भारत के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी तिलका माँझी के 274 वीं जयंती पर विशेष..!!

लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली
1857 की महान क्रांति से भी पहले देश के विभिन्न स्थलों पर कई छोटी-बड़ी क्रांतिकारी घटनाएं हुई थीं, जिसने ब्रिटिश ईसाईयों की सत्ता की नींव हिला दी थी। इस दौरान कई महानायक हुए जिन्होंने भारत की स्वाधीनता के लिए अपने प्राणों की आहुति दी और अंतिम श्वास तक राष्ट्र की सुरक्षा के लिए संघर्ष किया। ऐसे ही एक महान क्रांतिकारी हुए तिलका मांझी, जिन्हें कई इतिहासकार भारतीय स्वाधीनता संग्राम के पहले बलिदानी के रूप में याद करते हैं। भारत के वीर सपूत तिलका मांझी भारत में अंग्रेजों की सत्ता को चुनौती देने वाले पहाड़िया समुदाय के जनजाति कर्मवीर थे।    

तिलका मांझी राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के प्रेरणाश्रोत

भारत में ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देने वाले पहले लोकप्रिय आदि विद्रोही तिलका माँझी उर्फ जबरा पहाड़िया पहाड़िया समुदाय के वीर आदिवासी थे। ये भारत के पुरातन विद्रोही हैं। दुनिया का पहला पुरातन विद्रोही रोम के पूर्वज आदिवासी लड़ाका स्पार्टाकस को माना जाता है। भारत के औपनिवेशिक युद्धों के इतिहास में जबकि पहला पुरातन विद्रोही होने का श्रेय पहाड़िया आदिम आदिवासी समुदाय के लड़ाकों को माना जाता है, जिन्होंने राजमहल, झारखंड की पहाड़ियों पर ब्रितानी हुकूमत से लोहा लिया। इन पहाड़िया लड़ाकों में सबसे लोकप्रिय पुरातन विद्रोही जबरा या जौराह पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी हैं। जबरा पहाड़िया (तिलका मांझी) भारत में ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देने वाले पहाड़िया समुदाय के वीर आदिवासी थे। उनका जन्म 11 फ़रवरी 1750 ई. में बिहार के भागलपुर जिले के सुल्तानगंज प्रखंड में स्थित तिलकपुर ग्राम में एक संथाल परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम ‘सुंदरा मुर्मू’ था। बचपन से ही जंगली जीवन के अभ्यस्त हो जाने के कारण वे निडर और वीर बन गये थे। उनके जन्म के समय उनका नाम रखा गया था 'जबरा पहाड़िया', हालांकि इतिहासकारों में अभी भी इस बात को लेकर मतभेद हैं कि वे संथाल थे या पहाड़िया। पहाड़िया वनवासी बोली में तिलका का अर्थ होता है ऐसा व्यक्ति जो गुस्सैल हो एवं उसकी आँखें लाल हो। चूँकि गांव के प्रधान को उनके समुदाय में 'मांझी' कहा जाता था, इसीलिए कालांतर में अपने गांव के प्रधान बनने के बाद उनका नाम तिलका मांझी पड़ा।
किशोर जीवन से ही अपने परिवार तथा जाति पर उन्होंने अंग्रेज़ी सत्ता का अत्याचार देखा था। गरीब आदिवासियों की भूमि, कृषि और जंगली वृक्षों पर अंग्रेज़ी शासकों ने कब्जा कर रखा था। आदिवासियों और पहाड़ी सरदारों की लड़ाई अक्सर अंग्रेज़ी सत्ता से होती रहती थी पर पहाड़ी जमींदार वर्ग अंग्रेज़ी सत्ता का खुलकर साथ देता था। यह सब देखकर तिलका मांझी के मन में अंग्रेजों के प्रति रोष पैदा हुआ और उन्होंने उनका विरोध करने का निर्णय लिया।

आजादी के लिये तिलका ने भागलपुर के कलेक्टर को मार डाला

साल 1771 से 1784 तक तिलका मॉझी ने अंग्रेजों के हर उस प्रयास को विफल किया जिसमें अंग्रेज किसी न किसी तरह बस भागलपुर और राजमहल पर पुर्णरुपेण कब्जा चाहते थे और इसी चाहत में एक तरफ अंग्रेजों के जुल्मोसितम बढ़ते गये तो दुसरे तरफ तिलका मॉझी की अंग्रेजी सेनाओं द्वारा की जा रही बर्बरता के खिलाफ लड़ाई लड़ीं। सन 1784 में अंग्रेजो के चंगुल से भागलपुर को आजाद कराने के लिये तिलका मॉझी ने भागलपुर पर हमला कर दिया और इलाके में पाये जाने वाले ताड़ के पेड़ पर चढ़कर घोड़े पर सवार भागलपुर के अंग्रेज कलेक्टर को मार गिराया था। अब तक के किसी भारतीय द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ इस तरह के सबसे बड़े दुस्साहस से सन्न पड़ी ब्रिटिश हुकुमत ने तिलकामॉझी को जिंदा या मुर्दा किसी भी हालत में लाने का फरमान सुनाया। वीर योद्धा तिलका मांझी को एक दो नही बल्कि चार-चार घोड़े से बॉधकर पहाड़ियों से घसीटकर भागलपुर शहर के बीचोबीच चौराहे पर लाकर एक बरगद के पेड़ से लटका फॉसी दे दी गयी। आज वह चौक तिलका मॉझी चौक कहलाता है और उसी बरगद के पेड़ के पास क्रातिकारी शहीद तिलका मांझी की आदमकद प्रतिमा लगी है लेकिन हम याद भी उन्हे सिर्फ या तो उनके पुण्य तिथि को या जन्म दिन के हि दिन करते हैं। मेरे लिये खुशी और गर्व की बात है कि मैं वीर क्रांतिकारी तिलका मांझी की मिट्टी बिहार में पैदा हुआ और उन्हे अपना प्रेरणास्रोत मानते हुये कभी भी अन्याय या गलत के सामने अपने सर को झुकने नहीं दिया।

 विश्वासघात का शिकार हुए थे तिलका मांझी

एक रात तिलका मांझी और उनके क्रांतिकारी साथी, जब एक उत्सव में नाच-गाने की उमंग में खोए थे, तभी अचानक एक गद्दार सरदार जाउदाह ने उन पर आक्रमण कर दिया। अनेकों देशभक्त शहीद हुए और कुछ बंदी बनाए गए। तिलका मांझी ने वहां से भागकर सुल्तानगंज के पर्वतीय अंचल में शरण ली। तिलका मांझी एवं उनकी सेना को अब पर्वतीय इलाकों में छिप-छिपकर संघर्ष करना कठिन जान पड़ा और उन्होंने छापामार पद्धति अपनाई। आयरकूट के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना का तिलका की गुरिल्ला सेना पर जबरदस्त हमला हुआ जिसमें कई लड़ाके मारे गए और मांझी को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें चार घोड़ों से बांधकर घसीटते हुए भागलपुर लाया गया, पर मीलों घसीटे जाने के बावजूद वह पहाड़िया लड़ाका जीवित था। खून में डूबी उसकी देह तब भी गुस्सैल थी और उसकी लाल-लाल आंखें ब्रितानी राज को डरा रही थी। भयाक्रांत अंग्रेजों ने तब भागलपुर के चौराहे पर स्थित एक विशाल वटवृक्ष पर सरेआम लटका कर उनकी जान ले ली। 13 जनवरी 1785 को हजारों की भीड़ के सामने तिलका मांझी हंसते-हंसते फांसी पर झूल गए। बाद में आजादी के हजारों लड़ाकों ने मांझी का अनुसरण किया और फांसी पर चढ़ते हुए जो गीत गाए  ‘हांसी-हांसी चढ़बो फांसी…! वह आज भी हमें इस आदिविद्रोही की याद दिलाते हैं। तिलका मांझी ऐसे प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने भारत को ग़ुलामी से मुक्त कराने के लिए अंग्रेज़ों के विरुद्ध सबसे पहले आवाज़ उठाई थी और उनकी वही आवाज़ 90 वर्ष बाद 1857 के महाविद्रोह में पुनः फूट पड़ी थी।  
तिलका भारत के उस राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन के प्रेरणाश्रोत बन गए, जिसने वह हासिल कर दिखाया जिसका सपना तिलका ने देखा था। तिलका अपने समकालीन लोगों से बहुत आगे थे। अपनी निःस्वार्थ देशभक्ति, दुर्जेय साहस और दृढ़ निश्चय द्वारा तिलका ने भारत के स्वतंत्रता इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया। बिहार को अपने इस सपूत पर गर्व है, पूरे भारत को इस देशभक्त पर अभिमान है।

तिलका मांझी के इतिहास को लोगों ने भुला दिया

तिलका मांझी इतिहास की किताबों से भले ही ग़ुम हैं लेकिन आदिवासी समाज में आज भी क़ायम हैं। आदिवासी समुदाय में उन पर कहानियां कही जाती हैं, संथाल उन पर गीत गाते हैं। 1831 का सिंगभूम विद्रोह, 1855 का संथाल विद्रोह सब तिलका की जलाई मशाल का ही असर है। 1991 में बिहार सरकार ने भागलपुर यूनिवर्सिटी का नाम बदलकर तिलका मांझी यूनिवर्सिटी रखा और उन्हें उचित सम्मान दिया। इसके साथ ही जहां उन्हें फांसी हुई थी उस स्थान पर एक स्मारक बनाया गया। आज प्रेरणा पुंज वीर क्रांतिकारी तिलका मांझी के जन्म दिवस पर भावभीनी श्रद्धांजलि इस आशा के साथ कि हमें हमेशा अपनी तरह सही रास्ते पर चलायमान रखें।
आज भी देश की एक बड़ी आबादी तिलका और उसके योगदान से परिचित नहीं है। अधिकांश पाठ्यक्रमों में इनका उल्लेख भी नहीं मिलता। तिलका की उपेक्षा के पीछे सबसे बड़ा कारण यह माना जा सकता है कि उनका विद्रोह अंग्रेज़ों के साथ ही साथ उनके साथ मिलकर आदिवासियों के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करने में जुटे हुए देसी महाजनों और जमींदारों के विरुद्ध भी था। ऐसे में सत्ता पर काबिज दोनो ही वर्गों ने तिलका के बलिदान को पुस्तकों में नहीं आने दिया।

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