वीरांगना झलकारी बाई की 167 वीं पुण्यतिथि पर विशेष..!!

लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली

जाकर रण में ललकारी थी, वह झाँसी की झलकारी थी। गोरों से लड़ना सिखा गई, है इतिहास में झलक रही, वह भारत की ही नारी थी, झलकारी थी। रानी लक्ष्मीबाई जी के प्राण बचाकर स्वयं के प्राणों की आहुति देनी वाली स्वतंत्रता सेनानी झलकारी बाई जी की पूण्यतिथि पर कोटि-कोटि नमन।
देश की स्वतंत्रता में निडर योद्धा वीरांगना झलकारी बाई का बहुत ब़ड़ा योगदान है, उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। भारत प्राचीन काल से ही 'वीरप्रसूताभूमि' रही है। समयानुसार इसने वीर संतानों को जन्म दी है। उन्ही में से एक थी झलकारी बाई, जिसकी वीरता झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई से जरा भी कम न थी। झलकारी की वीरता में उसके विपक्षी सेनापति ह्यूरोज ने कहा था 'अगर भारत में स्वतंत्रता की दीवानी ऐसी दो-चार और महिलाएँ हो जायें, तो अब तक ब्रिटिश ने भारत में भी जो ग्रहण किया है, वह उन्हें छोडना पड़ेगा। फिर भारत को स्वतंत्र होने से कोई भी नहीं रोक सकता।'

 झलकारी बाई का जन्म और पारिवारिक जीवन 

निडर योद्धा झलकारी बाई का जन्म 22 नवंबर 1830 को झांसी से 4 कोस दूर भोजला गांव में एक निर्धन कोली परिवार में हुआ था। उन्होंने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों का मुकाबला किया था। इनके पिता सदोवर सिंह और माता जमुना देवी थे। झलकारी बाई को शैशवास्था से ही मातृ-वियोग सहना पड़ा। पर पिता ने उन्हें उन दिनों की सामाजिक परिस्थितियों के कारण कोई औपचारिक शिक्षा तो न दिलवा सके, परन्तु घुड़सवारी और हथियारों का प्रयोग जैसे प्रशिक्षण कराते हुए उसका पालन-पोषण एक वीर लड़के की भांति किया था। झलकारी बचपन से ही बहुत साहसी और दृढ़ प्रतिज्ञ संकल्पी बालिका थी। झलकारी घर के काम-काज के अतिरिक्त पशुओं की देखभाल और पास के जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने का काम भी करती थी। एक बार जंगल में एक आदमखोर चीते ने झलकारी के संगी-साथियों पर हामला कर दिया। चीते के अचानक हमले को देखकर उसके संगी-साथी सभी भाग खड़े हुए, किन्तु झलकारी ने हिम्मत न हारी और वह कुल्हाडी लेकर चीते से जा भिड़ी। चीते ने भी अपने पंजों से झलकारी को घायल कर दिया। लेकिन झलकारी ने भी कुल्हाड़ी से चीते के माथे पर सधा हुआ कई वार किया। कुछ ही समय में वह आदमखोर चीता निर्बल होकर निढाल हो कर गिर पड़ा, जो कुछ ही समय के उपरांत मर गया।

सन् 1857 के विद्रोह और झाँसी पर अंग्रेज फ़ौज का आक्रमण

सन् 1857 के विद्रोह के समय, जनरल रोज ने अपनी विशाल सेना के साथ 23 मार्च 1858 को झाँसी पर आक्रमण किया। रानी ने वीरतापूर्वक अपने 5000 के सैन्य दल से उस विशाल सेना का सामना किया. रानी कालपी में पेशवा द्वारा सहायता की प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन उन्हें कोई सहायता नही मिल सकी क्योकि तात्या टोपे जनरल रोज से पराजित हुए थे। जल्द ही अंग्रेज फ़ौज झाँसी में घुस गयी थी और रानी अपनी झाँसी को बचाने के लिए जी जान से लढ रही थी। तभी झलकारीबाई ने रानी लक्ष्मीबाई के प्राणों को बचाने के लिये खुद को रानी बताते हुए लड़ने का फैसला किया, इस तरह झलकारीबाई ने पूरी अंग्रेजी सेना को अपनी तरफ आकर्षित कर रखा था ताकि दूसरी तरफ से रानी लक्ष्मीबाई सुरक्षित बाहर निकाल सके। इस तरह झलकारीबाई खुद को रानी बताते हुए लडती रही और जनरल रोज की सेना भी झलकारीबाई को ही रानी समझकर उनपर प्रहार करने लगी थी। लेकिन दिन के अंत में उन्हें पता चल गया था की वह रानी नही है।

झलकारीबाई की प्रसिद्धि 

सन् 1951 में बी.एल. वर्मा द्वारा रचित उपन्यास झाँसी की रानी में उनका उल्लेख किया गया है, वर्मा ने अपने उपन्यास में झलकारीबाई को विशेष स्थान दिया है। उन्होंने अपने उपन्यास में झलकारीबाई को कोरियन और रानी लक्ष्मीबाई के सैन्य दल की साधारण महिला सैनिक बताया है‌ एक और उपन्यास में हमें झलकारीबाई का उल्लेख दिखाई देता है, जो इसी वर्ष राम चन्द्र हेरन द्वारा लिखा गया था, उस उपन्यास का नाम माटी था। हेरन ने झलकारीबाई को “उदात्त और वीर शहीद” कहा है। झलकारीबाई का पहला आत्मचरित्र 1964 में भवानी शंकर विशारद द्वारा लिखा गया था, भवानी शंकर ने उनका आत्मचरित्र का लेखन वर्मा के उपन्यास और झलकारी बाई के जीवन पर आधारित शोध को देखते हुए किया था। बाद में कुछ समय बाद महान जानकारो ने झलकारीबाई की तुलना रानी लक्ष्मीबाई के जीवन चरित्र से भी की।
झलकारीबाई की महानता

कुछ ही वर्षो में भारत में झलकारीबाई की छवि में काफी प्रख्याति आई है। झलकारीबाई की कहानी को सामाजिक और राजनैतिक महत्ता दी गयी. और लोगो में भी उनकी कहानी सुनाई गयी. बहोत से संस्थाओ द्वारा झलकारीबाई के मृत्यु दिन को शहीद दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। भारत सरकार ने झलकारीबाई के नाम का डाक टिकट भी जारी किया है। भारतीय पुरातात्विक सर्वे ने अपने पंच महल के म्यूजियम में, झाँसी के किले में झलकारीबाई का भी उल्लेख किया है.
 एक अविश्वसनीय योद्धा जिसने युद्ध के मैदान में अपनी मृत्यु तक झाँसी की महान रानी लक्ष्मीबाई के साथ कई ब्रिटिश सैनिकों को मारने के लिए एक शेरनी की तरह लड़ाई लड़ी, वह गुमनामी में चली गई। हमारे स्वतंत्रता आंदोलन की गुमनाम नायक या नायिका, जैसा कि आप उन्हें कह सकते हैं, झलकारीबाई के नाम से जानी जाती है। झलकारीबाई को अनुसूचित जाति की पृष्ठभूमि के कारण स्कूल जाने की अनुमति नहीं थी। इसके बजाय, उसके पिता ने उसे घुड़सवारी और मार्शल आर्ट में प्रशिक्षित किया। समय के साथ वह बड़ी होकर रानी की सलाहकार बन गयी।
रानी लक्ष्मीबाई की विश्वासपात्र होने के नाते, झलकारीबाई ने युद्ध रणनीति की योजना बनाने और रणनीति बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और 1857 में भारत की आजादी के पहले युद्ध के दौरान एक प्रमुख व्यक्ति बनकर उभरीं। उनकी बहादुरी के किस्से झाँसी के अंदर और बाहर घर-घर में मशहूर थे। ऐसा कहा जाता है कि एक बार जब धोखेबाजों ने उसके गांव को नष्ट करने की कोशिश की, तो झलकारी ने अकेले ही उन्हें खदेड़ दिया। कुछ किंवदंतियों के अनुसार, उसने एक बार एक बाघ को कुल्हाड़ी से मार डाला था जब जानवर ने जंगल में उस पर हमला करने की कोशिश की थी।

रानी लक्ष्मीबाई के रक्षा में झलकारीबाई और तोपची पूरण सिंह

झलकारीबाई को रानी लक्ष्मीबाई के समान माना जाता है। उन्होंने एक तोपची सैनिक पूरण सिंह से विवाह किया था, जो रानी लक्ष्मीबाई के ही तोपखाने की रखवाली किया करते थे। पुराण सिंह ने ही झलकारीबाई को रानी लक्ष्मीबाई से मिलवाया था। बाद में झलकारी बाई भी रानी लक्ष्मीबाई की सेना में शामिल हो गयी थी। सेना में शामिल होने के बाद झलकारीबाई ने युद्ध से सम्बंधित अभ्यास ग्रहण किया और एक कुशल सैनिक बनी। रानी लक्ष्मीबाई ने उन्हें झाँसी किले में एक उत्सव के दौरान देखा, और झलकारीबाई और उनके बीच की अनोखी समानता को देखकर सुखद आश्चर्यचकित हुईं। जब रानी को झलकारीबाई के वीरतापूर्ण कार्यों के बारे में बताया गया, तो उन्होंने तुरंत उसे अपनी सेना की महिला शाखा में शामिल कर लिया और युद्ध में आगे प्रशिक्षित किया।
1858 में, जब ब्रिटिश फील्ड मार्शल ह्यू रोज़ ने झाँसी पर हमला किया, तो रानी लक्ष्मीबाई ने 4,000-मजबूत सेना के साथ अपने किले से ब्रिटिश सेना पर हमला किया। हालाँकि, उसके एक कमांडर ने उसे धोखा दिया और वह हार गई। अपने सेनापतियों की सलाह पर लक्ष्मीबाई चुपचाप घोड़े पर सवार होकर झाँसी से निकल गईं। लेकिन झलकारीबाई डटी रहीं और शेरनी की तरह लड़कर कई ब्रिटिश सैनिकों को मार डाला और भेष बदलकर जनरल रोज़ेज़ के शिविर के लिए निकल गईं और खुद को रानी घोषित कर दिया। उनकी गलत पहचान के कारण भ्रम की स्थिति पैदा हो गई जो पूरे दिन जारी रही, जिससे लक्ष्मीबाई को भागने के लिए पर्याप्त समय मिल गया।
अपनी मातृभूमि के लिए लड़ते हुए शहीद हुई

जंगे आज़ादी की लड़ाई में वीरांगना झलकारी बाई की शहादत हमेशा याद रहेगी। अपनी मातृभूमि के लिए अंग्रेजों से लड़ते-लड़ते पति पूरन कोरी के साथ 4 अप्रैल 1858 को वीरगति को प्राप्त हुए थी। उन्होंने प्रतिज्ञा किया था कि जब तक झांसी को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद नहीं करा दूंगी, तब तक माथे पर सिंदूर नहीं लगाऊंगीं। देश में दलित समुदाय आज भी उन्हें देवी के रूप में देखते हैं और हर साल झलकारीबाई की जयंती और पूण्यतिथि मनाते हैं। उनके साहस ने लाखों लोगों के अनुकरण के लिए एक समृद्ध विरासत छोड़ी है। भारत सरकार ने योद्धा झलकारीबाई की स्मृति में डाक टिकट जारी किया, जो अपने लोगों और अपने देश की रक्षा करते हुए जीती और मर गई। आज भी उनकी यादें लोगों के ह्रदय में जीवित हैं और उनके साहसी कारनामे लोककथाओं में फिर से उभर आते हैं। क्षेत्र के कई दलित समुदाय उन्हें भगवान के अवतार के रूप में देखते हैं।

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