सम्राट अशोक ने गया में महाबोधि महाविहार की स्थापना करायी..!!
लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली
बोधगया का महाबोधि महाविहार समस्त विश्व के बौद्धों तथा धम्मानुयायियों के लिए एक पवित्र तीर्थस्थल है। 2002 में वर्ल्ड हेरिटेज का दर्जा प्राप्त हुआ था। बौद्धों के लिए बोधगया का महत्व मुसलमानों के मक्का-मदीना तथा ईसाइयों के बेथलहम से भी अधिक है। जापान के लोग भारत में आकर पैर में चप्पल तक नहीं पहनते तथा वे रात में भारत की ओर पैर करके नहीं सोते, क्योंकि वे बुद्ध की इस धरती को अतीव पावन मानते हैं। म्यांमार के लोग सारे जीवन की जमा पूंजी खर्च करके भी बोधगया के दर्शन करने आते हैं। श्रीलंका से प्रतिवर्ष लाखों लोग बोधगया आते हैं।
बौद्ध–ग्रंथों में बोधगया उरुवेला या उरुबिल्व के नाम से प्रसिद्ध है। इसी जगह तपाचरण करके भगवान बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। इसी ज्ञानोदय की याद में सम्राट अशोक ने इस महाबोधि महाविहार की स्थापना करायी थी। सम्राट अशोक की बौद्ध–धम्म के प्रति श्रद्धा तथा बोधिवृक्ष व महाविहार के प्रति आसक्ति देख कर उनकी रानी के मन में विद्वेष जाग उठा और उसने बोधिवृक्ष को नष्ट करने के अनेक प्रयास किये। किंतु वह सफल नहीं हो सकी। सम्राट कनिष्क ने भी यहां निर्माण–कार्य कराए। कुषाण–राजा हुविष्क तथा गुप्त राजाओं ने भी इसमें योगदान दिया। श्रीलंका के राजा मेघवर्मा (388 ई) ने पास ही संघारामों का निर्माण कराया था। बंगाल के एक धम्मविद्वेषी राजा ने प्राय: 600 ईस्वी में इस बोधिवृक्ष को नष्ट कर दिया। फिर यहां से संघमित्र द्वारा श्रीलंका ले जाये गये बोधिवृक्ष की टहनी यहां रोपी गयी। 1010 ई में महाराजा महिपाल ने भी यहां मरम्मत करायी थी। 12वीं शताब्दी में श्रीलंका के उदयसिरि के द्वारा यहां एक बुद्ध–प्रतिमा की स्थापना की गयी थी।
राजा बुद्धसेन के पुत्र जयसेन ने वज्रासन (महाबोधि विहार) की आय के लिए एक गांव भेंट किया तथा इसकी देखभाल का जिम्मा श्रीलंका के त्रिपिटकाचार्य भिक्खु मंगलस्वामी को सौंप दिया। 13वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बर्मा (म्यांमार) के बौद्धोपासकों ने महाविहार की मरम्मत तथा सौंदर्यीकरण कराया। 15वीं शताब्दी में बंगाल के छग्लराज की रानी ने भी मरम्मत करायी थी। किंतु घने वनों तथा विधर्मियों के आक्रमणों के कारण बौद्धानुयायियों के पर्यटन के अभाव के कारण शैव पुजारियों (गिरियों) ने इसे हथिया कर बगल में मठ बना लिया था। 1560 में महंतों के आदिपुरुष घमंडी गिरि ने इस मठ का निर्माण कराया था।
1727 में तत्कालीन महंत को महमूद शाह ने दो गांवों की जमींदारी दी थी। मठ की आय में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गयी तथा महाविहार उस मठ के अधीन हो गया। बाद में बर्मा के राजा मिंडनमिन ने महाविहार का संस्कार करा कर वहां पूजा की व्यवस्था करायी तथा इसे लगातार कराने के लिए एक आचार्य भी रखा। किंतु महंतों ने पुन: 18वीं शताब्दी में मुगल शासकों से इसे हासिल कर लिया। उन्होंने महाविहार के बाहरी द्वार पर महेश्वर के चित्रों को उकेर लिया था। यहीं से विधर्मियों द्वारा महाविहार पर कब्जा करने का इतिहास आरंभ होता है।
1811 में यूरोपीय विद्वान बुचनन हेमिल्टन यहां आये, जिन्होंने इसे अत्यंत जीर्ण–शीर्ण अवस्था में पाया। फिर 1820 में बर्मा के राजा ने महाविहार का स्थान देख कर उसे चिह्न्ति करने हेतु एक दूत बोधगया भेजा, किंतु वह असफल रहा। 1823 में राजा वाजिदो ने पुन: एक बुद्धभक्त को पूजा–वंदना की व्यवस्था के लिए बोधगया भेजा। वह इसमें सफल हुआ, किंतु अधिक समय वहां नहीं रह सका। वह महंत के ही किसी शिष्य को बौद्ध–पूजा प्रणाली की शिक्षा व दायित्व सौंप कर बर्मा चला गया। पूजा–अर्चना का व्यय बर्मा सरकार करती रही। धीरे–धीरे महंत ने पुन: यहां अपना अधिकार जमाना शुरू कर दिया। उसने यहां अनेक हिंदू–प्रतीक चिह्न् तथा मूर्तियां स्थापित कर दीं। 1832 में गया जिले के प्रधान न्यायाधीश हाउथोर्न ने भी बोधगया के खंडहरों का अवलोकन किया। थोड़े दिनों बाद ही बर्मा के राजा खुद आये और बड़ी भव्यता के साथ भगवान बुद्ध तथा बोधिवृक्ष की पूजा की। उन्होंने सरकार से महाविहार की मरम्मत हेतु अनुमति भी मांगी। पुरातत्वविद् जनरल कनिंघम 1861 में गया पहुंचे। उन्होंने महाविहार को अत्यंत दीन अवस्था में पाया। 1862 ई में आर्कोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के निदेशक के रूप में वह बोधगया पहुंचे और रिपोर्ट देकर महाविहार के जीर्णोद्धार की बात की। 1870 में आंधी–तूफान के कारण एक बार फिर बोधिवृक्ष को क्षति पहुंची।
ब्रिटिश सरकार ने बर्मा सरकार को इच्छुक जान कर उसे उद्धार का कार्य सौंपा। इस प्रकार 1875 में बर्मा के राजा मिंडनमिन ने यहां महाविहार की मरम्मत का कार्य आरंभ कराया। सरकार की शर्त थी कि बर्मा सरकार यहां कोई नया निर्माण कार्य नहीं करेगी। मरम्मत का कार्य करते हुए बर्मा सरकार ने यहां धर्मशाला भी बनवायी थी, जिस पर बाद में महंत ने कब्जा कर लिया।
1877 में पुन: डॉ राजेंद्रलाल मित्र को ब्रिटिश सरकार ने निरीक्षण के लिए भेजा। उन्होंने मरम्मत कार्य को संतोषजनक नहीं पाया। तब भारत सरकार ने कार्य बंद करवा कर जेडी बेगलर के नेतृत्व में जनरल कनिंघम तथा डॉ राजेंद्रलाल के निर्देशन में मरम्मत तथा उत्खनन का कार्य पुन: आरंभ कराया। उनके प्रयासों से ही आधुनिक महाबोधि महाविहार साकार रूप ले सका। लेकिन, एक जनवरी, 1886 को बर्मा पर अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया और बौद्धाचार्य को हटा कर महाबोधि महाविहार पुन: महंत के हवाले कर दिया।
22 जनवरी, 1891 में श्रीलंका के महान बौद्ध विद्वान् और बौद्ध क्रांति के अग्रदूत अनागारिक धम्मपाल अपने जापानी मित्र भिक्खु कोजान के साथ सारनाथ होते हुए बोधगया पहुंचे। महाविहार पर महंत का कब्जा और दुर्दशा देख उन्हें बहुत दु:ख हुआ। उन्होंने महाविहार को महंत से स्वतंत्र कराने हेतु कठिन प्रयास शुरू कर दिये। इसमें उन्हें सफलता भी मिली। उन्होंने श्रीलंका से बोधिवृक्ष लाकर पुन: यहां लगा दिया। आजकल जो बोधिवृक्ष है वह चौथी पीढ़ी का है। किंतु थोड़े समय बाद ही महंत ने पुन: महाविहार पर अधिकार जमाना शुरू कर दिया।
धम्मपाल ने शीघ्र ही श्रीलंका, बर्मा और भारत में अपने मित्रों तथा बौद्ध संगठनों को पत्रों के माध्यम से आर्थिक मदद की गुहार लगायी। उन्होंने 1891 में मंदिर के उद्धार तथा प्रबंध के लिए ‘महाबोधि सोसाइटी’ स्थापित की। इसी बीच पटना में बौद्धों की एक बड़ी सभा हुई, जिसमें निर्णय लिया गया कि महाविहार पर पूर्णतया बौद्धों का अधिकार होना चाहिए। महाविहार से अपना अधिकार समाप्त होता देख महंत ने स्वामित्व हेतु मुकदमेबाजी शुरू की। इस दौरान अनेक हिंसक वारदातें भी हुईं। धम्मपाल ने कानूनी रूप से संघर्ष किया। 1893 में शिकागो में आयोजित धर्मसंसद में उन्होंने विश्व को संबोधित करते हुए बौद्ध–धम्म के उत्थान के लिए आह्वान किया। उन्होंने सारनाथ में भी विहार का जीर्णोद्धार कराया। धम्मपाल के सत्प्रयासों से बौद्धों को महाविहार में पूजा–अर्चना का अवसर मिल सका।
1922 में गया में कांग्रेस के अधिवेशन में छपरा कांग्रेस कमेटी के मंत्री के नाते महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने भी प्रस्ताव भेजा था कि बोधगया महाविहार बौद्धों को सौंप दिया जाय। कांग्रेस ने उनके इस प्रस्ताव पर ध्यान नहीं दिया, जिससे आहत होकर उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी। अंतत: 1949 में बौद्धों को कानूनी अधिकार प्राप्त हो सका। महंत बोधगया महाविहार का मुकदमा हार गये। कालांतर में भारत के महान बौद्धाचार्यो और बौद्धानुयायियों ने अखिल भारतीय स्तर पर ‘महाबोधि महाविहार मुक्ति आंदोलन’ का सूत्रपात किया। पूज्य भदंत आर्य नागाजरुन सुरेई ससाई महाथेरो, अग्ग महापंडित ज्ञानेश्वर, पूज्य भदंत आनंद महाथेरो, सत्यशील महाथेरो तथा प्रज्ञाशील महाथेरो के नेतृत्व में यह आंदोलन चल रहा है। वर्तमान में यह महाविहार महंतों के अधिकार में नहीं है, किंतु बिहार सरकार ने महाबोधि महाविहार के संरक्षण के लिए एक प्रबंध समिति बनायी है। इसमें कुल नौ सदस्य हैं, चार हिंदू व चार बौद्ध और गया जिले का कलेक्टर पदेन अयक्ष है।
यदि ऐतिहासिक दृष्टि से यह महाविहार बौद्धों का है। अतीत काल में महंतों द्वारा अवसर पाकर महाविहार के समीप की कोठरियों में शिवलिंग तथा हिंदू देवी–देवताओं की मूर्तियां रखी गयी थीं तथा उनकी पूजा की जाने लगी। महाविहार की एक कोठरी को पांडव मंदिर के रूप में प्रचारित भी किया गया। वस्तुत: उस मंदिर में भगवान बुद्ध की ही मूर्तियां रखी हुई हैं। सम्राट अशोक ने अपने जीवन काल में 84,000 बौद्ध विहारों, मंदिरों व धम्म–स्थलों की स्थापना की थी। अत्यन्त महत्वपूर्ण पुरातात्विक सामग्री को बिहार, झारखंड तथा उत्तर प्रदेश में सरकार व पुरातत्व विभाग की लापरवाही और बेपरवाही के कारण लोग उठा–उठा कर अपने घरों में लगा रहे हैं। देश में अनेक बौद्ध–धम्मस्थल उपेक्षित होकर धीरे–धीरे नष्ट हो रहे हैं। अत: बौद्ध–पुरातात्विक स्थलों का संरक्षण करने के ठोस प्रयास किये जाने चाहिए। वर्तमान में यह महाविहार महंतों के अधिकार में नहीं है, किंतु बिहार सरकार ने महाबोधि महाविहार के संरक्षण के लिए एक प्रबंध समिति बनायी है। इसमें कुल नौ सदस्य हैं। चार हिंदू और चार बौद्ध हैं, और गया जिले के कलेक्टर पदेन अध्यक्ष हैं।
बोधगया में उत्खनन का इतिहास और बोधिवृक्ष
सन् 1820 ई० के कुछ वर्ष पहले ही, अपने बौद्धधर्म-प्रेम के कारण, बर्मा-देश के तत्कालीन राजा ने, बोधिवृक्ष का पता देनेवाले एक नक्शे के साथ, वास्तविक मंदिर का स्थान देख आने के लिए, अपना एक दूत बोधगया में भेजा। किन्तु वह व्यक्ति 'गया' नगर से ही लौट गया। गया के आगे घनघोर जंगलों को देखकर उसने थोड़ा और दक्षिण बढ़ने का साहस नहीं किया। फिर सन् 1823 ई० में बर्मा के राजा 'वाजिदो' ने उत्साहित करके एक दूसरे बौद्ध भक्त को बोधगया के लिए रवाना किया। वाजिदो ने उसे आदेश दिया था कि बोधगया में जाकर बर्मा-राज्य की ओर से भगवान् बुद्ध की पूजा करना और सर्वदा पूजा-अर्चना होती रहे, इसका भी कुछ प्रबन्ध करके ही लौटना। इसका सारा व्यय वर्मा-राज्य वहन करेगा। उस वौद्धधर्म-भक्त ने ठीक वैसा ही किया। बोधगया पहुँचकर उसने बड़ी धूमधाम से बोधिवृक्ष और भगवान बुद्ध की पूजा-अर्चना की और चढ़ावा चढ़ाया, और कुछ दिनों तक ठहरकर पूजा-अर्चना करता रहा। बुद्धमूर्त्ति की निरन्तर पूजा होती रहे, इसके लिए उसने स्थानीय महंत के एक शिष्य को बौद्ध-पूजा प्रणाली की शिक्षा देकर और पूजा का प्रबन्ध महंत के जिम्मे सौंपकर वह बर्मा-देश को लौट गया। पूजा-अर्चना का सारा आर्थिक प्रबन्ध वर्मा की ओर से ही हुआ। उसी के बाद से बोधगया मंदिर स्थानीय महंत के अधिकार में रहने लगा। उस समय बोधगया में एक भी बौद्ध धर्मावलम्बी व्यक्ति नहीं था और बोधगया का क्षेत्र जंगलों से भरा था।
वाजिदो के बाद वर्मा के राजा 'मिंडुमिन' हुए। मिंडुमिन ने सन् 1874 ई० में बोधगया में एक धर्मशाला बनवाई, जो निरंजना नदी के किनारे और ‘संन्यासी महंत’ के मठ से दक्षिण में स्थित थी। संयोगवश आज वह धर्मशाला बोधगया के 'संन्यासी महन्त' के अधीन हो गई है और उनकी अतिथि-शाला (गेस्ट हाउस) बन गई है। इसे महन्त ने बाहर से घेरकर अपनी चहारदीवारी के भीतर कर लिया है। इस धर्मशाला से सटे दक्षिण दिशा में जो दो छोटे-छोटे मंदिर हैं, वे भी बर्मा के राजा मिंडुमिन के ही बनवाये हुए हैं। ये मंदिर भी अब संन्यासी महन्त के ही अधिकार में है। इससे बहुत पहले, सन् 1832 ई० में ही, गया जिला के प्रधान न्यायाधीश मिस्टर ‘हाउथोर्न' बोधगया के खँड़हर देखने आये थे। उस समय बोधगयावासियों ने हाउथोर्न से मुख्य मंदिर के संस्कार के लिए निवेदन किया था। हाउथोर्न ने बोधगया-मन्दिर की दुर्दशा पर काफी दुःख प्रकट किया; पर उन्होंने मंदिर के संस्कार के लिए कुछ किया-कराया नहीं। हाउथोर्न के जाने के कुछ समय बाद बर्मा के राजा भी बोधगया आये थे। उन्होंने भगवान् बुद्ध की तथा बोधिवृक्ष की बड़े उत्सव समारोह के साथ पूजा की थी तथा मंदिर के उद्धार के लिए नागरिकों को सान्त्वना दी और शायद भारत सरकार से लिखा-पढ़ी भी की। पर, वे थोड़े ही दिनों बाद बर्मा लौट गये।
सन् 1846 ई० में जनरल कनिंघम के सहकर्मी मेजर 'मारहम किट्टो' बोधगया में पधारे और उन्होंने ही सर्वप्रथम भारत सरकार के पास बोधगया का विवरण भेजा। किन्तु अँगरेजी-सरकार ने इस ओर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। सन् 1861 ई० में प्रसिद्ध पुरातत्वज्ञ (पुरातत्ववेत्ता) जनरल कनिंघम भी बोधगया आये। इन्होंने भी अपनी विवरण तालिका सरकार के पास भेज़ी; पर सरकार ने फिर कुछ नहीं किया। किन्तु, कनिंघम का व्यक्तित्व पुरातत्वज्ञों में पूर्ण प्रतिष्ठित था और ये अपनी धुन के धनी थे। जब ये सन् 1862 ई० में 'ऑलॉजिकल सर्वे ऑफ् इंडिया' नामक संस्था के निर्देशक (डाइरेक्टर) होकर बोधगया आये, तब पुनः भारत-सरकार के पास इन्होंने अपनी विवरणिका भेजी। इस बार इन्होंने सरकार को लिखा कि 'भारत के हित की हिमायती अँगरेजी सरकार यदि इन कामों को नहीं करेगी, तो फ्रांसीसी और पुर्तगाली करेंगे, हमारी सरकार यह अच्छी तरह जान ले।' इस बार भारत सरकार के कानों पर जूं रेंगी और उसने डॉ० राजेन्द्रपाल मित्र को बोधगया के निरीक्षण-परीक्षण के लिए अपनी ओर से भेजा। डॉ० राजेन्द्रपाल मित्र ने बोधगया में एक वर्ष रहकर बड़े परिश्रम के साथ अपना विवरण तैयार किया और सरकार के समक्ष उसे प्रस्तुत किया। डॉ० राजेन्द्रपाल मित्र के विवरण भेजने के पहले गया के जिला जज ‘फर्गुसन’ साहब ने भी बोधगया पर अपनी एक विज्ञप्ति छपवाई थी और उन्होंने भी उसे भारत सरकार के पास बोधगया मंदिर के उद्धार के लिए लिखा था। इस तरह विभिन्न व्यक्तियों के द्वारा, बोधगया मंदिर के उद्धार के लिए, बार-बार भारत सरकार पर दबाव डाला जाता रहा। यह पहले कहा गया है कि बर्मा-देश की सरकार बोधगया मंदिर के उद्धार के लिए पहले से ही आकांक्षी थी, इसलिए बर्मा-सरकार को भारत सरकार ने बोधगया के उद्धार के लिए आदेश दे दिया। संस्कार-क्रम में भारत सरकार की ओर से शर्त यह थी कि वहाँ मंदिर में बर्मी सरकार अपनी ओर से कोई नयां काम नहीं करेगी। बर्मी सरकार की ओर से मंदिर का संस्कार कार्य सन् 1877 ई० के कुछ पहले ही आरम्भ हो गया था। किन्तु, सन् 1877 ई० में डॉ० राजेन्द्रपाल मित्र अँगरेजी सरकार की ओर से बोधगया का निरीक्षण करने के लिए भेजे गये। इनके निरीक्षण विवरण-पत्र को देखकर भारत सरकार ने बर्मी सरकार का संस्कार कार्य बन्द करवा दिया और उनके कारीगरों को भी हटवा दिया। भारत-सरकार ने बोधगया की खुदाई का काम अब अपने हाथों में ले लिया और जनरल कनिंघम तथा डॉ० राजेन्द्रपाल की निगरानी में काम होने लगा। खुदाई करते समय ही मजदूरों की असावधानी से पीपल का वृक्ष गिर गया था, जहाँ कनिंघम ने अपने हाथों से एक नया वृक्ष लगा दिया। यह वृक्ष मंदिर से उत्तर की ओर है, जहाँ बोधिसत्व, गणेश, जम्भल आदि की मूर्तियाँ हैं और जहाँ हिन्दू पिण्डदान भी करते हैं।मंदिर की खुदाई सुव्यवस्थित रीति से सन् 1877 ई० में प्रारंभ हुई और तीन वर्षों की अथक मेहनत के बाद सन् 1880 ई० में समाप्त हुई थी। इस उद्धार कार्य में दो लाख रुपये व्यय हुए थे।
उत्खनन में प्राप्त सामग्री
इस उत्खनन में प्रधान बुद्ध मंदिर का तल-भाग जमीन की तत्कालीन सतह से 25 फुट नीचे में मिला। लगभग 600 फुट समचतुष्कोण वर्गाकार में मंदिर की खुदाई कराई गई। अब सतह से मंदिर की ऊँचाई 180 फुट है। खुदाई के पहले मंदिर तक आने का मार्ग केवल पूर्व भाग के द्वार के सामने से था, जो अब चारों ओर से हो गया है। चारों ओर की ऊँची जमीन से प्रस्तर के सोपान बनाये गये हैं, जिनसे मंदिर तक मार्ग निर्मित है। चारों तरफ से रास्ते इसलिए बनाये गये हैं कि पहले भी ये मार्ग थे, जिनका वर्णन चीनी यात्री ‘ह्वेनसांग’ ने 7 वीं सदी में किया है। खुदाई के पहले बोधगया मंदिर के दर्शनार्थी पूरब की ओर से आकर केवल मंदिर के ऊपरी भाग में ही पहुँचते थे, जहाँ बुद्ध की एक मूर्ति स्थापित है। इसी मूर्ति को लोग मंदिर की प्रधान मूर्ति समझते थे और इस ऊपरी गर्भगृह को ही मुख्य मंदिर का गर्भगृह मानते थे। खुदाई और संस्कार के पहले मन्दिर घनघोर जंगलों और टूटे-फूटे खंड़हरों के बीच में अवस्थित था। शाम होते ही बोधगयानिवासी भी मंदिर तक नहीं जाते थे, बाहरी व्यक्ति की तो बात ही क्या है ? मंदिर के पासवाली कँटीली झाड़ियों में भेड़िये और चीतों का स्वच्छंद राज्य था।
उपर्युक्त खुदाई के समय बोधगया में जो बहुमूल्य पुरातत्व सामग्री मिली, उससे बौद्धधर्म पर विशद और विस्तृत प्रकाश पड़ा तथा अँगरेजी शासन काल का यह प्रयत्न बौधद्धर्म के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण रहा प्राप्त सामग्री में बौद्धधर्म की अनेक मूर्तियाँ मिलीं, जो कलकत्ता, पटना तथा मथुरा के संग्रहालयों में भेज दी गई हैं। अनेक स्तूप और मूर्तियाँ आज भी मंदिर के आँगन में स्थित हैं और कुछ सन् 1856 ई० में बने बोधगया के नवीन संग्रहालय में रख दी गई हैं।
लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली
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