चीजें कभी-कभी समस्या बन जाती हैं। आंगन के गमलों में नोनी इस बार नहीं दिखी। गांवों में खेतों की मेड़ या बांध पर पसरी हुई नोनी आमतौर पर दिख जाती है। जमने-उगने में नोनी को थेथर साग कहा जाता है। नोनी का एक अंगुल का टुकड़ा भी धरती पर फेंक दीजिए तो वह उग जाती है और धीरे-धीरे फैलने लगती है। उसके पत्ते छोटे-छोटे होते हैं और स्वाद में हल्का खट्टापन होता है। नोनी की ही प्रजाति का साग कहीं-कहीं दिखाई पड़ जाता है। उसके पत्ते बड़े होते हैं। उसे नोना कहा जाता है। लेकिन उसका महत्त्व नोनी जैसा नहीं होता। नोनी का साग सामान्य भोजन में सब्जी के रूप में भी उपयोगी होता है। इसके बजका- पकौड़े बनाए जाते हैं। लोग बताते हैं कि यह उच्च रक्तचाप और शर्करा रोग में भी लाभदायक है।
जिस ग्रामीण संस्कृति और परंपरा को साथ लिए हम महानगर या शहर में आते हैं, वहां उनके परिपालन में कई बार कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इसलिए स्थान और समय से समझौता जरूरी होता है। केवल नोनी के साग, रेंगनी के कांटे या सूथनी जैसी चीजों के लिए हम गांव में नहीं लौट सकते। दूसरी ओर, नई पीढ़ी के साथ विडंबना है कि उसे आम का पल्लव या बेलपत्र तक को पहचानने में भी कठिनाई होती है। उनके लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियां जितनी नजदीक हैं, उतनी ही दूर हैं ग्रामीण संस्कृति और वहां की परंपराएं। बदलाव ऐसा आया है कि होली के दिन भी दूरदर्शन कुछ लोगों को बुला कर अपने सामने बैठा कर क्रिकेट मैच या कोई फिल्म परोसने लगता है। लोग राम में जितनी रुचि नहीं लेते, उससे ज्यादा रावण-दहन में उनकी उत्सुकता बनी रहती है। दीपावली में लक्ष्मी-गणेश से अधिक आसमान में छूटते पटाखे और बम लुभाते हैं। पिछले दिनों किसी समाचार पत्र में छपी एक खबर में दिल्ली की किसी रामलीला में सीता का अपहरण आकाश में उड़ते हेलीकॉप्टर पर दिखाने की बात कही गई थी।
समय की तेज रफ्तार में लोगों की निष्ठाएं बदलती जा रही हैं। ऐसी दशा में नोनी का साग या रेंगनी के कांटे के अभाव में हम विकल्प खोज कर सूखती ,बिलुप्त होती भारतीय संस्कृति की जड़ में थोड़ा जल डाल कर व्रत-त्योहार मना कर संतुष्ट हो जाते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि समय का प्रवाह अपने साथ पुराना बहुत कुछ बहा ले जाता है तो कुछ नया भी लेकर आता है। बीते के लिए उदास होने से बेहतर है कि नए में से सकारात्मक चुन कर खुश हुआ जाए।
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