चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर: एक कालजयी महापुरुष..!!


लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली
भगवान महावीर का जन्म किसी अवतार का पृथ्वी पर शरीर धारण करना नहीं है, नारायण का नर शरीर धारण करना नहीं है, नर का ही नारायण हो जाना है। साधना की सिद्धि परमशक्ति का अवतार बनकर जन्म लेने में अथवा साधना के बाद परमात्मा में विलीन हो जाने में नहीं है, बहिरात्मा के अन्तरात्मा की प्रक्रिया से गुजरकर स्वयं परमात्मा हो जाने में है। महावीर मानव ही नहीं महामानव थे। उन्होंने हिंसा से पूरी तरह विरत रहने की बात कही। सादगी और ब्रह्मचर्य के मार्ग को सर्वोत्तम बताया। आज विश्व में भगवान महावीर के उपदेशों की प्रासंगिकता बढ़ गई है। भगवान महावीर की जयंती को हम जन्म कल्याणक कहते हैं। जन्म, जयंती जैसे शब्द जैन परंपरा में प्रयोग नहीं किए जाते हैं। भगवान का जन्म पूरे विश्व के कल्याण के लिए हुआ है। महावीर स्वामी द्वारा दिए गये उपदेश हो या श्लोक, पत्थर पर खुदे आलेख हो या चित्रित मुद्राएँ, पवित्र मंत्र हो या भावपूर्ण भजन जैन अनुयायियों के लिए तो महत्वपूर्ण है ही साथ-साथ उनके जीवन जीने के सिद्धांत भी है। वे सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, दान, सेवा, पूजन, व्रत, साधना, प्रार्थना आदि का अनुसरण करते हुए जीवन यापन करते हैं और बड़ी धूम से जयंती मनाते हैं।

 भगवान महावीर का जन्म और परिवार

ईसा से 599 वर्ष पहले वैशाली के कुण्डलपुर गांव में पिता सिद्धार्थ और माता त्रिशला के यहाँ तीसरी संतान वर्द्धमान के रूप में चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि को जन्म लिए। मान्यताओं के अनुसार, भगवान महावीर ने 12 वर्ष कठोर तप किया था, जिससे उन्होंने अपनी सभी इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ली थी। बाद में उन्होंने दिगंबर स्वरूप को स्वीकार कर लिया। यही वर्द्धमान बाद में स्वामी महावीर बना। महावीर को ‘वीर’, ‘अतिवीर’ और ‘सन्मति’ भी कहा जाता है। बिहार के मुजफ्फरपुर जिले का आज का जो बसाढ़ गाँव है वही उस समय का वैशाली था। वर्द्धमान के बड़े भाई का नाम था नंदिवर्धन व बहन का नाम सुदर्शना था। वर्द्धमान का बचपन राजमहल में बीता। वे बड़े निर्भीक थे। जन्म से ही अतींद्रिय ज्ञानी थे। आठ बरस के हुए, तो उन्हें पढ़ाने, शिक्षा देने, धनुष आदि चलाना सिखाने के लिए पाठशाला में भेजा गया।  
 भगवान महावीर के उपदेश जीवनस्पर्शी है

जब विश्व में हिंसा का बोलबाला था, उस समय महावीर ने जन्म लिया और विश्व को अहिंसा का पाठ पढ़ाते हुए सभी कुरीतियों को खत्म किया। सभी मानवों को जियो और जीने दो का मूलमंत्र दिया। इसी मंत्र से समग्र विश्व में शांति की स्थापना हुई और सर्व समाज के व्यक्तियों ने अहिंसा को अपनाकर सुख और शांति से जीवन यापन करने लगे। महावीर का संपूर्ण जीवन तप और ध्यान की पराकाष्ठा है। महावीर के उपदेश जीवनस्पर्शी हैं, जिनमें जीवन की समस्याओं का समाधान निहित है। ‘जियो और जीन दो’ जैन पंथ का मूलमंत्र है। जैन पंथ में अहिंसा, कायरों का शस्त्र नहीं, वीरों का शस्त्र है। ''सर्वे भवन्तु सुखिनः'' की मंगल भावना, अहिंसा का अमूल्य विचार है।

 महावीर ने कहा हिंसा से हिंसा शांत नहीं होती 

महावीर स्वामी ने मांसाहार का विरोध कर, शाकाहार को हर दृष्टि से लाभप्रद बताया। वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो भी मांसाहार मनुष्य में हिंसक प्रवृत्ति को जन्म देता है। उच्च रक्त-चाप, मधुमेह, हृदय रोग जैसे गंभीर बीमारियां विकसित होती हैं। अहिंसा के महानायक महावीर स्वामी ने जल, वृक्ष अग्नि, वायु और मिट्टी तक में जीवत्व स्वीकार किया है। महावीर ने अहिंसा की व्याख्या करते हुए जल और वनस्पति के संरक्षण का भी उद्घोष किया। 
राग आदि दोष हिंसा के मूल कारण होते हैं। भगवान महावीर ने कहा था कि आत्मा में रागादि की उत्पति का होना हिंसा है और रागादि का नहीं होना अहिंसा है। भगवान महावीर ने 2500 साल पहले अहिंसा का सिद्धांत दिया था, वह आज पहले से अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। ढाई हजार साल पहले पत्थरों से युद्ध होते थे, लेकिन आज जो आधुनिक अस्त्रों का इस्तेमाल होता है, वह अधिक घातक व हिंसक है। आज निर्दयता एवं हिंसा की भावनाएं बढ़ी हैं। ऐसे में भगवान महावीर के सिद्धांतों पर चलने पर हम शांत हो सकते हैं। काया, वाणी और मन से हिंसा होती है। इनमें काया की हिंसा तो सरकार रोकती है और वाणी की हिंसा समाज रोकता है, लेकिन मन की हिंसा को धर्म ही रोक सकता है। उन्होंने अहिंसा को अमृत बताया तथा कहा कि इसे अपना कर व्यक्ति सुखी होगा और परिवार, समाज या देश द्वारा अहिंसा अपनाई जाएगी तो वे भी सुखी बन जाएंगे।

महावीर के दर्शन सभी के जीवन दर्शन के लिए

लोक में महापुरुषों का जन्म जन-जीवन को ऊँचा उठाने और उनका हित करने के लिए होता है। भगवान् महावीर ऐसे ही महापुरुष थे। उनमें लोककल्याण की तीव्र भावना, असाधारण प्रतिभा, अद्वितीय तेज और अनुपम आत्मबल था। महावीर ने जीवन पर्यन्त अपने अमृत वचनों से समस्त मानव जाति को ऐसी अनुपम सौगात दी, जिन पर अमल करके मानव चाहे तो इस धरती को स्वर्ग बना सकता है। आज के परिवेश में हम जिस प्रकार की समस्याओं और जटिल परिस्थितियों में घिरे हैं, उन सभी का समाधान महावीर के सिद्धांतों और दर्शन में समाहित है। अपने जीवनकाल में उन्होंने ऐसे अनेक उपदेश और अमृत वचन दिए, जिन्हें अपने जीवन तथा आचरण में अमल में लाकर हम अपने मानव जीवन को सार्थक बना सकते हैं।
भगवान महावीर का कहना था कि जो मनुष्य स्वयं हिंसा करता है या दूसरों से हिंसा करवाता है अथवा हिंसा करने वालों का समर्थन करता है, वह जगत में अपने लिए बैर बढ़ाता है। अहिंसा की तुलना संसार के सबसे महान् व्रत से करते हुए उनका कहना था कि संसार के सभी प्राणी बराबर हैं, अतः हिंसा को त्यागिए और ‘जीओ व जीने दो’ का सिद्धांत अपनाइए। वे कहते थे कि संसार में प्रत्येक जीव बराबर है, अतः आवश्यक बताकर की जाने वाली हिंसा भी हिंसा ही है और वह जीवन की कमजोरी है। उनके अनुसार छोटे-बड़े किसी भी प्राणी की हिंसा न करना, बिना दी गई वस्तु स्वयं न लेना, विश्वासघाती असत्य न बोलना, यह आत्मा निग्रह सद्पुरुषों का धर्म है। जो लोग कष्ट में धैर्य को स्थिर नहीं रख पाते, वे अहिंसा की साधना नहीं कर सकते। अहिंसक व्यक्ति तो अपने से शत्रुता रखने वालों को भी अपना प्रिय मानता है। उनका कहना था कि संसार में रहने वाले चल और स्थावर जीवों पर मन, वचन एवं शरीर से किसी भी तरह के दण्ड का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

जैन परंपरा में ब्रह्मचर्य की महिमा

ब्रह्मचर्य की महिमा का गुणगान भारतीय संस्कृति, विशेषत: जैन धर्म की विशेषता रही है। ‘ब्रह्म’ शब्द का अर्थ हैं ‘निर्मल ज्ञान स्वरूप आत्मा’ और उस आत्मा में लीन होने का नाम ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य आत्मा की आंतरिक शक्ति है, अनुशासित आचरण है। जैन धर्म एवं दर्शन में ब्रह्मचर्य के द्वारा अब्रह्म पर नियंत्रण का विस्तार से वर्णन है। ब्रह्मचर्य की महिमा का गुणगान करते हुए कहा गया है—
एकमेव व्रतं श्लाघ्यं ब्रह्मचर्य जगत्त्रये। यद् विशुद्धि सामापन्ना: पूजयन्ते पूजितैरपि।।
अर्थात् एक ब्रह्मचर्य व्रत ही तीनों लोकों में प्रशंसनीय है जो कि विशुद्धि को प्राप्त हुए पूज्य पुरूषों के द्वारा भी पूजा जाता है। अनगार धर्मामृत में कहा गया है— ‘जो पुरूष ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हैं, वे ही पुरूष सच्चे सुख—मोक्ष सुख को प्राप्त करते हैं।’ ‘ब्रह्मणि आत्मनि चरणं ब्रह्मचर्यं ’ स्वयं की आत्मा में रमण करना ब्रह्मचर्य है। इन्द्रिय संयम ही ब्रह्मचर्य है। आचार्यों ने कहा है जिस तरह रोग से मुक्ति पाने के लिये औषधि का सेवन आवश्यक है, उसी तरह भव रूपी रोग से मुक्त होने के लिये ब्रह्मचर्य की परम आवश्यकता है। ‘ब्रह्मव्रते परिनिष्ठो भव्य जीवो लौकान्तिकों भवेत्’ ब्रह्मचर्य में निष्ठ भव्य जीव एक भवावतारी लौकान्तिक देव होता है। व्यवहार नय और निश्चय नय की अपेक्षा से मैथुन त्याग की क्रिया को व्यवहार ब्रह्मचर्य और अपने विशुद्ध आत्म स्वरूप में ही रमण करने का नाम निश्चय ब्रह्मचर्य है। अणुव्रत, महाव्रत, स्वदारसंतोषव्रत, ब्रह्मचर्य प्रतिमा आदि ब्रह्मचर्य के ही स्वरूप हैं/ नाम हैं। आचार्य प्रणीत ग्रंथों में ब्रह्मचर्य की महिमा का गुणगान किया गया है।
अन्य धर्मों में भी ब्रह्मचर्य व्रत को महत्व दिया गया है। वीर शिवाजी, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गाँधी आदि अनेक उदाहरण हैं जब उन्होंने ब्रह्मचर्य की महिमा को बताया। इसके विपरीत कामवासना में फसकर गर्त में गिरने वालों के भी अनेक उदाहरण हैं। जैसे रावण यशोधरा (कुवडे के संग) चारूदत्त (वेश्या) धनश्री आदि। किसी भी देश या समाज का युवा वर्ग उसकी संपदा होती है। पर आज के परिप्रेक्ष्य में ब्रह्मचर्य व्रत को ध्यान में रखकर यदि हम दृष्टिपात करें, तो हम पाते हैं कि यह पीढ़ी यद्यपि साहस और बुद्धि से सम्पन है पर शांति से अशांति की ओर, सरलता से विषमता की ओर, सादगी से विलासता की ओर, संतोष से असंतोष की ओर यर्थाथ से दिखावा की ओर बढ़ रही है। भौतिकवाद ने सुखसुविधाओं के ढेर लगाकर मनुष्य को विलासी बना दिया और भोगवादी संस्कृति ने उसके विवेक पर परदा डालकर उसे विषय भोगों की उस अंधी दौड़ में शामिल कर दिया जिसका कोई अंत नहीं है। वस्तुत:देखा जाये तो आज का वातावरण और दिनचर्या इस तरह से हो गयी है कि हम पाँचों इन्द्रिय और मन के विषयों के दास होते जा रहे हैं। दिन भर अनंत इच्छाओं का सागर हमारे मन में लहराता है हम वाणी और काया की अपेक्षा मन से अधिक पाप करते हैं। 

भगवान् महावीर का निर्वाण बिहार के पावापुरी में

भगवान महावीर ने 72 वर्ष की अवस्था में ईसापूर्व 527 में पावापुरी (बिहार) में कार्तिक (आश्विन) कृष्ण अमावस्या को निर्वाण प्राप्त किया। इनके निर्वाण दिवस पर घर-घर दीपक जलाकर दीपावली मनाई जाती है। भगवान् महावीर एक कालजयी और असाम्प्रदायिक महापुरुष थे। वे सचमुच प्रकाश के तेजस्वी पुंज और सार्वभौम धर्म के प्रणेता हैं। महावीर के दर्शन और सिद्धांतों में ही आधुनिक मानव जीवन की समस्याओं का समाधान निहित है। आवश्यकता है हम बदलें, हमारा स्वभाव बदले और हम हर क्षण महावीर बनने की तैयारी में जुटे। उनके उपदेश को अपने जीवन और आचरण में उतारें। महावीर की अहिंसा केवल उपदेशात्मक और शब्दात्मक नहीं है। उन्होंने उस अहिंसा को जीया और फिर अनुभव की वाणी में दुनिया को उपदेश दिया। आज विश्व हिंसा की ज्वाला में झुलस रहा है। अहिंसा के शीतल जल से ही उसे राहत मिल सकती है।

लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली

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