अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस मजदूरों के संघर्ष, बलिदान और उपलब्धियों को याद करने का दिन है ...!!
“हम मेहनत कश मजदूर है, हम अपना हिस्सा मागेंगे, एक रोटी नही एक कपड़ा नही हम पूरी आजादी माँगेंगे, एक गाँव नही एक देश नही हम सारी दुनिया माँगेंगे। हम मेहनत कश मजदूर है” विश्व भर में अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस “1 मई” के दिन मनाया जाता है। किसी भी देश की तरक्की उस देश के किसानों तथा कामगारों (मजदूर / कारीगर) पर निर्भर होती है। एक मकान को खड़ा करने और सहारा देने के लिये जिस तरह मजबूत “नीव” की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, ठीक वैसे ही किसी समाज, देश, उद्योग, संस्था, व्यवसाय को खड़ा करने के लिये कामगारों (कर्मचारीयों) की विशेष भूमिका होती है। अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस मई माह की पहली तारीख को दुनिया भर में मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाता है। जिसका मकसद दुनियाभर में मौजूद मजदूरों के संघर्ष और बलिदान को श्रद्धा से याद करना है।
अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस का इतिहास
इस दिन को मनाने की शुरुआत अमेरिका में 138 साल पहले हुई थी। जब अमेरिका के हजारों मजदूरों ने अपने काम की स्थितियां बेहतर करने के लिए हड़ताल की शुरू की थी। दरअसल यहां मजदूरों से दिन के 15 घंटे काम लिए जाता था। तो उनकी मांग थी कि इस 15 घंटे को घटाकर 8 घंटे किए जाएं। इस मांग को लेकर 1 मई 1886 के दिन कई मजदूर अमेरिका की सड़कों पर उतरे थे। स्थिति खराब होते देख पुलिस ने कुछ मजदूरों पर गोलियां चला दी, जिसमें 100 से भी ज्यादा लोग घायल हो गए थे, कई मजदूरों की तो जान भी चली गई थी। इसे देखते हुए 1889 में अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन की दूसरी बैठक के दौरान 1 मई को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाने का प्रस्ताव रखा गया। साथ ही श्रमिकों का इस दिन अवकाश रखने और 8 घंटे से ज्यादा काम न करवाने के फैसले पर भी मुहर लगी थी।
अमरीका देश के शिकागो शहर में स्थित हेमार्केट की घटना
वर्ष 1886 में 4 मई के दिन शिकागो शहर के हेमार्केट चौक पर मजदूरों का जमावड़ा लगा हुआ था। मजदूरों नें उस समय आम हड़ताल की हुई थी। हड़ताल का मुख्य कारण मजदूरों से बेहिसाब काम कराना था। मजदूर चाहते थे कि उनसे दिन भर में आठ घंटे से अधिक काम न कराया जाए। मौके पर कोई अप्रिय घटना ना हो जाये इसलिये वहाँ पर स्थानीय पुलिस भी मौजूद थी। तभी अचानक किसी अज्ञात व्यक्ति द्वारा भीड़ पर एक बम फेंका गया। इस घटना से वहाँ मौजूद शिकागो पुलिस नें मजदूरों की भीड़ को तितर-बितर करने के लिये एक्शन लिया और भीड़ पर फायरिंग शुरू कर दी। इस घटना में कुछ प्रदर्शनकारीयों की मौत हो गयी। मजदूर वर्ग की समस्या से जुड़ी इस घटना नें समग्र विश्व का ध्यान अपनी और खींचा था।
इसके बाद 1889 में अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में ऐलान किया गया कि हेमार्केट नरसंघार में मारे गये निर्दोष लोगों की याद में 1 मई को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाएगा और इस दिन सभी कामगारों व श्रमिकों का अवकाश रहेगा।
भारत में मजदूर दिवस की शुरुआत
भारत में मजदूर दिवस सब से पहले चेन्नई में 1 मई 1923 को मनाना शुरू किया गया था। उस समय इस को मद्रास दिवस के तौर पर प्रामाणित कर लिया गया था। इस की शुरुआत भारती मज़दूर किसान पार्टी के नेता कामरेड सिंगरावेलू चेट्यार ने शुरू की थी। इसके बाद से देश के कई मजदूर संगठनों ने मिलकर एक मई को मजदूर दिवस के रूप में मनाया शुरू किया।
अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस का महत्व
अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस मजदूरों के संघर्ष, बलिदान और उपलब्धियों को याद करने के लिए मनाया जाता है। यह दिन मजदूरों के अधिकारों, सुरक्षा और भलाई के लिए जागरूकता बढ़ाने का भी काम करता है। यह दिन याद दिलाता है कि मजदूर समाज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। उनके योगदान के बिना आर्थिक विकास संभव नहीं है। मज़दूरों को उचित वेतन, काम करने की सुरक्षित स्थितियां और सामाजिक सुरक्षा का अधिकार मिलना चाहिए। मजदूरों और नियोक्ताओं के बीच समानता और न्याय होना चाहिए। अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस हमें मजदूरों के प्रति आभार व्यक्त करने और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध होने प्रेरणा देता है। इस दिन के माध्यम से हम समाज को जागरुक कर सकते हैं।
अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस 2024 की थीम
अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस 2024 की थीम है ‘सामाजिक न्याय और सभी के लिए सभ्य कार्य।’ इसके अलावा भी कई बिंदुओं को रखा गया है। इस थीम का उद्देश है मज़दूरों की गरिमा का ख्याल रखना और उन्हें शांतिपूर्ण कामकाजी वातावरण प्रदान करना।
क्या वाइट कॉलर वर्कर्स ‘सफेद कॉलर कार्यकर्ता’ को मजदूर दिवस को एक नया रूप देना चाहिए?
सफेदपोश कर्मचारी वह व्यक्ति होता है जो पेशेवर, प्रबंधकीय या प्रशासनिक कार्य करता है यानी शारीरिक श्रमविहीन कार्यों द्वारा आजीविका प्राप्त करता है। सफेदपोश का काम किसी कार्यालय या अन्य प्रशासनिक व्यवस्था में किया जा सकता है।
ब्लू कॉलर श्रमिक वे होते हैं जो शारीरिक श्रम करते हैं। यह नाम 20वीं सदी की शुरुआत से आया है जब ये कर्मचारी गहरे रंगों (जैसे नीली डेनिम या नीली वर्दी) के प्रतिरोधी कपड़े पहनते थे।
कौन सा रंग किस तरह की नौकरी (मजदूर) को बताता है और उसमें किस तरह का काम किया जाता है
पिंक कॉलर वर्कर:
इसमें ऐसे कर्मचारी आते हैं जिन्हें काफी कम सैलरी मिलती है। यह कम वेतन वाली नौकरी होती है। इसमें औसत शिक्षा पाने लोगों को शामिल किया जाता है। जैसे- लाइब्रेरियन, रिसेप्सनिस्ट आदि।
व्हाइट कॉलर वर्कर:
येसबसे चर्चित कर्मचारी होते हैं, इसलिए ज्यादातर लोग व्हाइट कॉलर जॉब के बारे में जानते हैं। इसमें ऐसे सैलरी पाने वाले प्रोफेशनल्स शामिल होते हैं, जो ऑफिस में काम करते हैं और मैनेजमेंट का हिस्सा होते हैं।
ओपन कॉलर वर्कर:
महामारी के दौरान ओपन कॉलर वर्कर का टैग चर्चित हुआ है। इसमें ऐसे कर्मचारी आते हैं जो घर में इंटरनेट की मदद से काम करते हैं। देश में ऐसे कर्मचारियों की संख्या में इजाफा हुआ है। अब कई कंपनियां ऐसी जॉब ऑफर कर रही हैं, जिसे घर से ही किया जा सकता है। यानी वो पर्मानेंट वर्क फ्रॉम होम का कल्चर अपना रही हैं।
ब्लैक कॉलर वर्कर:
ये ऐसे कर्मचारी होते हैं जो माइनिंग यानी खनन या ऑयल इंडस्ट्री के लिए काम करते हैं। कई बार इसका इस्तेमाल ऐसे लोगों के लिए भी किया जाता है जो ब्लैक मार्केटिंग करने का काम करते हैं।
ब्लू कॉलर वर्कर:
वर्किंग क्लास कर्मचारियों को ब्लू कॉलर वर्कर कहा जाता है। इस सेक्टर में काम करने को ब्लू कॉलर जॉब कहते हैं। इसमें ऐसे श्रमिक शामिल होते हैं, जिन्हें घंटे के हिसाब से मेहनताना मिलता है. जैसे- घर बनाने वाले श्रमिक।
गोल्ड कॉलर वर्कर:
इन्हें सबसे ज्यादा क्वालिफाइड माना जाता है। इस सेक्टर में डॉक्टर, वकील, साइंटिस्ट जैसे प्रोफेशनल्स शामिल होते हैं। इन्हें सबसे ज्यादा स्किल्ड प्रोफेशनल्स कहा जाता है।
ग्रे कॉलर वर्कर:
ये ऐसे वर्कर होते हैं जो रिटायरमेंट के बाद भी काम करते हैं। इनमें ज्यादातर 65 साल से अधिक उम्र के प्रोफेशनल्स शामिल होते हैं। जैसे- हेल्थकेयर प्रोफेशनल्स और आईटी प्रोफेशनल्स।
ग्रीन कॉलर वर्कर:
जैसा की नाम से स्पष्ट है कि ग्रीन कॉलर जॉब में ऐसे लोग शामिल होते हैं सोलर पैनल, ग्रीन पीस और दूसरे एनर्जी सोर्स से जुड़े काम करते हैं।
स्कारलेट कॉलर वर्कर:
पॉर्न इंडस्ट्री में काम करने वाले पुरुष और महिलाओं के लिए नाम तय किए गए हैं। इन्हें स्कारलेट कॉलर वर्कर कहते हैं।
ऑरेंज कॉलर वर्कर:
सही मायने में ये वर्कर नहीं, जेल में रहने वाले कैदी होते हैं, जिनसे मजदूरी या दूसरे काम कराए जाते हैं।
आज की तेज दौड़ती ज़िन्दगी में इंसान ऑफिस छोड़ देता है लेकिन काम नहीं छोड़ पाता। लाखों लोग घर पर आकर भी लैपटॉप और कंप्यूटर पर घंटों काम करते हैं। तो एक तरह से आज के ‘सफेद कॉलर कार्यकर्ता’ ने कल के ‘ब्लू कालर वर्कर’ की जगह ले ली हैं। ऐसे में शायद इन वर्कर्स को अपनी हिस्से की ज़िन्दगी जीने के लिए समय माँगना चाहिए…आवाज़ उठानी चाहिए और मजदूर दिवस के दिन अपनी बातों को एक मंच प्रदान करना चाहिए।
मजदूर वर्ग किसी भी समाज का अभिन्न और महत्वपूर्ण अंग होता है उन्हे सर्वथा सम्मान देना सभी का कर्तव्य है। अगर किसी जगह पर मजदूरों के साथ अन्याय हो रहा हों या उन पर अत्याचार हो रहा हों तो उस बात को सार्वजनिक करना और उस अनीति के खिलाफ आवाज़ उठाना प्रत्येक ज़िम्मेदार नागरिक का फर्ज़ है।
हम अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस पर क्यों करें डॉ. आंबेडकर को याद
बाबा साहेब को देश उनके कई और योगदान के लिए याद करता है। लेकिन उनका एक महत्वपूर्ण कार्य मजदूरों और किसानों को संगठित करने और उनके आंदोलन का नेतृत्व करने का भी था। कभी-कभी कम उपलब्धियों वाले लोग इतिहास के नायक बना दिए जाते हैं और महानायकों को उनकी वास्तविक जगह मिलने में सदियां लग जाती हैं। ऐसे महानायकों में डॉ. आंबेडकर भी शामिल हैं। भारत में 21 वीं सदी आंबेडकर की सदी के रूप में अपनी पहचान धीरे-धीरे कायम कर रही हैं। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के नए-नए आयाम सामने आ रहे हैं। उनके व्यक्तित्व का एक बड़ा आयाम मजदूर एवं किसान नेता का है।
बहुत कम लोग इस तथ्य से परिचित हैं कि उन्होंने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी की स्थापना की थी, उसके टिकट पर वे निर्वाचित हुए थे और 7 नवंबर 1938 को एक लाख से ज्यादा मजदूरों की हड़ताल का नेतृत्व भी डॉ. आंबेडकर ने किया था। इस हड़ताल के बाद सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने मजदूरों का आह्वान किया कि मजदूर मौजूदा लेजिस्लेटिव काउंसिल में अपने प्रतिनिधियों को चुनकर सत्ता अपने हाथों में ले लें।
इस हड़ताल का आह्वान उनके द्वारा स्थापित इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी ने किया था, जिसकी स्थापना 15 अगस्त 1936 को डॉ. आंबेडकर ने की थी।
7 नवंबर की हड़ताल से पहले 6 नवंबर 1938 को लेबर पार्टी द्वारा बुलाई गई मीटिंग में बड़ी संख्या में मजदूरों ने हिस्सा लिया। आंबेडकर स्वयं खुली कार से श्रमिक क्षेत्रों का भ्रमण कर हड़ताल सफल बनाने की अपील कर रहे थे। जुलूस के दौरान ब्रिटिश पुलिस ने गोली चलाई जिसमें दो लोग घायल हुए। मुंबई में हड़ताल पूरी तरह सफल रही। इसके साथ अहमदाबाद, अमंलनेर, चालीसगांव, पूना, धुलिया में हड़ताल आंशिक तौर पर सफल रही।
यह हड़ताल डॉ. आंबेडकर ने मजदूरों के हड़ताल करने के मौलिक अधिकार की रक्षा के लिए बुलाई थी। सितंबर 1938 में बम्बई विधानमंडल में कांग्रेस पार्टी की सरकार ने औद्योगिक विवाद विधेयक प्रस्तुत किया था। इस विधेयक के तहत कांग्रेसी सरकार ने हड़ताल को आपराधिक कार्रवाई की श्रेणी में डालने का प्रस्ताव किया था।
डॉ. आंबेडकर ने विधानमंडल में इस विधेयक का विरोध करते हुए कहा कि ‘हड़ताल करना सिविल अपराध है, फौजदारी गुनाह नहीं. किसी भी आदमी से उसकी इच्छा के विरूद्ध काम लेना किसी भी दृष्टि से उसे दास बनाने से कम नहीं माना जा सकता है, श्रमिक को हड़ताल के लिए दंड देना उसे गुलाम बनाने जैसा है।’
उन्होंने कहा कि यह (हड़ताल) एक मौलिक स्वतंत्रता है जिस पर वह किसी भी सूरत में अंकुश नहीं लगने देंगे। उन्होंने कांग्रेसी सरकार से कहा कि यदि स्वतंत्रता कांग्रेसी नेताओं का अधिकार है, तो हड़ताल भी श्रमिकों का पवित्र अधिकार है। डॉ. आंबेडकर के विरोध के बावजूद कांग्रेस ने बहुमत का फायदा उठाकर इस बिल को पास करा लिया। इसे ‘काले विधेयक’ के नाम से पुकारा गया। इसी विधेयक के विरोध में डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व में लेबर पार्टी ने 7 नवंबर 1938 की हड़ताल बुलाई थी।
श्रम क़ानूनों का व्यापक संयोजन:
भारत में श्रम क़ानूनों का एक व्यापक संयोजन विकसित हुआ है। जिसका नतीजा है कि मनमाने तौर पर वेतन तय करने, ओवरटाइम कराने, मुआवज़ा देने, आदि में मालिकों की निजी दबंगई में बढ़ोत्तरी हुई है, जिसके कारण कामगार आज फिर शुरुआती 20वीं शताब्दी के औपनिवेशिक काल की असुरक्षा व अनिश्चितता की स्थिति में पहुँच गए हैं। हम देख रहे हैं कि बेहद कम उपभोग पर जीने वाली बहुसंख्यक आबादी की संख्या बढ़ रही है, बेरोज़गारी की दर अपने चरम पर है, और कम-वेतन पाने और ज्यादा-काम करने वाली, अमानवीय स्थिति में ढकेली गयी कामगारों की संख्या में लगातार इजाफ़ा हो रहा है- जो अक्सर ऐसे उपक्रमों में काम करते हैं जिनका पैमाना इसलिए नहीं बढ़ाया जाता ताकि यह उपक्रम महत्त्वपूर्ण श्रम कानूनों के दायरे से बचकर अतिरेक मुनाफा कमा सकें। ऐसे विकट समय में, जब सत्ताधारी पार्टी द्वारा प्रचारित भारत के तथाकथित ‘विकास’ की बकवासी (बकैती) की धुंधलकों से आगे जाने की प्रबल ज़रूरत हो, तब मई दिवस की परंपरा और भी ज्यादा प्रासंगिक हो जाती है।
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