देशरत्न डॉ राजेन्द्र प्रसाद के 61वें निर्वाण दिवस पर विशेष ...!!

लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली
 
देश आज 27 फरवरी को प्रथम निर्वाचित राष्ट्रपति व भारत रत्न सम्मानित डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को उनकी पुण्यतिथि पर याद कर रहा है। वर्ष 1963 में आज ही के दिन उन्होंने अपनी देह त्यागी थी। जीवन के आखिरी दिनों में वे बिहार की राजधानी पटना के नज़दीक सदाकत आश्रम में रहते थे। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सांस और दमा की तकलीफ से बहुत परेशान रहा करते थे। 
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ख्यातिप्राप्त वकील थे। वर्ष 1917 में चंपारण आंदोलन के साथ ही महात्मा गांधी के संपर्क में आए और उनका जीवन देश को समर्पित हो गया। अपने घर-परिवार का काम छोडक़र वे महात्मा गांधी और कांग्रेस पार्टी की सेवा में ही लग गए थे।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद एक लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार भी थे। राजेन्द्र बाबु छात्रों के लिए खासतौर से प्रेरणा स्रोत रहे हैं, क्योंकि वे जीवन में कभी द्वितीय स्थान पर नहीं रहे और अपने जीवन में सरल व निःस्वार्थ सेवा का ज्वलन्त उदाहरण प्रस्तुत किया है। राष्ट्रपति बनने पर उन्होने 'राष्ट्रपति भवन' से रेशमी पर्दे आदि हटवा कर नालंदा के बने मशहूर खादी के बने चादर, पर्दे आदि लगवाए थे जो उनकी सादगी-प्रियता का प्रतीक है। वह विधेयकों पर आँख बंद करके हस्ताक्षर नहीं करते थे, बल्कि अपने कानूनी ज्ञान का उपयोग करते हुये खामियों को इंगित करके विधेयक को वांछित संशोधनों हेतु वापस कर देते थे और सुधार हो जाने के बाद ही उसे पास करते थे। उनके लिए जनता का हित सर्वोप्परि था। आज-कल संसद और विधान सभाओं मे आए दिन जो गतिरोध देखने को मिलते हैं वे डॉ० राजेन्द्र बाबू की विचार-धारा के परित्याग का ही परिणाम हैं। आज देश-हित का तकाजा है कि फिर से राजेन्द्र बाबू की नीतियों को अपनाया जाए और देश को अनेकों संकट से बचाया जाये।

डॉ. प्रसाद का जन्म और पारिवारिक जीवन

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति एवं महान भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का जन्म 3 दिसंबर 1884 को जीरादेई/ बिहार में हुआ था। उनके पिता महादेव सहाय तथा माता कमलेश्वरी देवी थीं। उनके पिता संस्कृत एवं फारसी के विद्वान थे और माता धर्मपरायण महिला थीं। उनकी प्रारंभिक शिक्षा छपरा के जिला स्कूल से हुई थीं। बचपन में राजेन्द्र बाबू जल्दी सो जाते और सुबह जल्दी उठकर अपनी मां को भी जगा दिया करते थे, अतः उनकी माता उन्हें रोजाना भजन-कीर्तन, प्रभाती सुनाती थीं। इतना ही नहीं, उनकी माता अपने लाड़ले पुत्र को महाभारत-रामायण की कहानियां भी सुनाती थीं और राजेन्द्र बाबू बड़ी तन्मयता से उन्हें सुनते थे। राजेन्द्र बाबू का विवाह बाल्यकाल में लगभग 13 वर्ष की उम्र में राजवंशीदेवी से हो गया था। उनका वैवाहिक जीवन सुखी रहा और उनके अध्ययन तथा अन्य कार्यों में उस वजह से कभी कोई रुकावट नहीं आई। वे अत्यंत सौम्य और गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे। सभी वर्ग के व्यक्ति उन्हें सम्मान देते थे। वे सभी से प्रसन्नचित्त होकर निर्मल भावना से मिलते थे।

डॉ. राजेंद्र प्रसाद का शिक्षा दीक्षा 

डॉ. राजेंद्र ने सिर्फ 18 साल की उम्र में कोलकाता यूनिवर्सिटी की प्रवेश परीक्षा, प्रथम स्थान से पास की थी। साल 1915 में उन्होंने कानून में मास्टर डिग्री हासिल की, जिसके लिए उन्हें स्वर्ण पदक से सम्मानित भी किया गया। कानून की पढ़ाई करने के बाद वे वकील भी बनें। उन्होंने लॉ करने से पहले कानून का ज्ञान भी ले लिया था। वे बहुभाषी भी थे। हिंदी के अलावा अंग्रेजी, उर्दू, बंगाली एवं फारसी भाषा में भी उनकी अच्छ-खासी कमांड थी। 

डॉ. राजेंद्र प्रसाद का स्वतंत्रता आंदोलन में भूमिका

वर्ष 1917 में महात्मा गांधी से नील की खेती से जुड़े मुद्दे को लेकर डॉ. राजेंद्र प्रसाद की मुलाकात हुई थी। इस दौरान महात्मा गांधी उनसे इतने प्रभावित हुए कि चंपारण आंदोलन के दौरान उनके बीच संबंध काफी मजबूत हो गए। शिक्षा में अपनी वकालत की पढ़ाई पूरी करने बाद डॉ. प्रसाद, देश के आजादी के आंदोलन से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ गए। वो बापू के विचारों से बहुत प्रभावित थे, जिसके चलते साल 1931 के “नमक सत्याग्रह आंदोलन” और 1942 में “भारत छोड़ो आंदोलन” में उन्होंने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। वर्ष 1934 में उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में अध्यक्ष के तौर पर चुना गया। साथ ही नेताजी सुभाषचंद्र बोस के अध्यक्ष पद से इस्तीफे के बाद डॉ. प्रसाद को यह पद फिर से संभालना पड़ा।

डॉ. राजेंद्र प्रसाद सादगी की मिसाल थे 
 
सादगी की मिसाल डॉ. राजेंद्र प्रसाद का व्यक्तित्व हर किसी को हमेशा से प्रभावित करता रहा। डॉ. प्रसाद ने कई मिसालें देश के सामने रखी थीं। उन्हें राष्ट्रपति के रूप में जितना वेतन मिलता था, उसका आधा वो राष्ट्रीय कोष में दान कर देते थे।  भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में प्रमुख योगदान देने वाले डॉ राजेंद्र प्रसाद गांधी के विचारों से भी बहुत प्रभावित थे। इसके अलावा उन्होंने भारत के संविधान निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
डॉ. राजेंद्र प्रसाद की सादगी ने हर किसी के दिल को छुआ है। राष्ट्रपति भवन में जाने के बाद भी उन्होंने वहां हमेशा सादगी को सर्वोपरी रखा। वह पहले राष्ट्रपति थे, जो जमीन पर आसन बिछाकर भोजन करते थे। उन्होंने राष्ट्रपति भवन में अंग्रेजी तौर-तरीकों को अपनाने से इनकार कर दिया था।
आजादी में आने से पहले राजेंद्र प्रसाद बिहार के शीर्ष वकीलों में थे। पटना में बड़ा घर था। नौकर चाकर थे, उस जमाने में उनकी फीस भी कम नहीं थी। लेकिन फिर भी वे पूरी जिंदगी साधारण तरीके से जीते रहे।

डॉ राजेंद्र प्रसाद 12 वर्षों तक राष्ट्रपति रहे

मृदुभाषी डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने 12 वर्षों तक भारत के राष्ट्रपति के पद को संभाला। 26 नवंबर 1950 को देश को गणतंत्र राष्ट्र का दर्जा मिलने से वे देश के प्रथम राष्ट्रपति बने। साल 1957 में उन्हें दोबारा राष्ट्रपति चुना गया और 1962 में वह अपने पद से हट गए। इस दौरान उन्हें "भारत रत्न" से भी नवाजा गया था। 

डॉ राजेंद्र प्रसाद 'गुपचुप' लिखा था आत्मकथा

डॉ राजेंद्र प्रसाद सुबह सभी के उठने से पहले ही लेखन कार्य किया करते थे। उनके सचिव तक को भी कई दिन बाद पता चला कि राजेन्द्र प्रसाद कुछ लिख रहे हैं। बाद में आत्मकथा का बड़ा हिस्सा उन्होंने जेल में रहते लिखा और अंतत: पिलानी आकर ही स्वास्थ्य लाभ करते हुए अपनी लगभग 755 पेज की आत्मकथा का समापन किया। खास बात यह थी कि उनकी आत्मकथा मूल रूप से हिन्दी में ही लिखी गई।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

ककड़िया विद्यालय में हर्षोल्लास से मनाया जनजातीय गौरव दिवस, बिरसा मुंडा के बलिदान को किया याद...!!

61 वर्षीय दस्यु सुंदरी कुसुमा नाइन का निधन, मानववाद की पैरोकार थी ...!!

ककड़िया मध्य विद्यालय की ओर से होली मिलन समारोह का आयोजन...!!