उपेक्षित स्वतंत्रता सेनानी क्रांतिवीर राजे उमाजी नाईक के 192 वीं वलिदान दिवस पर विशेष :..!!
लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव-शंखनाद साहित्यिक मंडली
भारत का इतिहास स्याही से नहीं बल्कि वीरों के शोणित रक्त और तलवारों से लिखा गया है। इतिहास इस बात का साक्षी है की हमने कभी भी आक्रान्ताओं के सामने समर्पण नहीं किया। स्वर्ण सुंदरी के लोभी विदेशी जब जब भारत की और बढे हमारे वीरों ने उनका स्वागत लपलपाती तलवारों से किया।
हममें से कई लोगों ने सुना या पढ़ा होगा कि 1857 की क्रांति अंग्रेजों के अत्याचारी शासन के खिलाफ भारतीयों का पहला विद्रोह था। परन्तु यह सच नहीं है। चाटुकार इतिहासकारों की अक्षम्य साज़िश के कारण गुमनाम हो चुके महानतम क्रांतिकारी, जिन्होंने सन 1857 ई. से बहुत पहले ही फूँक दिया था ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति संग्राम का बिगुल। देश में बढ़ते असंतोष की पहली चिंगारी आद्य क्रांतिवीर उमाजी नाईक ने भड़काई थी। वह छोटी सी ज्वाला अगले 14 वर्षों के लिए भीषण आग में जलने वाली थी।
क्रांतिवीर राजे उमाजी नाईक का जन्म और पारिवारिक जीवन
क्रांतिवीर राजे उमाजी नाईक का जन्म पुणे जिले के भिवंडी गांव में 07 सितंबर 1791 में हुआ। उमाजी का नाम उमाजी दादाजी खोमणे था और उनका बचपन पुरंदर किले के परिसर में बीता। उमाजी को उनकी माताजी ने तलवार चलाना, घुड़सवारी, भाला चलाना, पटा आदि दांवपेच सिखाये। उमाजी के परिवार पर पुरंदर किले की सरंक्षण करने की जिम्मेदारी थी। इसलिए उमाजी की माताजी शिवाजी महाराज की कहानियाँ बताती थी। शिवाजी महाराज की कहानियाँ सुनके उनके मन में क्रांति की भावना जागृत हुई। उमाजी बहुत ही होनहार बालक थे। उसने परंपरागत रामोशी हेर कला को बहुत ही जल्द सीख लिया। अंग्रेज सरकार ने अपनी सत्ता स्थापित करना चालू किया। धीरे-धीरे अंग्रेज सरकार ने मराठों का राज्य अपने कब्जे में ले लिया और पुणे शहर को भी अपने अधीन कर लिया। सन 1803 में अंग्रेज सरकार ने दूसरे बाजीराव को अपने नियमों से चलने को कहा। बाजीराव दिृतीय अंग्रेज सरकार के नियमों से काम करने लगा। सबसे पहले सभी किले की तरह पुरंदर किले के सरंक्षण की जिम्मेदारी रामोशी समाज से निकालकर अंग्रेज सरकार ने अपने पहचान के लोगों को दी। इस कारण रामोशी समाज पर भूखे रहने की समस्या पैदा हुई। अंग्रेज सरकार का अत्याचार बढ़ने लगा, अंग्रेज सरकार का अत्याचार उमाजी अपने आँखों से देख रहे थे।
उमाजी नाईक द्वारा किये गये समाज सेवा
उमाजी नाईक के आदर्श शिवाजी महाराज थे। उन्होंने विठूजी नाईक, कृष्ण नाईक, खुशाबा रामोशी और बाबु सोलसकर आदि क्रान्तिकारियों के साथ जेजुरी के खंडोबाराव को भंडारा रजवाड़ा देकर अंग्रेज सरकार के विरुद्ध विद्रोह की घोषणा की। उमाजी नाईक ने अंग्रेज, साहूकार और बड़े वतनदारों को लूटकर गरीब जनता की सेवा करने लगे। अंग्रेज सरकार ने 1818 में शनिवारवाडे (पूना) पर यूनियन जैक वाला झंडा फहराया। कम्पनी के अत्याचारों को देखते हुए उमाजी नाईक पुरंदर में सैनिकों को इकट्ठा करके विद्रोह की तैयारी करने लगे।
उमाजी नाईक का देशभक्ति
अंग्रेजों को भगाने के लिए उमाजी नाईक प्रयत्न करने लगे। अंग्रेज सरकार उमाजी से त्रस्त होने लगी इसलिए अंग्रेज सरकार ने 1818 में उमाजी को गिरफ्तार कर लिया और एक साल के लिए जेल में डाल दिया। जेल में उन्होंने पढ़ना लिखना सीखा। वे जेल से छूटने के बाद अंग्रेजों के खिलाफ अपने क्रांतिकारियों के साथ अंग्रेजों को भगाने की योजना बनाने लगे, देश के लिए लड़ने लगे। जनता भी उनका साथ देती थी। उमाजी को गिरफ्तार करने के लिए आये हुए अंग्रेज अधिकारी मोकीन टॉस ने पुरंदर के मामलेदार को फर्मान निकालने को कहा। मामलेदार अंग्रेज सैनिकों के साथ उमाजी को गिरफ्तार करने के लिए गए लेकिन दोनों में बहुत ही जोरदार युद्ध हुआ, उमाजी ने 5 अंग्रेज सैनिकों की गर्दन काटकर मामलेदार को भेजी। अंग्रेज सरकार के मन में दहशत पैदा हुई। उमाजी के सैनिक पर्वतों में रहते थे। उनके पास 5000 पांच हजार सैनिक थे। सन 1824 को बाबुट्री का खजाना लूट के मंदिरों की देखरख के लिए जनता में बांट दिया था। 30 नवंबर 1827 को अंग्रेजों को बताया कि, हजारों विद्रोह होते रहेंगे सतपुड़ा से लेकर सह्याद्रि तक, अंग्रेजों आपको भारत से एक दिन भागना पड़ेगा। 21 दिसंबर 1830 को अंग्रेज अधिकारी बाइंड और उनके सैनिकों को मांढरदेवी किले से बन्दुक चलाकर अंग्रेज सैनिक को भागना पड़ा। 16 फरवरी 1831 को अंग्रेज सरकार के लिए उमाजी ने एक ऐलाननामा निकाला उसमे लिखा था कि, लोगों को अंग्रेज सरकार की नौकरिया छोड़ देनी चाहिए, देशवासियों ने एकसाथ इकट्ठा होकर अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करना चाहिए। अंग्रेजों का खजाना लूटना चाहिए, लगान नहीं देना चाहिए, ब्रिटिश की सत्ता नष्ट होने वाली है, उनकी मदद नहीं करनी चाहिए। उमाजी छत्रपति शिवाजी महाराज की तरह कार्य करने लगे, लोग उमाजी को राजा कहने लगे। उमाजी का डर अंग्रेज सरकार को लगने लगा। अंग्रेज सरकार उमाजी को पकड़ने के लिए साजिश रचने लगी।
अंग्रेज सरकार की साजिश और उमाजी नाईक का बलिदान
छत्रपति शिवाजी को अपना आदर्श मानने वाले योद्धा उमाजी नाईक ने 24 फरवरी सन 1824 ई. को अंग्रेजों का भांबुडा के किले में छिपा कर रखा गया खजाना अपने सशस्त्र साथियों की सहायता से लूट लिया। उसी समय अंग्रजों ने उमा नाईक को पकडने का आदेश दिया, उमा नाईक को पकडवाने पर पुरस्कार भी घोषित किया गया। उमाजी नाईक का पता बताने के लिए ब्रिटिश सरकार ने उमाजी नाईक को गिरफ्तार करने के लिए 10,000 /- रु की राशि और 400 बिघा भूमि का इनाम रखा। जमीन साहूकार, वतनदार आदि को प्रलोभन दिखाकर उमाजी के सैनिकों को गुमराह किया गया। उमाजी ने लोगों को संगठित कर छापामार पद्धति से युद्ध करते हुए अंग्रेजों के सामने बहुत बडी चुनौती खडी कर दी थी, ब्रिटिश फ़ौजें ने युद्ध में उनसे कई बार मात खायी। 15 दिसंबर सन 1831 भारतीय क्रांति इतिहास का काला दिन बना जब चंद पैसों के लालच में अपनों की ही ग़द्दारी के चलते एक गांव में अंग्रेज उन्हें पकड़ने में कामयाब रहे, उन पर न्यायालय में अपनी ही मिट्टी और वतन की आज़ादी चाहने को अपराध बता कर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया जिसमें उस महावीर को मृत्युदंड दिया गया। न्यायाधीश जेम्स टेलर ने उमाजी नाईक को फांसी की सजा सुनाई थी। 3 फरवरी सन 1832 ई. को पुणे के खडकमाल कारागार में उमाजी नाईक को फांसी दे दी गई। अंग्रेजों ने उमाजी नाईक के शव को पेड़ से लटकाकर रख दिया गया था, जिससे की क्रांतिकारियों के मन में दहशत पैदा हो और कंपनी व सरकार के विरुद्ध कोई भी क्रांतिकारी विद्रोह ना कर सके। उमाजी का आदर्श छत्रपति शिवाजी महाराज था। उसे फांसी नहीं दी जाती तो, दूसरा शिवाजी पैदा हो जाता, यह सत्य है। अगर साजिश करके अंग्रेजों ने उमाजी को गिरफ्तार नहीं किया होता तो शायद भारत बहुत पहले ही स्वतंत्र हो जाता। केवल 41 वर्ष की अवस्था में शिवाजी महाराज का पथगामी वो महायोद्धा देश की आज़ादी को एक नयी दिशा, सोच व् साधन दे गया। राष्ट्रधर्म और जुझारू संस्कृति की दिव्य आभा इतिहास के इस घटनाक्रम को आज भी प्रकाशमान किये हुए है।
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