काकोरी कांड के महानायक अमर शहीद अशफाक उल्ला खां की 124 वीं जयंती पर विशेष ..!!
लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली
कर चले हम फिदा जाने तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों। ये लाइने भारत के अमर शहीदों के लिए हमेशा से समर्पित रही हैं। आज का दिन भारत के स्वतंत्रता दिवस के इतिहास में स्वर्णिम हैं, आज के ही दिन काकोरी कांड के महानायक अशफाक उल्ला खां का जन्म हुआ था।
भारत के प्रसिद्ध अमर शहीद क्रांतिकारियों में अशफाक उल्ला खां नाम भी खास तौर पर लिया जाता है। वे भारत के उन वीरों में से एक थे, जिन्होंने देश की आजादी के लिए हंसते-हंसते अपने प्राणों का बलिदान दे दिया। अशफ़ाक़ उल्ला खां बीर शहीदों में से एक बीर नाम है इनकी सहादत हम कभी नही भूल सकते। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के बीर क्रांतिकारी तथा हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे। ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक स्वतंत्रता सेनानी और हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सह-संस्थापक थे। अशफाक उल्ला खां वो क्रांतिकारी जिन्होंने अंग्रेजों की नाक के नीचे से लूटा था खजाना, महज 27 साल की उम्र में देश के लिए हंसते हुए सूली पर चढ़ गए थे।
अशफ़ाक़ उल्ला खां का जन्म और शिक्षा :
अशफ़ाक उल्ला खां का जन्म 22 अक्टूबर 1900 में उत्तरप्रदेश के शाहजहांपुर स्थित शाहिदगढ़ में मोहल्ला एमनज़ई जलालनगर में हुआ था। उनके पिता का नाम मोहम्मद शरीफ उल्ला खां और उनकी माँ का नाम मजहूरुनिशा बेगम था। उनके परिवार में लगभग सभी सरकारी नौकरी में थे। इन्हे घर में सभी प्यार से ‘अच्छू’ बुलाते थे। बचपन से ही खेलने, तैरने, घुड़सवारी करने, बंदूक से निशाना साधने और शिकार करने का शौक था। मजबूत ऊंची कद-काठी और बड़ी आंखों वाले सुन्दर गौरवर्णी आकर्षक व्यक्तित्व के धनी अशफाक रामप्रसाद बिस्मिल की ही भांति उर्दू के अच्छे शायर थे। साथ ही हिंदी और अंग्रेजी में भी कविताएं और लेख लिखते थे।
अशफ़ाक उल्ला खां क्रांतिकारी कैसे बने :
शहीद अशफाक उल्ला खां ने शाहजहांपुर के एवी रिच इंटर कॉलेज में पढ़ाई की थी। यहां उनके साथ राम प्रसाद बिस्मिल उनके सहपाठी थे। यह दोनों कॉलेज में पढ़ने के बाद आर्य समाज मंदिर में देश की आजादी की रूपरेखा तैयार करते थे। जिले का आर्य समाज मंदिर हिंदू मुस्लिम एकता की मिसाल है। इस मंदिर के पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के पिता मुरलीधर पुजारी थे। ये पुलिस विभाग में कार्यरत थे। इसी आर्य समाज मंदिर में पंडित राम प्रसाद बिस्मिल जोकि पंडित हैं और अशफाक उल्ला खां जो कट्टर मुसलमान थे। इन दोनों की दोस्ती आज भी हिंदू मुस्लिम एकता की मिसाल पेश करती है। दोनों एक ही थाली में खाना खाया करते थे। मुस्लिम होते हुए भी अशफाक उल्ला खां आर्य समाज मंदिर में अपना ज्यादा से ज्यादा समय बिताते थे। देश की आजादी के लिए इसी अर्थ में मंदिर में नई-नई योजनाएं बनाया करते थे। इन दोनों की अमर दोस्ती ने काकोरी कांड करके अंग्रेजों से लोहा लिया था।
देश में चल रहे आंदोलनों और क्रांतिकारी घटनाओं को देखते हुए वे प्रभावित हुए और अशफ़ाक उल्ला खां के मन में क्रांतिकारी का भाव जागा उसी समय उनकी मुलाकात मैनपुरी षड्यंत्र के मामले में शामिल रामप्रसाद बिस्मिल से हुई तभी से अशफ़ाक क्रांति की दुनिया में शामिल हुए। 1924 में अशफाक उल्ला खां ने समान विचारधारा वाले स्वतंत्रता सेनानियों के साथ मिलकर एक संगठन बनाया जिसका नाम हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन रखा गया। इस संगठन का उद्देश्य स्वतंत्र भारत के लिए सशस्त्र क्रांति का आयोजन करना था। अशफाक का परिवार बहुत पढ़ा लिखा नहीं था जबकि ननिहाल पक्ष के लोग उच्च शिक्षित और महत्वपूर्ण नौकरियों में थे। ननिहाल के लोगों ने 1857 की पहली स्वतंत्रता की लड़ाई में साथ नहीं दिया था तो लोगों ने गुस्से में उनकी कोठी में आग लगा दी थी जो आज भी ‘जली कोठी’ नाम से क्षेत्र में प्रसिद्ध है। वर्ष 1920 में अपने बड़े भाई रियासत उल्ला खां के सहपाठी मित्र रामप्रसाद बिस्मिल के सम्पर्क में आने के बाद अशफाक मन में भी अंग्रेजों के प्रति विद्रोह की भावना भर गई और वह अंग्रेजो को देश से भगाने के लिए युवाओं को जोड़ने लगे थे। इसी बीच बंगाल के क्रान्तिकारियों से भी सम्पक बना और एक संगठन बनाने का निर्णय लिया गया। विदेश में रह रहे लाला हरदयाल भी बिस्मिल से सम्पर्क साधे हुए थे और संगठन बनाकर उसका संविधान लिखने का निर्देश दे रहे थे।
काकोरी कांड और अशफ़ाक उल्ला खां :
अशफ़ाक उल्ला खां एतिहासिक काकोरी कांड में सहभागी रहे इसमें लगभग 10 लोग शामिल थे जिसमे अशफ़ाक उल्ला खां, रामप्रसाद बिस्मिल, राजेंद्र लाहिड़ी, रोशन सिंह, सचींद्र बख्शी आदि थे। अपने आंदोलन को बढ़ावा देने और अपनी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए हथियार और गोला-बारूद खरीदने के लिए, राम प्रसाद बिस्मिल सहित हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के क्रांतिकारियों ने 9 अगस्त, 1925 को लखनऊ के पास काकोरी में ब्रिटिश सरकार के पैसे ले जा रही ट्रेन को लूट लिया। बिस्मिल को पुलिस ने पकड़ लिया और अशफाक उल्ला खां एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे, जिनका पुलिस पता नहीं लगा पाई। इस घटना के बाद अशफ़ाक छिप गए और बिहार से बनारस गये और वहा इंजीनियरिंग कंपनी में काम करना शुरू किया। कमाए गए पैसे से उन्होंने अपने क्रांतिकारी साथियों की मदद भी की। उन्होंने 10 महीने तक इंजीनियरिंग कंपनी में काम किया था। अशफ़ाक को काम के संबंध बाहर (दिल्ली) जाना था तो उन्होंने अपने पठान मित्र जो की उनके सहपाठी थे उन से मदद ली और उनके मित्र ने उनके साथ छल किया उनके बारे में पुलिस को गुप्त रूप से सूचना दी जिसके बाद उनको पुलिस ने पकड़ लिया था। अशफ़ाक़ उल्ला खां को फैज़ाबाद की जिला जेल में रखा गया था। काकोरी डकैती का मुकदमा बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां और कुछ अन्य लोगों को मौत की सजा देकर समाप्त किया गया।
अशफाक उल्ला खां को ब्रिटिश सरकार ने फ़ांसी पर लटका दिया :
अशफ़ाक़ उल्ला ख़ान, काकोरी ट्रेन डकैती कांड में शामिल थे। इस कांड में शामिल होने के लिए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 19 दिसंबर, 1927 को फैजाबाद जेल में फ़ांसी पर लटका दिया था। मातृभूमि के प्रति अपने प्रेम, अपनी स्पष्ट सोच, अडिग साहस, दृढ़ता और निष्ठा के कारण यह क्रांतिकारी व्यक्ति अपने लोगों के बीच शहीद हो गये। 19 दिसंबर को शाहजहांपुर में अमर शहीद अशफाक उल्ला खां की मजार पर विशेष कार्यक्रम करके उन्हें याद किया जाता है। अशफाक ने हंसते हुए फांसी का फंदा चूमा और अपने अंतिम संदेश में कहा 'देश के लिए फांसी पर चढ़ने में मुझे बेहद गर्व है। अंग्रेजों का सूरज जरूर डूबेगा और हिन्दुस्तान आजाद होकर रहेगा'।
शहीद अशफाक उल्ला खां ने मां को लिखा था आखिरी खत :
अमर शहीद अशफाक उल्ला खां ने फांसी से पहले अपनी मां को एक खत भी लिखा था, जिसमें लिखा था कि 'ऐ दुखिया मां, मेरा वक्त बहुत करीब आ गया है, मैं फांसी के फंदे पर जाकर आपसे रुखसत हो जाऊंगा, लेकिन आप पढ़ी-लिखी मां हैं। ईश्वर ने और कुदरत ने मुझे आपकी गोद में दिया था। लोग आपको मुबारकबाद देते थे। मेरी पैदाइश पर आप लोगों से कहा करती थे कि यह अल्लाह ताला की अमानत है। अगर मैं उसकी अमानत था तो वो अब इस देश के लिए अपनी अमानत मांग रहे हैं। आपको अमानत में खयानत नहीं करनी चाहिए और इस देश को सौंप देना चाहिए।' अशफाक उल्ला खां ने फांसी से पहले एक आखरी श्येर भी कहा था, 'कुछ आरजू नहीं है, है आरजू तो ये है कि रख दे कोई जरा सी खाक-ए-वतन कफन में।'
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