संत रैदास जी श्रमण-विचारधारा के उपदेशक व विचारक थे...!!
लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली
श्रमण संस्कृति के प्रणेता गौतम बुद्ध के ध्वज वाहक थे संत रैदास जी। संत रविदास कहते हैं कि अंतर्मन की पवित्रता ही सच्ची भक्ति है। इसके लिए व्यक्ति धार्मिक कर्मकांड की बजाय विनम्र होकर निरंतर कर्म करता रहे। संत रैदास बुद्ध धम्म की एक धारा हैं। प्रत्यक्ष रूप से वह बौद्ध नहीं दिखते हैं लेकिन गहन विवेचना उनको सीधे बुद्ध धम्म से जोड़ती है।
उनका जन्म उस समय हुआ, 15वीं शताब्दी में, जब बुद्ध का धम्म भारत से क्रमिक रूप से लुप्त दिखाई दे रहा था, लेकिन वास्तव में उससे नये सम्प्रदायों का जन्म हो रहा था, जो प्रत्यक्ष रूप से नये सम्प्रदाय दिख रहे थे लेकिन उनकी मौलिक जड़ें बुद्ध धम्म में थीं। उस समय बौद्ध धर्म का एक सम्प्रदाय सहजयान बन चुका था। इसी सहजयान से भक्ति सम्प्रदाय का जन्म हुआ जिसके उल्लेखनीय प्रकट व्यक्तित्व मध्यकाल के संत हैं- संत रैदास, संत कबीर उनमें सर्वाधिक विख्यात हैं। संत रैदास के पदों और दोहों का गहन अध्ययन किया जाए तो वे बुद्ध के वचनों के सिवा कुछ नहीं हैं।
चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु एवं कई लेखकों व शोधार्थियों ने संत रैदास पर लिखित अपनी पुस्तकों में उल्लेख किया है। रैदास के पदों और दोहों में जो शिक्षाएं व्यक्त हुई हैं वह बुद्ध के वचनों के सिवा कुछ भी नहीं हैं। जन्म से कोई अछूत नहीं होता, न जन्म से कोई ब्राह्मण होता है। कर्म से कोई ब्राह्मण होता है, कर्म से कोई अछूत होता है। संत रैदास का साधना मार्ग विपस्सना है। विपस्सना का सहज सा अर्थ है समता में रहना- न सुखद वेदनाओं से राग, न दुःखद वेदनाओं से द्वेष, बल्कि समता में स्थित रहना। संत रैदास वही अनुभूति अपने शब्दों में कहते हैं: राग द्वेष कूं छाड़ि कर, निह करम करहु रे मीत। सुख दुःख सभ महि थिर रहिं, रैदास सदा मनप्रीत।। वे विपस्सना की एक बड़ी गहन अनुभूति को बड़े प्रेमल शब्दों में व्यक्त करते हैं: गगन मण्डल पिय रूप सों, कोट भान उजियार। रैदास मगन मनुआ भया, पिया निहार निहार।। भगवान बुद्ध ने सुख, दुःख, लाभ, हानि इत्यादि को लोक धर्म कहा है।
वर्तमान में बुद्ध धर्म के बदलते आयाम
गुरु रैदास जी को सम्पूर्ण भारत में आदरसहित याद किया जाता है। पंजाब प्रांत में सिक्ख्पंथ के गुरुनानक उनका सम्मान करते थे। काशी के वासी संत कबीर नें उन्हें “साधुन मा रैदास संत है” कहा भक्तमाल ग्रन्थ में रैदास को संतशिरोमणि की उपाधि से विभूषित किया गया। राजस्थान के ठाकुरों ने जिनका लोहा माना। राणा सांगा की बड़ी पुत्र वधु उनसे ज्ञान ध्यान की दीक्षा ली, चित्तोड़ की महारानी झाली ने भी जिन्हें गुरु धारण किया। कासी के ब्राह्मण प्रधान जिनकी शरण में आकर दंडवत (प्रणाम नमन) किया करते थे। इन सब से स्पस्ट होता है की गुरु रविदास में कुछ तो खासियत रही होगी। वर्ना यूँ ही संत कबीर साधो (संतों) में खास संत न कह देते। भक्तमाल ग्रन्थ में उन्हें संतों के सिरताज सिर की मणि नहीं कहा जाता। चित्तोड़ की रानी झाली और मीरा किसी ऐरे गैरे नत्थू खैरे चमार व्यक्ति को ऐसे ही गुरु धारण नहीं कर लेती। इन सभी का उत्तर यह है की गुरु रविदास जी द्वारा रचित काव्य का अवलोकन और चिंतन करने पर विदित होता है की संत जी श्रमण-विचारधारा के उपदेशक विचारक थे। संत शिरोमणि गुरु रैदास ने वो ही समझया जो तथागत बुद्ध ने कहा और बुद्ध ने जो किया, वही गुरु रैदास जी ने किया। इस देश में जितने भी क्षत्रिय राजा थे, सभी मनुस्मृति के अनुसार राज करते थे। उनके लिए गुणहीन ब्राह्मण भी सर्वोच्च व पूजनीय था। विद्वान शुद्र भी तिरस्कार का पात्र था। शुद्र जनता धन, शिक्षा और जन्मसिद्ध अधिकारों से वंचित थे। नारी पुरुषों के पैरों के जूती समझी जाती थी। घर से घेर तक केवल उसका गुलामी का कार्य था।
रविदास जी लोक वाणी के लेखक थे
रविदास लोकवाणी में लिखते थे, इसलिए जनमानस पर उनके लेखन का सहज प्रभाव पड़ता था। उनकी रचनाओं में हमेशा मानवीय एकता व समानता पर बल दिया जाता था। वे मानते थे कि जब तक हमारा अंतर्मन पवित्र नहीं होगा, तब तक हमें ईश्वर का गुण नहीं मिल सकता है। दूसरी ओर, यदि हमारा ध्यान कहीं और लगा रहेगा, तो हमारा मुख्य कर्म भी बाधित होगा तथा हमें कभी-भी लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती है। जो बातें उन्होंने स्वयं पर आजमाई, उन्हें ही रचनाओं के माध्यम से आम जन को बताया। उनके जीवन की एक घटना से पता चलता है कि वे गंगा स्नान की बजाय खुद के कार्य को संपन्न करने को प्राथमिकता देते हैं।
संत रविदास के अनुसार श्रम ही है साधन
संत रविदास ने कहा कि लगातार कर्म पथ पर बढ़ते रहने पर ही सामान्य मनुष्य को मोक्ष की राह दिखाई दे सकती है। अपने पदों व साखियों में वे किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए श्रम को ही मुख्य आधार बताते हैं। इसलिए वे मध्यकाल में भी अपनी बातों से आधुनिक कवि समान प्रतीत होते हैं। वे लिखते हैं, 'जिह्वा सों ओंकार जप हत्थन सों करि कार/राम मिलहिं घर आइ कर कहि रविदास विचार।' एक पद में नाम की महत्ता को बताते हुए राम नाम के जप पर जोर देते हैं, जिससे सगुण ब्रह्म की शक्तिशाली सत्ता का मोह टूट जाता है और शासन की जगह समानता का नारा बुलंद होता है। अपने समय के नानक, कबीर, सधना व सेन जैसे संत कवियों की तरह रविदास भी इस बात को समझते हैं कि सगुण अवतार जहां शासन व्यवस्था को जन्म देता है, वहीं निर्गुण राम समानता के मूल्य के साथ खड़े होते हैं, जो अपनी चेतना में एक आधुनिक मानस को निर्मित करते हैं। 'नामु तेरो आरती भजनु मुरारे / हरि के नाम बिनु झूठै सगल पसारे ..' जैसे पद के आधार पर रविदास अपने समय की शक्तिशाली प्रभुता को उसके अहंकार का बोध कराते हैं तथा समान दृष्टि रखने वाले लोगों का आह्वान करते हैं, जो उन्हें आज भी प्रासंगिक बनाता है।
समान अवसर का सर्मथन
बनारस के दक्षिणी छोर पर स्थित सीरगोवर्धन में छह शताब्दी पहले पैदा हुए संत रविदास। रैदास के 40 पद गुरु ग्रंथ साहब में मिलते हैं, जिसका सम्पादन गुरु अर्जुन देव जी ने 16 वीं सदी में किया था। आज भी रैदास जी के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता है। रविदास के साथ जातिगत भेदभाव खूब हुआ था, जिसका दर्द उनकी रचनाओं और उनके इर्द-गिर्द बुनी गई कथाओं में भी देखा जा सकता है। उनकी विद्वता को बड़े-बड़े विद्वान भी स्वीकार कर उन्हें दंडवत करते हैं। यह उनके पदों व साखियों में देखा जा सकता है। 'अब विप्र परधान करहि दंडवति /तरे नाम सरनाई दासा' जैसे पद इसका साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। यही कारण है कि असमानता, अहंकार और अवसाद की स्थितियों से गुजरते हुए रविदास अपने समय में एक ऐसे बेगमपुर (बेगमपुरा सहर को नाऊं, दुख अन्दोख नहीं तिहि ठाऊं) की परिकल्पना करते हैं, जहां किसी को कोई दुख न हो और सभी समान हों। समान ही नहीं, सभी को समान अवसर भी मिले।
रविदास ने पाखंड से पुरजोर लड़ाई की
कह सकते हैं कि रविदास ने समानता और समरसता के आधार पर जो रचनाएं दीं, वे ही एक नई सामाजिकता का गठन कर रही थीं। इसमें जड़ता, अंधविश्वास, अंधभक्ति के कई मूल्य ध्वस्त हुए और फिर इन सभी विकारों से रहित एक स्वस्थ समाज सामने आया। जात-पांत व भेदभाव रहित समाज ही स्व विवेक के बल पर सही निर्णय ले सकता है। रविदास भक्ति आंदोलन के एक ऐसे संत हैं, जो जीवन भर श्रम की महत्ता पर जोर देते रहे। इनकी सर्वाधिक ऊर्जा अपने समय के पाखंड से लड़ने में खर्च हुई, क्योंकि उन्हें पता था कि इसके बगैर समता, समानता व सहअस्तित्व की भावना को अर्जित नहीं किया जा सकता। उनके अनुसार, व्यक्ति को धार्मिक पाखंड करने की बजाय अंतर्मन की पवित्रता पर जोर देना चाहिए। महात्मा गांधी अपने धर्म का पालन करते थे, लेकिन वे कर्मकांड करने की बजाय आत्मा की शुद्धता पर अधिक जोर देते थे। संत रविदास की तरह गांधी कर्म व श्रम की महत्ता पर जोर देते थे। आधुनिक काल में स्वामी सहजानंद सरस्वती ने किसान को ही भगवान का रूप समझा। माघ पूर्णिमा के अवसर पर हर वर्ष बनारस के सीर गोवर्धन में संत रविदास की स्मृति में आयोजन होता है, जिसमें पंजाब व हरियाणा से बड़ी संख्या में लोग शामिल होते हैं।
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