पिछड़े एवं अभिवंचित वर्गों ने संगठन की शक्ति का पहला संकेत दिया है ...!!

लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली

ज्योतिबाफुले,पेरियार ई.वी.रामास्वामी नायकर, यूनानी दार्शनिक सुकरात और दक्षिण भारत के आंदोलनों से प्रेरित होकर बिहार में 30 मई, 1933 को त्रिवेणी संघ का गठन हुआ था। पिछड़े एवं अभिवंचित वर्गों के इस आंदोलन ने देखते ही देखते सभी शोषित वर्गों को अपने साथ ले लिया। इसका प्रभाव बिहार की राजनीति में आज भी विद्यमान है। उस समय के शाहाबाद जिले (वर्तमान में रोहतास जिला) के करगहर में त्रिवेणी संघ बना। इसके संस्थापकों में चौधरी जे.एन.पी. मेहता, सरदार जगदेव सिंह यादव और डॉ.शिवपूजन सिंह प्रमुख थे। 1935 में प्रदेश स्तर पर त्रिवेणी संघ का गठन हुआ। गणपति मंडल सचिव और दासू सिंह अध्यक्ष बनाए गए। बाद में ऑल इंडिया त्रिवेणी संघ का गठन भी हुआ। उत्पीड़ित जातियों के साझा मंच के बतौर इसने बिहार में स्पष्ट दृष्टि व व्यापक एजेंडा के साथ सामाजिक न्याय की लड़ाई की बुनियाद रखी। पिछड़ों-दलितों के सामाजिक-राजनीतिक सशक्तिकरण का रास्ता खोला। त्रिवेणी संघ के जन्मदाता कहे जाने वाले सरदार जगदेव सिंह यादव, जिनके मन मे सर्वप्रथम इस संगठन का विचार आया, वे यादव महासभा में तो सक्रिय थे ही, डॉ. शिवपूजन सिंह के साथ कुर्मी सभा के अधिवेशनों में भी जाते थे। 
दरअसल, त्रिवेणी संघ का गठन उस दौर में हुआ जब बहुसंख्यक समाज के मसलों और मुद्दों को लेकर कोई पहल नहीं हो रही थी। इसका असर भी दिखा। बिहार में इस आंदोलन ने एक झटके में पिछड़ों को नींद से जगा दिया और उन्हें यह अहसास कराया कि उनके हितों की रक्षा कोई दूसरा नहीं कर सकता। त्रिवेणी संघ की कोख से जगदेव प्रसाद कुशवाहा और जगदीश मास्टर जैसे जननायकों का जन्म हुआ। कहा जा सकता है कि आज भी बिहार की राजनीति में इसका असर है। हालांकि यह भी उतना ही सत्य है कि त्रिवेणी संघ के विचारों को मानने वाले नेताओं ने इसका मान नहीं रखा है।
त्रिवेणी संघ के नेता धर्म-विरोधी नहीं थे। संघ का मानना था कि उसका अंतिम उद्देश्य साम्राज्यवाद से लड़ना और साम्यवाद लाना था। “त्रिवेणी संघ धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक साम्राज्यवाद का अंत चाहता है। यह एक औद्योगिक क्रांति और धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक साम्यवाद चाहता है”  संघ की स्थापना के मूल में जातिगत चेतना थी। इसके सिद्धांतकारों का मानना था कि जातिगत भेदभाव से मुक्ति का मतलब सामाजिक साम्राज्यवाद से मुक्ति है। संघ के नेता जातीय समानता एवं समरसता के समर्थक थे।
आजाद भारत में (पिछड़े एवं अभिवंचित) ओबीसी आंदोलन के पहला आयोग, जिसे  कालेलकर आयोग कह सकते हैं। इसका आगाज 1925 में रामासामी पेरियार ने कांग्रेस को खारिज कर शुरू किया था। वहीं ओबीसी आंदोलन का दूसरा ‘मंडल आयोग 1980 में कर्पूरी ठाकुर-बीपी मंडल के नेतृत्व में शुरू हुआ, और इसे परवान लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार जी और मुलायम सिंह यादव आदि नेताओं ने दी। वर्ष 1996 में तत्कालीन प्रधानमंत्री देवगौड़ा ने अपने मंत्रिमंडल में ओबीसी जातिवार जनगणना प्रस्ताव को मंजूरी देकर तीसरे ‘जातिगत जनगणना की शुरुआत की। और अब जातिवार सर्वेक्षण के सफल समापन के साथ ही नीतीश कुमार के नेतृत्व में 2023 से ओबीसी आंदोलन का चौथा जातिगत जनगणना शुरू हुआ।
बीते 2 अक्टूबर, 2023 को बिहार की जातिवार सर्वेक्षण के आंकड़ों व डेटा की घोषणा करते हुए माननीय श्री नीतीश कुमार ने साफ-साफ कहा कि अब हमारे पास हर जाति का आंकड़ा मौजूद है। इसलिए हम ऐसी योजनाएं बनाएंगे ताकि इन जातियों के उत्थान के लिए कार्यक्रम चलाए जा सकते हैं! उनके इस कथन का अर्थ यह है कि विभिन्न योजनाओं को लागू करके इन जातियों को सम्मान के साथ विकास होगा।
आजादी के 75 वर्षों में किसान, उत्पादक, सेवाकर्मी, मजदूरों ने केवल सरकारी खजाना भरने का काम किया। लेकिन साजिस के तहत् उन्हें इस खजाने से दूर रखा गया। अपने विकास के लिए उनको इस तिजोरी से अपने हिस्से का (रिफंड) धन वापसी कभी नहीं मिला। 75 वर्षों से उच्च वर्ग और ज़मींदार जातियां राजकोष लूट रही हैं। वर्तमान में पूंजीपतियों ने सरकारी बैंकों से लाखों करोड़ रुपए की लूट की। अब यह साफ है कि 75 साल बाद बिहार में पहली बार (पिछड़े एवं अभिवंचित) ओबीसी शूद्र जातियां सरकारी खजाने पर अपना अधिकार जमाना शुरू करेंगी। इसे जातिवार सर्वेक्षण का सकारात्मक असर माना जाना चाहिए। 
इतिहास के पन्नों में एक उदाहरण है। राजा शाहूजी महाराज ने सरकारी खजाने से कुछ रुपए निकालकर  दलित गंगाराम कांबले को होटल बनाने के लिए दिए और गंगाराम होटल का मालिक बन गया। मालिक बनने के बाद ही उन्हें नकदी मिलनी शुरू हुई। जब रोजाना नकदी आने लगी तभी एक मालिक के रूप में बाजार में उनका सम्मानजनक प्रवेश शुरू हुआ। अगर गंगाराम कांबले होटल चलाकर और ज्यादा अतिरिक्त पैसे कमाता है तो वह इसे पूंजी के रूप में कहीं निवेश करेगा और अपनी अगली पीढ़ी  के लिए होटल से भी बड़ा व्यवसाय-उद्योग शुरू कर सकता है।
बौद्ध काल में पूरे देश में अनेक व्यापारी श्रेष्ठ थे और उनकी तेल बनाने की घानियां (कोल्हू) थी। बैलों को जोतकर यह घानियां घुमाई जाती है और सरसो, मुंगफली या सोयाबीन से तेल निकाला जाता है। तेल निकालकर देश-विदेश के बाजारों में यह तेल बेचा जाता था। ये तेली व्यापारी कितने समृद्ध और अमीर थे, यह एक शिलालेख से समझ सकते है। एक बौद्धकालीन शिलालेख में दर्ज है कि नासिक-खानदेश के अभीर राजा ईश्वरकृष्ण ने बौद्ध भिक्षुओं के इलाज के लिए कुम्हारों के श्रेणी के पास 1000 कार्षापण ( सोने, चांदी, तांबा के सिक्के) और तेली श्रेणी-श्रेष्ठी के पास 500 कार्षापण ‘सावधि जमा’ जमा किए हैं। (संदर्भ : ‘जातिव्यवस्थाक सामंती सेवकत्व’, शरद पाटील, पृष्ठ 31) 
धूले शहर के पास कुसुंबा नामक एक गांव है। गांव में तेली जाति की काफी आबादी है। उससे यह विश्वास करने की गुंजाइश बनती है कि यह गांव बौद्ध काल में तेल उत्पादन का केंद्र रहा होगा। इस गांव में तेली जाति के महादु नागो चौधरी की छोटी-सी तेल मिल (एक घानी) है। यह घानी 1990 तक अच्छी स्थिति में चल रही थी। संभवतः बौद्ध काल में महादु नागो के पूर्वज तेली रहे होंगे। लेकिन जाति-व्यवस्था ने उनके तेल पूंजी उद्योग को नष्ट कर दिया होगा। इसलिए बाद में वह दिन में सिर्फ कुछ टंकी तेल निकालते थे और धुले शहर की सड़कों पर घूम-घूमकर ठेले पर तेल बेचने लगे। यह उनका नित्य का काम था। ठेले की तेल टंकी पर बड़े अक्षरों में लिखा नाम मुझे आज भी याद है– “बेबी घानी का तेल”।
अंग्रेजों ने पुराने धुले शहर के पास नया धुले शहर बसाया और देखिए कि नए धुले शहर का डिज़ाइन बनाते समय अंग्रेजों द्वारा शुरू की गई जातिगत जनगणना का कैसे लाभ उठाया गया। जातिगत जनगणना से अंग्रेजों को तेली जाति से संबंधित आंकड़े मिले होंगे। उन आकड़ों से यह जानकारी मिली होगी कि शहर के आसपास कितने तेली लोग अपना तेल बेचने के लिए धुले सिटी के मार्केट में आते हैं। तो यह जानकारी मिलने के बाद अंग्रेजों ने धुले शहर बसाते समय इन तेली लोगों के रहने की लिए अलग व्यवस्था की। इन तेल उद्यमियों के लिए अंग्रेजों ने धुले शहर में लगभग दो किलोमीटर लंबी गली बनवाई। 
आजादी के बाद तेल पूंजी-उद्योग में बनिया जाति की घुसपैठ हो गई और पूरे तेल गलियारे पर मारवाड़ी-बनिया जाति का कब्जा हो गया। आज भी धुले शहर के लोग इस गली को ‘तेली गली’ के नाम से ही जानते हैं, लेकिन इस लंबी तेली गली में एक भी तेली जाति का व्यवसायी नहीं रहता, बल्कि सभी बनिए रहते हैं। इस तेली गली के एक छोर पर अवशेष के रूप में ‘तेली जाति-पंचायत भवन’ आज भी खड़ा है और यह जाति-संघर्ष की याद दिलाता है। वर्ष 1990 के दशक के दौरान, धुले में वैश्य मारवाड़ियों द्वारा ‘सतीश साल्वंट’ नामक एक तेल कारखाना स्थापित किया गया था। आज धुले शहर तेल उत्पादकों का एक प्रमुख केंद्र के रूप में जाना जाता है। और इन सभी तेल फैक्ट्रियों के मालिक हंसराज अग्रवाल, संजय अग्रवाल, जुगल किशोर गिंदोडिया आदि मारवाड़ी वैश्य-बनिया हैं। इनमें एक भी तेली व्यक्ति नहीं है। तेली जाति के महादु चौधरी की बेबी घानी 1990 से हमेशा के लिए बंद हो गई है। सहकारिता को बढ़ावा देने का दंभ भरने वाली महाराष्ट्र सरकार ने धुले शहर में महाफेड की ‘तेल-बीज सहकारी’ परियोजना शुरू की। इसमें कोई तेली संचालक नहीं था। राजनीतिक पार्टी के मराठा नेताओं ने भ्रष्टाचार करके पूरे प्रोजेक्ट को ही पलीता लगा दिया। इस सरकारी तेल परियोजना को बाद में एक मारवाड़ी ने खरीद लिया।
यदि 1955 में ही कालेलकर आयोग की अनुशंसाओं को लागू कर दिया गया होता, या कम-से-कम पूर्ण मंडल आयोग 1990 में लागू कर दिया गया होता, तो 1991 में निश्चित रूप से जातिगत जनगणना कराना आवश्यक हो गया होता। इस जातिवार जनगणना में कुसुंबा के महादु चौधरी के ‘बेबी घानी तेल’ उद्योग का भी सर्वेक्षण किया गया होता। मंडल आयोग की रिपोर्ट मे पैरा संख्या 13.27 से 13.31 की सिफारिशें ओबीसी के उद्यमियों को वित्तीय सहायता जैसी सभी सहायता उपलब्ध कराने को सरकार को कहती हैं। (संदर्भ : मंडल आयोग रिपोर्ट, पहला खंड, अनुशंसाएं, अध्याय तेरह, पृष्ठ 57-60)  इन सिफारिशों के अनुसार चौधरी के ‘बेबी घानी तेल’ उद्योग को विशेष वित्तीय सहायता, सरकार की ओर से विशेष रियायतें, सरकार की ओर से आधुनिक प्रौद्योगिकी सहायता और सरकारी बुनियादी ढांचा प्रदान किया गया होता, तो एक छोटी-सी ‘बेबी घानी तेल’ एक बडी फैक्ट्री बन जाती।
मंडल आयोग और जातिगत जनगणना की वजह से आज महादू चौधरी के लड़के करोड़ों रुपयों की लागत से बनी हुई फैक्ट्री के मालिक रहते। उनका अनुसरण करते हुए अन्य तेली बंधुओं ने भी तेल उद्योगपति बनने का प्रयास किया होता। इन तेली उद्योगपतियों में से कुछ तेली लोग संसद और विधानसभा मे चुनकर जाते और हो सकता है उनमे से एक इस देश का पहला सच्चा तेली प्रधानमंत्री बन जाता। यह सच्चा तेली प्रधानमंत्री ब्राह्मण वर्ग के लिए ई. डब्ल्यू. एस. आरक्षण का कानून लाने के बजाय स्टालिन की तरह मनुवादी पुजारियों को मंदिरों से हटाने के लिए (पिछड़े एवं अभिवंचित) ओबीसी शूद्र जातियां कानून बनाता।
इस तरह से नाई, कुम्हार, कहार, बढ़ई, माली, लुहार, मोची जैसे शूद्र-अतिशूद्र पेशेवर लोग अगर उद्यमी बन गए तो वह खुद की अपनी फुले, पेरियार, आंबेडकरवादी राजनैतिक पार्टी बनाएंगे और देश की सत्ता हासिल करके अपने को शूद्र बनानेवाली जाति-व्यवस्था को खत्म करने के लिए कानून बनाएंगे। 
ओबीसी के ऐसे पूंजीगत उद्योगों में अन्य विशिष्ट उच्च जातियों की घुसपैठ रोकने के लिए मंडल आयोग की रिपोर्ट ने सरकार को विशेष उपाय करने की सलाह दी है। (संदर्भ : वही) 
दरअसल तेली जाति को पूंजीपति वर्ग, मध्यम वर्ग व श्रमिक वर्ग नामक तीन वर्गों में विभाजित करने से ही तेली जाति नष्ट हो सकती है। तेली जाति को नष्ट करना मतलब तेली लोगों को मारना नहीं,  बल्कि तेली जाति के लोगों को उच्च एवं अपेक्षाकृत अधिक समतावादी उन्नत (वर्ग व्यवस्था)  में लाकर स्थापित करना है। वर्गीय हित संबंध अधिक से अधिक प्रभुत्वशाली होने पर ही जातिगत हित संबंध नष्ट होंगे।
मंडल आयोग इस बात पर जोर देता है कि उत्पादक, कारीगर, व श्रमिक जातियों से ही उद्यमी-वर्ग बनाया जाना चाहिए और इसके लिए  ब्राह्मण, बनिया और जमींदार-शासक जातियों को इस पूंजी उद्योग में घुसपैठ करने की अनुमति कतई नहीं दी जानी चाहिए। यहां हमें मार्क्सवादी दर्शन की याद आती है। कारीगर व उत्पादक वर्ग से ही पूंजीपति वर्ग बनाया जाना चाहिए तभी व्यक्ति स्वतंत्रता की पूंजीवादी लोकतांत्रिक क्रांति यशस्वी हो सकती है।  आर. बी. पाटणकर, अपूर्ण क्रांति, पृष्ठ 49-50) के अनुसार भारतीय पूंजीपति वर्ग में अभी तक कारीगर जातियों, उत्पादक जातियों व सेवाकर्मी जातियों का नाममात्र भी प्रवेश नहीं हुआ है। ये सभी उत्पादक जातियां आज भी गुलामी का जीवन जी रही हैं। भारतीय पूंजीपति वर्ग आज भी उच्च वर्ग के जाति से बन रहा है। संदर्भ : कास्ट एंडिंग बुर्जुआ डेमोक्रेटिक रिवोल्यूशन एंड इट्स सोशलिस्ट कॉन्सिउमेशन, शरद पाटील, पृष्ठ 159) मंडल आयोग सामंतशाही को भी खत्म करने की सिफारिशें करता है। सामंती-जमींदारों की जमीन ओबीसी जाति के भूमिहीन मजदूरों में बांटने की सिफारिश की है। जाति-व्यवस्था का सबसे बड़ा भौतिक आधार जमीन है। जमीन का केंद्रीकरण करके सामंत निर्माण किए गए और इन्हीं सामंतों द्वारा जाति-व्यवस्था का नियंत्रण, नियमन, दमन और शोषण सबसे ज्यादा किया गया। इसलिये मंडल आयोग की सिफारिश के अनुसार अगर सामंतों की जमीन भूमिहीन मजदूरों में बांट दी जाय तो जाति-व्यवस्था का सबसे बड़ा भौतिक आधार खत्म हो जाएगा। (संदर्भ :  मंडल आयोग रिपोर्ट, पहला खंड, अनुशंसाएं, अध्याय 13, पृष्ठ 57-60) लेकिन यह तभी संभव हो सकता है जब दिल्ली में फुले, पेरियार, आंबेडकरवादी राजनेता, राजनैतिक पार्टी सत्ता मे आएगी। ऐसी परिस्थिति में, भारत में जाति का विनाश करनेवाली पूंजीवादी लोकतांत्रिक क्रांति का मार्ग प्रशस्त करने के लिए मंडल आयोग का संपूर्ण कार्यान्वयन सूक्ष्म स्तर से, सटीक ढंग से करने की जरूरत है। इसके लिए आवश्यक आंकड़े और विस्तृत जानकारी केवल जातिगत जनगणना से ही प्राप्त हो सकते हैं। बिहार द्वारा जातिवार सर्वेक्षण के माध्यम से यह कार्य शुरू कर दिया गया है। यदि यह जल्द से जल्द राष्ट्रीय स्तर पर साकार हुआ तब भारत में ‘जाति का विनाश करनेवाली पूंजीवादी लोकशाही क्रांति’ का आगाज होगा और दमनकारी जाति-व्यवस्था से हमेशा के लिए मुक्ति मिल जाएगी। 
स्वतंत्रता-पूर्व बिहार के पिछड़े एवं अभिवंचित वर्गों के संघ ने संगठन की शक्ति का पहला संकेत दिया है। वर्तमान में बिहार सरकार द्वारा जारी जातिगत जनगणना के आंकड़ों के अनुसार बिहार में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े और अतिपिछडे वर्गो की संख्या प्रदेश की कुल आबादी का चौरासी फीसदी हैं।
आंकड़ों के मुताबिक बिहार की कुल आबादी तेरह करोड़ सात लाख पच्चीस हजार तीन सौ दस (13,07,25,310) हैं । जिसमे से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्ग की आबादी लगभग ग्यारह करोड़ के आस पास हैं। बिहार की कुल आबादी में अगर हम एससी, एसटी और ओबीसी की
आबादी की बात करे तो बिहार में अत्यंत पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी की आबादी सबसे अधिक छत्तीस दशमलव शून्य एक फीसदी (36.01%) हैं। आगर संख्या में बात करे तो तेरह करोड़ की आबादी वाले बिहार में ओबीसी की आबादी चार करोड़ सत्तर लाख अस्सी हजार पांच सौ चौदह (4,70,80,514) हैं। अत्यंत पिछड़ा वर्ग के बाद प्रदेश में सबसे अधिक पिछड़ा वर्ग यानी बीसी की आबादी हैं। जो सताइस दशमलव एक दो (27.12%) फीसदी के साथ राज्य में दूसरी सबसे बड़ी समुदाय हैं। अगर संख्या में बात करे तो बीसी (पिछड़ा वर्ग) की आबादी तीन करोड़ चौवन लाख तिरसठ हजार नौ सौ छत्तीस (3,54,63,936) हैं। इसके बाद सबसे बड़ी समुदाय बिहार में अनुसूचित जाति की हैं। जो प्रदेश में उन्नीस (19%) फीसदी के साथ तीसरे स्थान पर हैं। अनुसूचित जाति की आबादी की बात करे तो प्रदेश में एससी की आबादी दो करोड़ छप्पन लाख नवासी हजार आठ सौ बीस (2,56,89,820) हैं। जबकि अनुसूचित जनजाति की बात करे तो प्रदेश की कुल आबादी में वे एक दशमलव छह आठ फीसदी हैं। यानी संख्या में वे लगभग बाइस लाख के आस पास होते हैं। अगर हम बिहार के एससी, एसटी और ओबीसी की आबादी को जोड़ दे तो यह संख्या ग्यारह करोड़ से अधिक हो जाती हैं। यानी बिहार की कुल तेरह करोड़ की आबादी में ग्यारह करोड़ बिहार के मूलनिवासियों की आबादी हैं। जबकि दो करोड़ के आस पास जनरल कैटेगरी के लोग हैं। जिनमे ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार और कायस्थ जैसी जातियां शामिल हैं।

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