शंखनाद ने डुकारेल की 223 वीं अवसान दिवस मनाया ..!!
बिहारशरीफ,नालंदा 15 दिसम्बर 2023 : 14 दिसम्बर दिन गुरुवार की देर शाम स्थानीय बिहारशरीफ के भैसासुर मोहल्ले में शंखनाद साहित्यिक मंडली के तत्वावधान में शंखनाद कार्यलय स्थित डुकारेल सभागार में क्रांतिकारी समाज सुधारक, न्याय के एक आदर्श एवं पूर्णिया जिले के पहले ब्रिटिश कलेक्टर जेरार्ड गुस्तावस डुकारेल की 223 वीं पुण्यतिथि मनाई गई। कार्यक्रम की अध्यक्षता शंखनाद के अध्यक्ष साहित्यकार व प्रखर इतिहासज्ञ डॉ. लक्ष्मीकांत सिंह तथा संचालन शंखनाद के मीडिया प्रभारी नवनीत कृष्ण ने किया।
कार्यक्रम की शुरुआत नालंदा जिले के नामचीन छंदकार सुभाषचंद्र पासवान, अध्यक्ष डॉ. लक्ष्मीकांत सिंह, महासचिव साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, समाजसेवी सरदार वीर सिंह ने डुकारेल के चित्र पर माल्यार्पण व पुष्पांजली अर्पित कर की।
मौके पर कार्यक्रम के संयोजक शंखनाद के महासचिव साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा ने पूर्णिया के प्रथम ब्रिटिश कलेक्टर जेरार्ड गुस्तावस डुकारेल के जीवन और भारत में उनके द्वारा किये गये क्रांतिकारी प्रशासनिक सामाजिक सुधारों की विस्तार से चर्चा की। उन्होंने कहा- पूर्णिया की चर्चा चर्चित पुस्तक आइने अकबरी में भी है। आज से 253 साल पहले डुकारेल 14 फरवरी, 1770 को पूर्णिया जिले के पहले कलेक्टर (तत्कालीन पर्यवेक्षक) के रूप में कार्यभार संभाला था, ने सती की कुप्रथा के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व करते हुए एक उदाहरण स्थापित किया था, जो भारतीय इतिहास में किसी अन्य ज्ञात नेता ने नहीं किया था। डुकारेल ने यहां की कमान संभालते ही कई सामाजिक और आर्थिक सुधार कार्य किए। मनमाने दंड संहिता को समाप्त किया और किसानों को परती जमीन जोतने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने न्याय, राजस्व व प्रशासनिक व्यवस्था में कई मानवोचित सुधार किए।
डुकारेल का मानवीय कार्य आज के समाज में अनुकरणीय है। धार्मिक अंधविश्वासों और सामाजिक रूढ़िवाद के दुष्चक्र में फंसे लोगों को निकालने का काम किया। उस समय समाज में महिलाओं की स्थिति अति दयनीय और चिंताजनक थी। जन्म के समय ही कन्या शिशुओं की हत्या प्रथा प्रचलित थी। बहुविवाह की प्रथा देश के कई हिस्सों में प्रचलित थी। विधवा पुनर्विवाह की अनुमति नहीं थी और सती प्रथा बड़े पैमाने पर प्रचलित थी। अमानवीय प्रथाओं, अंधविश्वासों आदि के खिलाफ धार्मिक और सामाजिक सुधार के लिये डुकारेल जाने जाते हैं।
मौके पर अध्यक्षता करते हुए शंखनाद के अध्यक्ष प्रखर इतिहासज्ञ डॉ.लक्ष्मीकांत सिंह ने कहा कि गेरार्ड गुस्तावस डुकारेल 1770-1772 तक पूर्णिया के जिला कलेक्टर थे। उनका जन्म 15 अप्रैल 1745 को इंग्लैंड के डिवॉनशायर में हुआ था। चार भाई बहनों में यह सबसे छोटा थे। जब यह ढ़ाई महीने का थे तब उसके पिता की मृत्यु हो गई थी। 1765 में भारत आये और 1770 में पूर्णिया का कलक्टर बने। 1772 में उन्हें वापिस कलकत्ता बुला लिया गया। उन्होंने एक विधवा महिला से शादी की थी जिसका नाम चंदा उर्फ ऐलिजाबेथ सर्फुनिशा खान था। उसके चार बच्चे भारत में पैदा हुए थे और दो इंग्लैंड में। 1782 में डुकारेल अपनी पत्नी बच्चों के साथ अपने देश इंग्लैंड वापिस चले गए। उसकी मृत्यु 14 दिसम्बर 1800 ई. में हुई थी। उसका एक भाई जेम्स कोल्टी डुकारेल भारत में ब्रिटिश रॉयल आर्मी में मेजर था, जिसकी मृत्यु कलकत्ता में 1771 में हो गई थी। डुकारेल सती प्रथा का विरोध करने वाले दूसरे अँग्रेज अधिकारी थे। इनके पूर्व जॉब चार्नॉक नामक एक ब्रिटिश अधिकारी पटना में 1660 ई.में एक राजपूत कन्या को चिता से उठा कर शादी किया था। जॉब चार्नॉक को भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का संस्थापक माना जाता है। उसका काफी विरोध हुआ था, लेकिन उसने विधिवत शादी कर उस लड़की का नाम मारिया रखा। वह मात्र पंद्रह वर्ष की थी जब उसे जलाया जा रहा था। डुकारेल ने जिस लड़की को बचाया था उसकी उम्र भी लगभग चौदह साल थी। भारत के सती प्रथा के कलंक का प्रखर विरोध ब्रिटिश लोगों ने किया और सामाजिक न्याय व्यवस्था को स्थापित किया। इतना ही नहीं डुकारेल ने अकाल से मर रहे लोगों को जमींदारों से अनाज दान मांग कर सहायता की। सबसे पहले डुकारेल ने ईस्ट इंडिया कंपनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर के पास किसानों को जमीन का मालिकाना हक देने तथा सब्जियों की खेती को बढ़ावा देने का प्रस्ताव भेजा था,ताकि अकाल से उत्पन्न भूखमरी पर काबू पाया जाए। उस रिपोर्ट को पढ़ने के बाद बंगाल के तत्कालीन गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स ने 1772-85 ई. में भारत में आलू की खेती की सरकारी स्तर पर विधिवत शुरू करायी थी। अँग्रेजों से पहले यहाँ आलू की खेती नही की जाती थी। उन्होंने कहा- डुकारेल पूर्णिया के आम आदमी के लिए महान नायक रहे थे और यह पूर्णिया डुकारेल के जीवन का अभिन्न अंग था। इसका जीता जागता उदाहरण 'धोकरेल या डोकरेल' नाम का गांव है। यह गांव पूर्णिया जिला अंतर्गत जलालगढ़ प्रखंड में मौजूद है जो आज भी डुकारेल के व्यक्तित्व की विरासत को जीवित रखे हुए है। यह डुकारेल के उत्कृष्ट व्यक्तित्व का जीवंत प्रमाण है। आम लोगों के दिलो-दिमाग में कोई ऐसे ही नहीं बस जाता। अवश्य ही उसमें कोई विशेष बात रही होगी। पूर्णिया में डुकारेल का कार्यकाल मात्र दो वर्ष का था। डुकारेल वास्तव में पूर्णिया के आम लोगों के एक प्रतिनिधि 'नायक' थे।
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि नामचीन छंदकार सुभाषचंद्र पासवान ने कहा कि हिंदुस्तान को भारत बनाने का श्रेय अँग्रेज़ों को जाता है। भारत का अर्थ ज्ञान की भूमि या प्रकाशमान होता है। अँग्रेजों ने बुद्ध और उनकी विरासतों को खोजा और दुनिया के सामने रखकर बताया कि दुनिया में बुद्ध ही लाईट ऑफ एशिया हैं और जम्बूद्वीप का वह क्षेत्र भारत भूमि कहलाता हैं। अँग्रेज़ों का यहाँ आना भारत के बहुजनों के लिए वरदान साबित हुआ। उन्होंने ही उन्हें समानता का अधिकारी और शिक्षित होने का गौरव प्रदान किया। अँग्रेज़ बहुत जल्दी चले गए वर्ना इस देश से जाति और सम्प्रदाय का खात्मा हो जाता, जो इस देश की तरक्की के लिए जरूरी था। डुकारेल एक अँग्रेज़ था लेकिन उसने एक विधवा से शादी कर नया जीवन दिया। उसने न उसकी जाति पूछी और न धर्म जानने की कोशिश की। उसने सिर्फ एक स्त्री की कारुणिक चीत्कार को सुनी और उसके साथ खड़ा हुआ। जबकि भारतीय अंधविश्वासी समाज उसकी मौत मुकर्रर कर चुका था। यही मानवीय संवेदना उनके महामानव और देवता होने का प्रतीक है। भारत के लोग आज भी उनके सामने बौने हैं।
इस अवसर पर समाजसेवी धीरज कुमार, शिक्षाशास्त्री जाहिद हुसैन, शिक्षाविद राज हंस कुमार, लेखिका प्रिया रत्नम, शोधार्थी शुभम कुमार शर्मा, संजय कुमार शर्मा, अरविंद कुमार गुप्ता, सुरेश प्रसाद सहित कई गणमान्य लोग मौजूद थे
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