महतो बाबा अलौकिक मानवतावादी चिंतनधारा के प्रवर्तक थे...!!
हितोपदेश की एक सुभाषित है : अयं निज परोवेति गणना लघुचैतसाम्। उदार चरितानाम तु वसुधैव कुटुम्बकम् यानी ‘यह अपना है, वह पराया है-यह सोच क्षुद्र वृत्ति की उपज है। उदारचरितों, सज्जनों के लिए तो पूरा विश्व एक परिवार के समान है, पृथ्वी पर रहने वाले सभी नर–नारी उनके परिजन हैं।’-जिस दौर की यह उक्ति है वह मानवीय मेधा के प्रस्फुटन का था। संत, बैरागी और बौद्ध दर्शन का उदय उससे करीब तीन सौ वर्ष पहले हो चुका था। जिन दिनों पंचतंत्रादि ग्रंथों की रचना हुई ये सभी मानवीय हितों का दर्शन देश की सीमाओं से बाहर निकलकर दुनिया को अपनी कल्याणकारी मेधा से प्रभावित कर रहे थे।
वेदों में बहुदेववाद, कर्मकांड और युद्धों का इतना विशद् वर्णन है कि उनके आगे उनकी दार्शनिक, नैतिक, आध्यात्मिक चिंतनधारा म्लान दिखने लगती है। इसलिए वे तत्व-चिंतन के नाम पर कर्मकांड, धर्म के बजाय पाखंड, नीति के स्थान पर ऊंच-नीच और आडंबर रचते हुए नजर आते हैं। उच्च वर्ग उनके माध्यम से धर्म-दर्शन की स्वार्थानुकूल और मनमानी व्याख्याएं थोपने का प्रयास किये जारहे थे। धर्म और राजसत्ता परस्पर मिलकर लोगों के शोषण के लिए नए-नए विधान गढे गये। सामाजिक, आर्थिक शोषण का यह सिलसिला लगभग पांच शताब्दियों तक निरंतर चलता रहा।
मानवतावादी और दार्शनिक, नैतिक, चिंतनधारा के प्रवर्त्तक श्री-श्री 108 श्री शरण निवास बाबा लगभग आठ सौ साल पहले, कृषक कुल में जन्मे थे।
इनके पिता का नाम भूदेव महतो और माता का नाम बसुंधरा देवी था। बाबा अपने दर्शन में कर्मकांड और आडंबरवाद का जमकर विरोध किया था। ये यज्ञों में दी जाने वाली पशुबलियों के विरुद्ध थे। वे शांति और अहिंसा के पक्षधर थे, और अपने अनुयायियों के बीच भरपूर ख्याति बटोरी। मानवतावादी चिंतनधारा में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त किये।
श्री शरण निवास बाबा महतो ने कर्मकांड के स्थान पर ज्ञान-साधना पर ज्यादा जोर दिए थे। पशुबलि को हेय बताते हुए वे अहिंसा के प्रति आग्रहशील रहे। जीवन में मधुरता को कायम रखने के लिए जरूरी है अहंकार का त्याग कर आग्रहशील बने रहना। उन्होंने मानव-जीवन को संपूर्ण बनाने पर जोर दिया। समाज में शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए उन्होंने 'जिओ और जीने दो’ का सिद्धांत दिया।
बिहार राज्य में 14 मेलों को राजकीय दर्जा प्राप्त है बाबा महतो महोत्सव
बिहार राज्य में कुल 14 मेलों को राजकीय मेला का दर्जा प्राप्त है। इनमें से पांच नालंदा में ही आयोजित होते हैं। इनके अलावा राज्य के चार अन्य मेलों के आयोजन का जिम्मा बिहार राज्य मेला प्राधिकार का है। इनमें से भी दो लंगोट व चिरागा मेले नालंदा के हैं। इन सभी मेलों में लाखों की भीड़ जुटती है। राजगीर का मलमास मेला (हर 4 साल में एक बार), सरमेरा के परनावां में लगने वाला श्री श्री 108 श्री शरण निवास बाबा महतो साहब का दो दिवसीय मेला, सिलाव का बड़गांव, एकंगरसराय का औंगारीधाम व राजगीर के मकर मेला को राजकीय मेला का दर्जा मिला हुआ है।
राजगीर का मकर मेला की शुरुआत 1959 में बिहार के राजगीर से हुआ था। पूर्व शिक्षा मंत्री स्व. सुरेंद्र प्रसाद तरुण ने इस मेले की शुरुआत की थी। इस मेले में किसानों द्वारा उपज की जाने वाली सब्जी, लाठी सहित पौराणिक चीज़ें होती है। यह मेला किसान मजदूरों के लिए लगाया गया था।
बिहार के नालंदा ज़िला अंतर्गत एकंगरसराय प्रखंड के ऐतिहासिक व धार्मिक स्थल सूर्य नगरी ऑगारीधाम सूर्य उपासना के लिए महत्वपूर्ण धामों में से एक है। भगवान अंगरक्षक के नाम से यह स्थल प्रसिद्ध हुआ। कार्तिक एवं चैत्र महीने में छठ व्रत करने के लिए यहां देश के कोने कोने से श्रद्धालु आते हैं।
बिहार के मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार ने धानुक समाज की मांग पर बाबा महतो महोत्सव को राजकीय दर्जा देने का ऐलान किया है। सीएम नीतीश कुमार सरमेरा प्रखंड के परनावां में आयोजित बाबा महतो महोत्सव का उद्घाटन करने आए थे।
दरअसल, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जब मंच से भाषण दे रहे थे तभी मुख्यमंत्री को सुनने आए लोगों में कई लोगों ने बाबा महतो साहब महोत्सव को राजकीय दर्जा दिए जाने की मांग की। जिसके बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि एक बार भी उन्हें पटना में किसी जनप्रतिनिधि या महोत्सव मंडल के लोगों ने बाबा महतो साहब महोत्सव के राजकीय दर्जा देने की बात नहीं कही। अचानक खुले मंच से इस तरह की मांग की जा रही है। अगर पहले से ये बातें कही होती तो आज यहां खुले मंच से इसका ऐलान हो जाता। लोगों की भावनाओं को देखते हुए इसे राजकीय दर्जा दिया जाएगा। बाबा महतो साहब की जयंती पर पहले दो दिवसीय अब चार दिवसीय मेले का आयोजन होता है। यह मेला वैशाख पूर्णिमा के दिन लगता है। इस मेले को वर्ष 2018 में राजकीय मेले का दर्जा मिला है। यहां परनावां गांव में श्री श्री 108 श्री शरण निवास बाबा का भव्य मंदिर बना हुआ है। बाबा महतो साहब के आयोजित मेले में 108 गांव के धानुक समाज और बिहार के कोने-कोने से किसान-मजदूर सहित सभी समाज के लोग आयोजित महोत्सव में भाग लेते हैं।
श्री शरण निवास महतो बाबा का जन्म लगभग 800 वर्ष पूर्व में प्रणावां गांव में हुआ था। महतो साहेब बचपन से ही तेज, समझदार, फुर्तीले एवं मानववादी विचार के थे। वे शांत स्वभाव के थे। महतो बाबा शांति और ज्ञान की प्राप्ति करने के लिए निरंतर घूमते रहते थे। प्रणावां गांव घना जंगल था, एक टिल्हा जिसके उत्तर में धनायन नदी और पच्छिम में सकरी नदी बहती थी, उसी स्थान पर बाबा हमेशा रुकते और घने जंगल-झाड़ को साफ़ कर एक कुटिया बनाये। उस कुटिया का नाम उन्होंने ‘प्रणव’ रखा। इस कुटिया में बाबा 12 साल तक करमी का साग खाकर तपस्या किए, और सिद्धि प्राप्त किया।
वे अपने शक्ति से जन-मानस को मदद करते थे। धीरे-धीरे कुटिया के आसपास लोग रहने लगे। आगे चल के यही स्थान ‘प्रणावाँ’ धाम बना। बाबा के अध्यात्म के किस्से चारो दिशा में फैलने लगे।
बाबा महतो साहब ने मकदुम साहब से मित्रता कर हिन्दू-मुस्लिम एकता का परिचय दिया था। बाबा महतो साहब जन्म से ही एक दिव्य व तेजस्वी बालक थे। मान्यता है कि गांव में एक दिन बाबा महतो साहब दीवार पर बैठकर तकली से सूत काट रहे थे। उसी समय उनके एक भक्त ने सूचना दी कि उनके सहपाठी बाबा मकदुम साहब उनसे मिलने आ रहे है। वह बाघ पर सवार होकर उनसे मिलने आ रहे हैं। उन्होंने दोस्त से मिलने के खातिर दीवार को चलने का आदेश दिया। उनके चल-चल रे दीवार कहते ही दीवार चल पड़ा। बाबा महतो साहब 108 गांव के धानुक समाज और किसानों के बहुत ही लोकप्रिय देवता माने जाते हैं।
बाबा महतो साहब और बाबा मखदूम साहब का आपस में मिलन
मखदूम साहब ने बाबा महतो साहब को बिहारशरीफ आने का न्यौता दिया था। अपनी दोस्ती और मर्यादा का ख्याल रख कर बाबा महतो साहब बिहारशरीफ जाने का मन बनाते हैं। अच्छा सा दिन तय करके और बाबा महतो साहब अपने मित्र से मिलने के लिए निकल पड़े, दीवार की सवारी करके बाबा साहब बिहारशरीफ पहुंचते हैं। मखदूम साहब उनका स्वागत करते हैं। मखदूम साहब बाबा साहब को वहाँ कुछ दिन ठहरने के लिए कहे और वहाँ का मनोरम प्रकृतिक छटा का अवलोकन करने का आग्रह किया। बाबा साहब के लिए रहने का एक उत्तम कुटिया प्रबंध किया गया। वे भ्रमण करते और अपना दिन-चर्या पूजा पाठ भी रोज करते थे। वे पूजा के क्रम में शंख बजाते। चारो तरफ शंख ध्वनी से वातावरण गुंजयमान हो उठता। वे ऐसा रोज अपनी दिन चर्या करते। उनके शंख की आवाज़ मुस्लिम लोगों को अच्छी नहीं लगती थी। मुस्लिम लोग शंख को सनातनी प्रतीक मानकर उससे चिढ़ते थे। एक दिन प्रातः काल में बाबा साहब जब प्रातः क्रिया करने अपने कुटिया से बाहर गए थे, उसी समय कुछ उदंड,शरारती लोग आते हैं और बाबा के कुटिया से शंख चुराकर उसे तोड़ कर कुँए में फेंक देते है। बाबा रोज की भाति अपना पूजा-पाठ करने लगे। जब उन्होंने शंख बजने के लिए अपना शंख अपनी झोली से निकालना चाहा तो देखा की शंख वहाँ नहीं था। बाबा अपने अंतर्ध्यान मन से जान गए की उनका शंख तोड़ दिया गया है। बाबा अंतर्ध्यान होके बोले ये सत्य का शंख तुम जहाँ हो वही से आवाज़ दो। कुँए में जितने भी शंख के टुकड़े पड़े थे सब ने जोर-जोर से आवाज़ उत्प्पन करना शुरू कर दिया। शंख की आवाज़ सुन कर लोग उसके आस-पास आ जाया करते थे, तो उस दिन भी आ गए। पर जिन्होंने शंख को तोड़ कर फेका था उनको बड़ा आश्चर्य हुआ की टुटा हुआ शंख कैसे बज गया। जब ये बात बाबा मखदूम साहब को पता चलता है तो वो आते और कहते है की, बाबा महतो साहब कोई साधारण संत नहीं हैं, ये तो हमारे मणि हैं। वे बाबा महतो साहब के पास जाकर बोले कि बाबा हमने आप को पहचाने में गलती कर दी। बाबा मखदूम साहब बोले कि बाबा आप ही संभालिये इस जगह को और मुझे आप अपने शरण में ले लीजिये। इस पर महतो बाबा बोलते हैं की मैं प्रणावाँ धाम में रहता हूँ। बाबा ने लोगों को आशीर्वाद देते हुए कहते हैं कि कोई भी मेरे दरवार में आएगा वो खाली हाथ नहीं जायेगा। उनके जन्म स्थान प्रणावाँ में बाबा साहब का एक भव्य मंदिर निर्मित किया गया। बाबा मखदूम साहब का दिया हुआ “मणि बाबा” नाम आज भी श्रद्धा से लिया जाता है। और बाबा मखदूम साहब के बगल बिहारशरीफ में भी “मणि बाबा” का एक भव्य मंदिर निर्मित कर उनकी पूजा की जाती है, और प्रत्येक साल वहाँ लंगोट मेला लगता है। बाबा महतो साहब को बिहारशरीफ में “बाबा मणिराम” के नाम से जाना जाता है। प्रत्येक साल उनके मंदिर में लंगोट मेला लगता है और नालंदा जिले डीएम और एसपी सबसे पहले लंगोट चढ़ाते है। वहाँ भी भक्तों की बहुत भीड़ होती है। बाबा का मेला बिहारशरीफ में सात दिनों तक लगता है। श्री-श्री 108 श्री शरण निवास बाबा महतो साहब ने आपसी भाईचारा का संदेश दिया था। उन्होंने धर्म से ऊपर मानवता व इंसानियत को माना था। उनके संदेश व विचारों को अपनाने की जरूरत है।
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