टिकारी राज नौ आना के दीवान थे देवकीनंदन खत्री...!!
लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली
भारतीय भाषाओं का पहला समृद्ध उपन्यास चंद्रकांता, जिसने बिहार से निकलकर हिंदी की किस्मत बुलंद कर दी। देवकीनंदन खत्री ने यूपी के चुनार गढ़, चकिया और नौगढ़ से लेकर बिहार के कैमूर और बराबर की पहाड़ियों तक तिलिस्म, अय्यारी, चमत्कार और जालसाज हरकतों का ऐसा जाल बुना कि अन्य भाषाओं के लोग भी चंद्रकांता पढ़ने के लिए हिंदी भाषा की ओर मुखातिब होने लगे। पिछले सवा सौ साल के दौरान शायद ही कोई ऐसा साक्षर या निरक्षर व्यक्ति होगा, जिसने चंद्रकांता को पढ़ा, सुना या देखा नहीं होगा। वर्ष 1888 में चंद्रकांता का प्रकाशन काशी के हरि प्रकाश प्रेस में हुआ था। देवकीनंदन के दिमाग में चंद्रकांता का प्लॉट उस वक्त आया, जब वह बिहार के टिकारी स्टेट में दीवान हुआ करते थे। उनकी युवावस्था टिकारी में बीती थी। लेखक युवावस्था में ही उसकी रचना में इतनी रवानी, शिल्प-शैली इतनी सहज, पात्र इतने सजीव, बुनावट इतनी जटिल और कल्पना का फलक इतना विराट है कि चंद्रकांता के मुकाबले की रचना हिंदी साहित्य में अभी तक असंभव है। वह हिंदी के पहले तिलिस्मी लेखक थे। दो-दो स्टेट के राजाओं से नजदीकी रिश्ते और राजमहलों से बावस्ता होने के चलते उनके उपन्यास में दरवाजों, झरोखों, खिड़कियों, सुरंगों और सीढ़ियों में भी रहस्य-रोमांच की दास्तान है। सुनसान अंधेरी और खौफनाक रातों में मठों-मंदिरों के खंडहरों का ऐसा वर्णन है कि शब्द-शब्द में रफ्तार है।
‘बाबू देवकीनंदन खत्री’ का जन्म, शिक्षा और पारिवारिक जीवन
हिंदी के विख्यात लेखक बाबू देवकीनंदन खत्री हिंदी के प्रथम तिलिस्मी लेखक थे। इनका जन्म 18 जून 1861 दिन शनिवार को पूसा, मुजफ्फ़रपुर, बिहार में हुआ था। इनके पिता का नाम लाला ईश्वर दास था। बाद में उनका पूरा परिवार काशी के लाहौरी टोला मुहल्ले (अब काशी धाम में विलीन) में आकर बस गया। इनके पूर्वज मुल्तान के निवासी थे तथा मुग़लों के राज्यकाल में ऊँचे पदों पर कार्य करते थे। पंजाब के महाराज रणजीत सिंह के पुत्र शेरसिंह के शासनकाल में लाला ईश्वर दास काशी में आकर बस गये थे। देवकीनंदन खत्री की प्रारंभिक शिक्षा अपने ननिहाल मालीनगर में हुई थी। लेखक देवकीनंदन खत्री जी का जन्म समस्तीपुर के कल्याणपुर स्थित मालीनगर में हुआ था। यही वे जन्म लिए व यही उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई थी। बाद में इन्होंने काशी में संस्कृत,हिन्दी एवं अंग्रेजी का भी अध्ययन किया। देवकीनंदन खत्री अपने माँ-बाप के इकलौते पुत्र थे। देवकी बाबू की मां गोविंदी जीवनलाल मेहता की बेटी थीं। उनके पिता लाला ईश्वरदास ससुराल मालीनगर में ही रहते थे। यहीं देवकी बाबू जन्मे और पले-बढ़े। इसी से इनके बाल्यकाल और किशोरावस्था के अधिसंख्य दिन रईस परिवेश में बिता था। देवकीनंदन खत्री के नाना-नानी का निवास स्थान मुजफ्फरपुर में था। इनके नाना और पिता के पुस्तैनी कारोबार हाथी के हौंदा बनाने का था। देवकीनंदन खत्री का विवाह मुजफ्फरपुर में हुआ था।
टिकारी राज नौ आना के दीवान थे देवकीनंदन खत्री
अम्बिका शरण सिंह उर्फ़ बाबु साहेब, चिकना स्टेट, मुजफ्फरपुर के रहने वाले थे। इनकी शादी टिकारी राज के नौ आना के एक मात्र राजकुमारी राधेश्वरी कुंवर उर्फ़ किशोरी मैईंयाँ से हुयी थी। विवाह के बाद अम्बिका शरण सिंह टिकारी में ही रहने लगे थे। इसी कारण मुजफ्फरपुर के देवकी नंदन खत्री के ननिहाल वालों का टिकारी राज में व्यवसाय फैला हुआ था। इन लोगों का अम्बिका शरण सिंह से अच्छी मित्रता थी। टिकारी में उनकी पैतृक व्यापारिक कोठी भी थी। टिकारी के राजदरबार में उनलोगों की काफी प्रतिष्ठा थी।
देवकीनंदन खत्री अपने पिता की अनिच्छावश शुरू में नहीं पढ़ सके थे, बाद में अपनी पढाई पूरी करने के बाद 18 वर्ष की अवस्था में गया स्थित टिकारी राज पहुंच गए और यहां टिकारी राज नौ आना में दीवान पद पर नौकरी कर ली। उन्होंने कुछ वर्ष तक टिकारी राज के दीवान पद को सुशोभित करते रहें। उस समय टिकारी राज को देखभाल करनेवाला मुख्य अधिकारी या मैनेजर को दीवान कहा जाता था।
महारानी राजरूप कुंवर के शासन काल में खत्री जी टिकारी राज नौ आना के दीवान नियुक्त हुए थे, राजरूप कुंवर की मृत्यु 01-10-1884 को हो गयी थी। उनके मृत्यु के बाद उनकी एकमात्र संतान लड़की राधेश्वरी कुंवर उर्फ़ किशोरी मईंयां टिकारी राज की महारानी बनी थी, उनका भी कार्यकाल बहुत ही कम अवधि का था।
देवकीनंदन खत्री का टिकारी राज नौ आना के दीवान पद का कार्यकाल करीब 5 वर्ष का रहा। इस दौरान वह अपने छोटे से कार्यकाल में राज का प्रबंधन बहुत ही कुशलता से किये और राज के राजस्व वृद्धि करने के साथ साथ राज के विकास में ज्यादातर समय दिया।
सन 1885 में राजा गोपाल शरण सिंह के नवालिग़ रहने के कारण टिकारी राज ब्रिटिश राज के सरकारी प्रबंधन में चले जाने के बाद दीवान पद स्वतः समाप्त हो गया था और अपने पिताजी असमय मृत्यु हो जाने के बाद खत्री जी ने टिकारी राज के दीवान पद से स्वेच्छा से त्यागपत्र दे कर वाराणसी चले गए।
देवकीनन्दन खत्री पतंगबाजी और शतरंज के बेहद शौकीन थे
देवकीनन्दन खत्री स्वभाव से मस्तमौला, यारबाज किस्म के आदमी और शक्ति के उपासक थे, सैर-सपाटे, पतंगबाजी और शतरंज के बेहद शौकीन, बीहड़ जंगलों, पहाड़ियों और प्राचीन खँडहरों से गहरा, आत्मीय लगाव रखनेवाले. विचित्रता और रोमांचप्रेमी. अद्भुत स्मरण शक्ति और उर्वर, कल्पनाशील मस्तिष्क के धनी थे।
टिकारी राज में रहने दौरान यहाँ के किला के तिलिस्म बनावट, सुरंग, पंडुई राज के तिलिस्म निर्माण का प्रभाव उनके मस्तिष्क पर छा गया और यहीं से उनके दिमाग में किला के रहस्यमयी दुनिया पर कुछ न कुछ लिखा जाने लगा। उनके मस्तिष्क में चन्द्रकांता संतति की नीव टिकारी राज में पड़ी। उनके पुस्तक कुसुम कुमारी में टिकारी किला और पंडुई राज के किला रहस्यमय बनावट पर चर्चा है।
देवकीनन्दन खत्री जी का काशी नरेश ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह से बहुत अच्छा सम्बंध था। काशी नरेश भी अपने बहनोई टिकारी राज नौ सात आना के राजा मोद नारायण सिंह जी को बहुत मानते थे। टिकारी राज के दीवान पद पर कार्य करने के अनुभव से खत्री जी को चकिया, नौ गढ़, उत्तर प्रदेश के जंगलों के ठेके काशी नरेश से मिल गए।
वे बचपन से ही सैर-सपाटे के बहुत शौकीन थे। इस ठेकेदारी के काम से उन्हे पर्याप्त आय होने के साथ ही साथ उनका सैर-सपाटे का शौक भी पूरा होता रहा। वे अपने मित्रों के साथ लगातार कई-कई दिनों तक चकिया एवं नौगढ़ के बीहड़ जंगलों, पहाड़ियों और प्राचीन ऐतिहासिक इमारतों के खंडहरों की खाक छानते एवं आनंद लेते रहते थे। इस संयोग-सुलभ वातावरण ने उनके भावुक मन को रहस्यमयी रंगीन कल्पनाओं से रंग दिया।
देवकीनंदन खत्री ने हिंदी का किया प्रचार-प्रसार
बाबू देवकीनंदन खत्री ने जब लेखन की शुरुआत की उस दौरान उर्दू भाषा का प्रचलन बहुत अधिक था। इस परिस्थिति में उन्होंने ऐसी रचना करने के बारे में सोचा जिससे देवनागरी हिंदी का प्रचार-प्रसार हो सके। बता दें कि उनका प्रथम उपन्यास ‘चंद्रकांता’ इतना लोकप्रिय हुआ जिसके कारण वह रातों-रात मशहूर हो गए। वहीं इस उपन्यास को पढ़ने के लिए साहित्य प्रेमियों में एक होड़ सी मच गई और गैर हिंदी भाषी लोगों को भी इस रचना को पढ़ने के लिए हिंदी भाषा सीखनी पड़ी।
‘चंद्रकांता’ ने बनाया देवकीनंदन खत्री को लोकप्रिय
बाबू देवकीनंदन खत्री को घूमने-फिरने का शौक बचपन से ही था। इसलिए उन्होंने किशोरवस्था में ही भारत की कई रियासतों, जागीरों, प्राचीन गढ़ों व किलों में घूमने का भी अवसर मिला। यहीं से उनके मन में रोमांच और रहस्य से भरा उपन्यास लिखने का विचार आया। जिसके बाद उन्होंने ‘चंद्रकांता’ उपन्यास की रचना की जिसका प्रकाशन वर्ष 1888 में हुआ।
भारतीय भाषाओं का पहला समृद्ध उपन्यास चंद्रकांता, जिसने बिहार से निकलकर हिंदी की किस्मत बुलंद कर दी। देवकीनंदन खत्री ने उत्त,र प्रदेश के चुनार गढ़, चकिया और नौगढ़ से लेकर बिहार के कैमूर और बराबर की पहाडिय़ों तक तिलिस्म, अय्यारी, चमत्कार और जालसाज हरकतों का ऐसा जाल बुना कि अन्य भाषाओं के लोग भी चंद्रकांता पढऩे के लिए हिंदी भाषा की ओर मुखातिब होने लगे। पिछले सवा सौ साल के दौरान शायद ही कोई ऐसा साक्षर या निरक्षर व्यक्ति होगा, जिसने चंद्रकांता को पढ़ा, सुना या देखा नहीं होगा।
देवकीनंदन खत्री हिंदी के पहले तिलिस्मी लेखक थे
देवकीनंदन खत्री हिंदी के पहले तिलिस्मी लेखक थे। दो-दो स्टेट के राजाओं से नजदीकी रिश्ते और राजमहलों से बावस्ता होने के चलते उनके उपन्यास में दरवाजों, झरोखों, खिड़कियों, सुरंगों और सीढिय़ों में भी रहस्य-रोमांच की दास्तान है। सुनसान अंधेरी और खौफनाक रातों में मठों-मंदिरों के खंडहरों का ऐसा वर्णन है कि शब्द-शब्द में रफ्तार है। राजकुमारों और महारानियों के बीच प्यार-तकरार, न्याय-नीति और जालसाजी, सबकुछ सच और सजीव लगता है। प्रत्येक घटना स्थलों की बनावट, सजावट और दिखावट स्मरण में बस जाने वाली हैं।
आसान नहीं था हिंदी भाषा का प्रचार-प्रसार
देवकीनंदन के जमाने में हिंदुस्तान में सिर्फ छह फीसद लोग ही साक्षर थे। तब उर्दू की तरह हिंदी का विकास भी नहीं हो पाया था। यह 19वीं सदी का आखिरी दशक का दौर था। कोर्ट-कचहरियों में उर्दू-फारसी का बोलबाला था। लिहाजा उनका मकसद अपनी रचनाओं के जरिए देवनागरी लिपि के साथ-साथ हिंदी भाषा का प्रचार-प्रसार करना था। यह आसान भी नहीं था। किंतु उन्होंने कर दिखाया। तिलिस्म और अय्यारी जैसे शब्दों को हिंदी में भी जगह दी।
चंद्रकांता पढ़ने के लिए लोगों ने सीखी हिंदी
चंद्रकांता इतना लोकप्रिय हो गया कि उसके तथ्य-कथ्य, भाषा प्रवाह और शिल्प-शैली पर बुद्धिजीवियों के बीच बहस होने लगी। जो हिंदी नहीं जानते थे, उन्हें भी लगा कि आखिर क्या है चंद्रकांता में। लोगों ने उसे पढऩे के लिए हिंदी सीखनी शुरू कर दी।
टिकारी में तैयार हुआ था चंद्रकांता का प्लॉट
चंद्रकांता का प्लॉट देवकीनंदन के दिमाग में टिकारी प्रवास के दौरान ही आ गया था। देवकीनंदन की मां पूसा के रईस जीवनलाल मेहता की बेटी थीं। उनका बचपन पूसा में बीता था। टिकारी राज में उनके नाना का हाथी का हौदा बनाने और लकड़ी का पुश्तैनी कारोबार था। उनके नाना की महाराजा गोपाल शरण सिंह के पिता राजा अंबिका शरण सिंह से अच्छी दोस्ती थी। राजदरबार में प्रतिष्ठा भी। लिहाजा, देवकीनंदन 18 साल की उम्र में ही टिकारी आ गए थे, जहां बाद में दीवान नियुक्त हो गए।
देवकीनंदन ने टिकारी के बाद काशी को बनाया अपना ठिकाना
1886 में टिकारी का साथ तब छूटा जब गया के तत्कालीन जिलाधिकारी जॉर्ज ग्रियर्सन ने टिकारी राज को अपने अधिकार में लेकर कोर्ट ऑफ वार्ड घोषित कर दिया। इससे दीवान का पद स्वत: समाप्त हो गया। तब देवकीनंदन का ठिकाना काशी हो गया, जहां चंद्रकांता का अधिकांश भाग लिखा गया और प्रकाशन हुआ। खत्री ने अपने एक अन्य उपन्यास कुसुम कुमारी में भी जहानाबाद के पंडुई राज और टिकारी की चर्चा की है।
देवकीनंदन खत्री ने लहरी प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की
अपनी शिक्षा के बाद बाबू देवकीनंदन खत्री ने शुरूआती दौर में कई पेशे इख़्तियार किए और फिर वाराणसी में लहरी प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की। वहीं वर्ष 1883 में हिंदी मासिक ‘सुर्दशन’ का संपादन किया। बीसवीं सदी की शुरुआत में देवकी नंदन खत्री और उनके पुत्र दुर्गा प्रसाद की कई रचनाओं को 'लहरी' प्रेस से दुबारा प्रकाशित किया गया। इन्होने अपनी कलम से चंद्रकांता, चंद्रकांता संतति, काजर की कोठरी, नरेंद्र-मोहिनी, कुसुम कुमारी, वीरेंद्र वीर, भूतनाथ जैसी कई ऐतिहासिक रचनाएं की।
साहित्य जगत के सितारा बाबू देवकीनंदन का निधन
बाबू देवकीनंदन खत्री ने दशकों तक हिंदी साहित्य जगत में कई अनुपम रचनाओं का सृजन किया। वहीं 01 अगस्त 1913 को उनका निधन हो गया। किंतु साहित्य जगत में उनकी लोकप्रिय रचनाओं के लिए उन्हें हमेशा याद किया जाता हैं।
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