वर्तमान में मताधिकार के प्रति लोगों में उदासीनता क्यों है...!!

लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली

18वीं लोकसभा चुनाव में करीब 34 फीसद मतदाताओं द्वारा भाग नहीं लिया जाना, लोकतंत्र के इस पर्व पर कई प्रश्न खड़ा करते हैं। निर्वाचन आयोग के आंकड़े देखने से यह स्पष्ट हो रहा है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से अभी तक देश में हुए 18 लोकसभा चुनावों में न्यूनतम 46 एवं अधिकतम 67 फीसद मतदाताओं ने ही भाग लिया है। इस बार कुल 97 करोड़ मतदाताओं की कुल संख्या के विरुद्ध 65.79 फीसद मतदाताओं द्वारा मतदान किया गया है, जो पिछले लोकसभा चुनाव से दो फीसदी कम है। देश लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के पालन में दीर्घ यात्रा के दौर से गुजर जा है, लेकिन औसत रूप से एक-तिहाई मतदाताओं का हिस्सा, जो मतदान दायित्व से विमुख है, वह निश्चय ही राष्ट्रीय चिंता और विश्लेषण का विषय है। संसदीय प्रणाली में लोकसभा सदस्यों के चयन में इस अंश के मौन मलीनता से यह सहज रूप में समझा जा सकता है कि जो भी केंद्र सरकार आजादी के बाद देश में गठित हुई है, उसमें वोट का आशिक बहुमत ही परोक्ष रूप में परिलक्षित हो रहा है। वर्ष 1951-52 के चुनाव के बाद के मतदान के आंकड़े गवाह हैं कि मतदान के प्रतिशत बढ़ने या घटने से यह आवश्यक नहीं है कि सत्तारूढ़ दल की विजय हुई है या पराजय अर्थात, इसके आधार पर मतदाताओं की सोच और उनके चिंतन की गहराई में छिपे भाव को जानना सरल नहीं है। व्याप्त उदासीनता घोर विस्मय की स्थिति में करवट ले रहा है कि जब युवा और शिक्षित मतदाताओं की संख्या में वृद्धि हो रही है, तो उनका मतदान केंद्र तक नहीं जाने के पीछे कौन सी विकट स्थिति है। एक सर्वेक्षण की रिपोर्ट है कि नगरीय संस्कृति में समाहित मुखर और बुद्धिजीवी मतदाता मतदान में अपनी भागीदारी शिथिल किए हुए हैं। यह भी तथ्य सामने है कि महानगरों एवं बड़े शहरों में मतदान का प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों से बहुत कम है। प्रायः कुछ मतदाता मतदान करने से अपने को अलग रखते हैं यह सोचकर कि उनका वोट कोई महत्व नहीं रखता, जो कर्तव्य पलायन का दृष्टांत ही है। राजनीतिक सिद्धांत का कथन है कि मतदान के अधिकार का उपयोग नहीं करने से सक्षम प्रतिनिधि के चयन एवं सही सरकार के गठन से देश चूक जाता है। 1990 के कालखंड में इस स्थिति को देखा गया और एक दशक में देश को पांच लोकसभा के चुनाव के घोर जटिल दौर से गुजरना पड़ा था। चुनाव आयोग के एक विमर्श में आकलन किया गया था कि वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में करीब 25 करोड़ मतदाता अपने रोजी-रोजगार के कारण अपने निर्वाचन क्षेत्र से बाहर थे, जिसे कम मतदान का एक प्रमुख कारण माना गया था। यह आंकड़ा बता रहा है कि अमेरिका की कुल जनसंख्या से थोड़ा कम देश के प्रवासी लोगों की संख्या है, जो असंगठित क्षेत्र में नियोजित हैं। ऐसे लोगों को आर्थिक कारणों से चुनाव के समय अपने घर आकर मतदान करना दुष्कर है। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 के अनुसार जो व्यक्ति जिस इलाके का वासी है उसका नाम वहां के समीपस्थ मतदान केंद्र में अंकित रहना आवश्यक है। रोजी-रोटी के लिए पलायन करनेवाले लोगों के लिए मतदाता सूची में नाम दर्ज और विलोपित कराना एक विकट समस्या है। जब देश डिजिटल संसाधन की दुनिया में प्रगति कर रहा है तो चुनाव आयोग एक बीच का प्रावधान तय करे ताकि निर्वाचन क्षेत्र से बाहर रहनेवाले लोग चुनाव के समय वहीं मतदान कर सकें। अच्छा हो कि पूरे देश के हर जिला, अनुमंडल, प्रखंड मुख्यालय में एक ऐसा मतदान केंद्र स्थापित किया जाये, जहां प्रवासी व्यक्तियों का नाम चुनाव से पूर्व मतदाता सूची में दर्ज करते हुए उसे मतदाता पहचान पत्र निर्गत किया जाये। साथ ही साथ कई देशों में घर बैठे मतदान करने की तकनीक भी निर्वाचन आयोग को अपनाने पर विचार करना चाहिए। इससे पूरी दुनिया में देश की सबसे महंगी चुनाव पद्धति और व्यापक आधारभूत ढांचे के गठन से छुटकारा मिल सकता है। संयुक्त राष्ट्र संघ का एक प्रतिवेदन ध्यान आकृष्ट करा रहा है कि पूरे विश्व की जनसंख्या करीब आठ अरब की सीमा पार कर चुकी है, जिसमें सबसे अधिक योगदान अपने देश का है। यह भी उजागर हुआ है कि लोकसभा चुनाव के पूर्व मतदाता सूची में 18 से 29 साल की उम्र के करीब दो करोड़ से अधिक व्यक्ति पंजीकृत किये गये हैं, जिसमें महिलाओं की संख्या अधिक है और देश की कुल जनसंख्या का 66.75 फीसद अंश युवा वर्ग का है। प्रजातंत्र के प्रति विश्वास सिर्फ भावनात्मक नहीं होनी चाहिए, बल्कि इसके साथ कुछ मौलिक कर्तव्य के आयाम भी जुड़े हुए हैं, जिसमें प्रमुख है मतदान में भाग लेना। इस बार के लोकसभा चुनाव परिणाम में मतदाताओं के एक वर्ग की उदासीनता के कारण में यदि राजनीतिक व्यवस्था में हो रहे क्षरण के लक्षण दिखाई दे रहे हैं, तो उसका गहन अध्ययन करने की जरूरत है। संभव है कि इस स्थिति की पृष्ठभूमि में धनबल और बाहुबल के तिकड़मी खेल जिम्मेदार हों। क्या राजनीतिक चुनाव सिर्फ खानदानी खेत की फसल तो नहीं हो गयी है, जहां महंगे चुनाव में भाग लेना एक सामान्य आदमी सोच भी नहीं सकता है। यदि मतदाता का एक वर्ग लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अपनी आस्था और विश्वास विस्मृत कर रहा है, तो यह देश के लोकतंत्र एवं भविष्य के लिए गंभीर चिंता का प्रसंग हैं। तमाम प्रयतों के बाद भी पूरे देश में कम मतदान होना राजनीतिशास्त्र अथवा चुनाव विज्ञान से अधिक समाजशास्त्र के शोध का विषय है, जिसे सांगोपांग अन्वेषण करना चाहिए। इस संदर्भ में बुनियादी विवेचन यह भी है कि क्या भावनात्मक अतिरेक हर बार कोमल मानस पटल पर नहीं अंकित नहीं होकर सत्ताधारी दल के समर्पित सह निष्ठावान संगठनात्मक संरचना के अभाव में विपक्षी एकता शासन का विकल्प तलाश नहीं लेती है। पूरे संसार के करीब 30 देशों में अनिवार्य मतदान की व्यवस्था अपनायी गयी है। वर्ष 1892 में सर्वप्रथम इसे बेल्जियम में और उसके बाद यह प्रणाली अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में लागू किया गया था। ससंदीय लोकतंत्र की आत्मा मतदान में रसती बसती है जिससे सत्ता का स्वरूप हमारे सामने प्रकट होता है और उसके कृत्यों से, न सिर्फ वे लोग, जिन्होंने मतदान किया है, बल्कि जो मतदान नहीं किए हैं, वे भी प्रभावित होते हैं। जिस स्वतंत्रता को देश ने लाखों कुर्बानियों के बाद प्राप्त किया है, उक्त मताधिकार की ओर जब शिथिल मानसिकता हो, तो सरकार को लाभ-हानि का विवेचन करते हुए उनके लिए लघु दंड का प्रावधान सहित अनिवार्य मतदान का कानून भी बनाना चाहिए। यह भी जरूरी है कि विभिन्न विशेष अदालतों में सांसदों और विधायकों के लंबित आपराधिक मामलों का शीघ्र निबटारा हो, ताकि मतदान से मुक्त एक वर्ग के अचेतन मन में जमे भाव 'कोऊ नृप होय हमें का हानि' से स्वतंत्र हो सकें।
 
लेखक के ये अपने विचार हैं।

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