भारतीय संस्कृति में नारी के प्रति सम्मान और सुरक्षा की भावना...!!

लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली
भारतीय संस्कृति में नारी के सम्मान को बहुत महत्व दिया गया है। संस्कृत में एक श्लोक है- 'यस्य पूज्यंते नार्यस्तु तत्र रमन्ते देवता:। अर्थात्, जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं। महाभारत में कहा गया है कि जिस कुल में नारियों की उपेक्षा भाव से देखा जाता है उस कुल का सर्वनाश हो जाता है। भारतीय संस्कृति में नारी को बहुत ही उत्तम स्थान प्राप्त है जबकि अन्य देशों में नारी (स्त्री) को सिर्फ भोग और विलास की सामग्री समझा जाता है किंतु हमारे भारत देश में नारी को गौरवमई कहकर कर सम्मानित किया जाता है। वेदों में प्रथम शिक्षा 'मातृ देवोभाव:' से प्रारंभ किया जाता है अर्थात माता देवताओं के समान होती है। प्रार्थना के समय भी उच्चारित किया जाने वाला शब्द माता को संबोधित करता है -'त्वमेव माता च पिता त्वमेव' अर्थात माता का स्थान पिता से भी उच्च है।
भारतीय सांस्कृतिक परंपरा का सूक्ष्मता से अवलोकन करने पर विभिन्न संदर्भों में यह एक तथ्य समान रूप से स्पष्ट होता है कि हमारे मनीषी पूर्वजों ने भारतीय पर्वों अनुष्ठानों के माध्यम से प्राणिमात्र के कल्याण के अनेक उद्देश्यों को साधने व उनसे संबंधित संदेश देने का प्रयास किया है। भारतीय पर्व कोई रूढ़ परंपरा नहीं हैं, अपितु इस राष्ट्र और समाज को समय-दर-समय उसके विभिन्न कर्त्तव्यों के प्रति सजग कराने वाले जीवंत संदेश हैं। नवरात्र भी इस विषय में अपवाद नहीं है।
यद्यपि कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी नवरात्र के संदर्भ में ऐसा कहते-लिखते दिख जाते हैं कि एक तरफ स्त्रियों से बलात्कार हो रहे और दूसरी तरफ कन्या-पूजन का दिखावा किया जा रहा। परंतु, इस बात के पीछे केवल लच्छेदार भाषा ही नजर आती है, कोई ठोस तर्क नहीं दिखाई देता। क्योंकि यदि आज स्त्रियों के प्रति अपराध बढ़ रहे हैं, तब तो नवरात्र की प्रासंगिकता और अधिक बढ़ जाती है। कारण कि शक्ति की आराधना का यह उत्सव, स्त्री के सम्मान और सुरक्षा की भावना का व्यापक अर्थों में संयोजन किए हुए है।
दरअसल, भारतीय संस्कृति सदैव से नारी के सम्मान और सुरक्षा की भावना से पुष्ट रही है। हमारे पौराणिक एवं महाकाव्यात्मक इतिहास के ग्रंथों में ऐसे अनेक प्रसंग एवं उदाहरण उपस्थित हैं, जिनसे इसकी पुष्टि होती है। एक प्रमुख उदाहरण यह है कि हमारे पुराण, सृष्टि की आद्योपांत संपूर्ण व्यवस्था का संचालन करने वाले त्रिदेवों की महत्ता का प्रतिपादन करते हैं, परंतु, साथ ही यह भी बताते हैं कि अपनी शक्तियों के बिना त्रिदेव कुछ भी करने में असमर्थ हैं। इन्हीं त्रिदेवों की शक्तियां असुरों के विनाश के लिए विभिन्न रूप धारण करती हैं, और उन्हीं रूपों की पूजा का अवसर नवरात्र होता है। शक्ति के उन रूपों की कल्पना कन्याओं में की जाती है, क्योंकि भारतीय परंपरा में नारी को देवी माना गया है। इस पृष्ठभूमि के बाद क्या अलग से यह बताने की आवश्यकता रह जाती है कि भारतीय परंपरा में नारी के स्थान और सम्मान को लेकर कैसी दृष्टि रही है। हमारे देश में अनुसूया, अरुंधती, गार्गी जैसी एक से बढ़कर एक तेजस्विनी और विद्वान नारियों की भी परंपरा रही है। लेकिन प्रश्न यह है कि आज क्यों समाज में नारियों के प्रति अपराध बढ़ रहे हैं? ऐसा क्या हो गया कि कन्याओं का पूजन करने वाले समाज में लड़कियों के साथ अमानवीयता की घटनाएं दिखाई-सुनाई देने लगी हैं?
विचार करें तो यह स्थिति केवल आज के काल की ही नहीं है, अपितु हर काल में बहुसंख्यक अच्छे लोगों के कुछ दुष्ट तत्व भी सक्रिय रहे हैं, जो नारी को अपना शिकार बनाते रहे हैं। प्राचीन कथाओं में भी ऐसे प्रसंग मिलते हैं कि असुर किस प्रकार स्त्रियों का अपहरण कर लेते थे, उनके साथ दुष्कर्म करते थे। यहां तक कि देवी द्वारा जिन असुरों का विनाश किया गया है, वे भी देवी के प्रति ऐसी ही कुत्सित भावना रखते थे। ऐसे में आज यदि नारी के प्रति अपराध बढ़ रहा है, तो इसका हर मोर्चे पर प्रतिकार करने की आवश्यकता है। कानूनी कठोरता एक मोर्चा है, लेकिन इससे पूरी तरह से इस अपराध को रोका नहीं जा सकता। अन्य मोर्चों पर भी काम करने की आवश्यकता है।
आज आवश्यक है कि हर नारी भीतर से देवी दुर्गा बने। जो सामान्यतः तो शांत रहती हैं, और अपने भक्त जनों के प्रति मातृभाव रखती हैं, परंतु यदि कोई दुष्ट आ जाता है, तो उसका विनाश करने में भी सक्षम हैं। आज उसी प्रकार नारी को आत्मरक्षा के लिए तन और मन, दोनों से तैयार होना होगा। यह समय देवी दुर्गा को पूजने के साथ-साथ आत्मसात करने का भी है। इसके लिए आवश्यक साहस और दृढ़ता जैसे गुण तो स्त्रियों में हैं ही और जिन क्षेत्रों में भी अवसर मिला है, स्त्रियां इन गुणों को सिद्ध भी कर रही हैं परंतु, अपने दैनिक जीवन में भी हर स्त्री को ये गुण अपनाने चाहिए। यह ठीक है कि स्त्री की श्रृंगार-केंद्रित छवि रही है, लेकिन श्रृंगार के साथ-साथ उन्हें शौर्य को भी धारण करना होगा। शौर्य और श्रृंगार कोई विरोधी तत्व नहीं है कि एक साथ न साधे सकते हों। देवी दुर्गा का रूप शौर्य और श्रृंगार से समन्वित ही होता है। नारी को भी इस दिशा में बढ़ना चाहिए क्योंकि समय की मांग यही है, शक्ति की आराधना का सर्वश्रेष्ठ मार्ग भी यही है। सरकार भी स्त्रियों को आत्मरक्षा के लिए तैयार करने के लिए राष्ट्रव्यापी अभियान आरंभ करे जिससे कि स्त्री के भीतर उपस्थित शक्ति को जागृत किया जा सके।
हर 'शक्ति' के अतिरिक्त देवी का एक 'मां' का भी रूप होता है। इस रूप में नारी अपनी संतान में संस्कार के ऐसे बीज यदि रोप सकें कि संसार का हर प्राणी सम्माननीय है, तो स्त्रियों के सम्मान और सुरक्षा से जुड़ी समस्याओं का शायद पूर्णतः समाधान हो सकता है। ये अपेक्षाएं स्त्रियों से इसलिए हैं क्योंकि वे ही 'शक्ति' की प्रतीक हैं। उनके बिना न केवल पुरुष अपितु पूरा समाज शक्तिहीन है। अतः समाज में जो विकृतियां हैं, उनका शमन करने के लिए उनके जुटे बिना बात नहीं बनेगी। यह देश अनेक वीरांगनाओं से भरा रहा है। उनकी प्रेरणा और संकल्पों ने परिवार और समाज को समय-समय पर ऊर्जा प्रदान की है। वर्तमान समय की भी उनसे कुछ यही अपेक्षा है। रहे पुरुष तो वे इतना ही संकल्प ले लें कि नवरात्र में जिस आदर-भाव से कन्याओं का पूजन करते हैं, वो भाव वर्ष भर हर स्त्री के प्रति मन में बनाए रखेंगे। स्त्रियों बाकी सब अर्जित करने में समर्थ हैं, पुरुष केवल उन्हें सम्मान दें, इतना ही पर्याप्त होगा।
भारतीय संस्कृति में नारी को बहुत ही उत्तम स्थान प्राप्त है जबकि अन्य देशों में नारी (स्त्री) को सिर्फ भोग और विलास की सामग्री समझा जाता है किंतु हमारे भारत देश में नारी को गौरवमई कहकर कर सम्मानित किया जाता है। वेदों में प्रथम शिक्षा 'मातृ देवोभाव:' से प्रारंभ किया जाता है अर्थात माता देवताओं के समान होती है। प्रार्थना के समय भी उच्चारित किया जाने वाला शब्द माता को संबोधित करता है -'त्वमेव माता च पिता त्वमेव' अर्थात माता का स्थान पिता से भी उच्च है।

आधुनिक भारत में लड़का और लड़की के प्रति सोच

स्वतंत्रता के पश्चात संविधान द्वारा महिलाओं को पुरुषों के बराबर के सब अधिकार मिले। पिता की संपत्ति में हिस्सा भी जो पहले नहीं था। मताधिकार जिसके लिए पश्चिमी देशों की स्त्रियों को एक लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी थी वह संविधान के निर्माताओं ने स्वयेंव दे दिया। फिर क्यों आज भी भारत की स्त्री असुरक्षित है? सात आठ सौ वर्ष की परतंत्रता ने हमारे सामाजिक ढाँचे को एकदम बदल दिया है, उसमें अनेक कुरीतियाँ घर कर गई हैं जिन्हें तुरंत सुधाराना आवश्यक है। एक बात समझना बहुत आवश्यक है कि समाज में आई कुरीतियाँ स्वयं समाज को ही करनी पड़ती हैं। यह न सिर्फ़ समाज की ज़िम्मेदारी है, बाहरी लोगों के बस में यह काम है भी नहीं। क़ानून उसमें सहायता तो कर सकता है पर मूल प्रयास स्वयं समाज को ही करना होगा।
अपने आसपास देखकर खुश मत रहिए कि आजकल तो लड़कियाँ खूब पढ़ रही हैं, कमा रही हैं इत्यादि। ग्रामीण इलाक़ों की घूँघट में घुट रही अधपढ़, अनपढ़ महिलाओं को भी देखिए, पढ़े लिखे किन्तु पारम्परिक मध्यम वर्गीय घरों में भ्रूण हत्या के आँकड़े याद रखिए जो हमारे समाज में स्त्री की स्थिति को सही से प्रतिबिंबित करते हैं।
क्या एक सभ्य समाज के लिए यह बात शर्म करने की नहीं है कि अकेली लड़की का साँझ ढले बाहर जाना ख़तरनाक है? जिनके काम की यही माँग हो वह क्या करें? बलात्कार तो विश्व के अन्य देशों में भी होता है परन्तु हमारा इकलौता देश है जहाँ बलात्कारी की बजाय पीड़िता दण्ड पाती है। और वह भी पूरी उम्र के लिए- ‘उसकी इज़्ज़त लुट गई, अपना मुँह कैसे दिखाएगी, अपवित्र हो गई, मरने से बदतर हो गया उसका जीवन’ आदि शब्द सुनते को मिलते है। ‘शुचिता मानो कोई काँच का टुकड़ा हो। कि एक बार टूट कर बिखर जाए तो फिर जुड़ नहीं सकता।
जिसने अपराध किया उसे मुँह न दिखा पाने की चिन्ता नहीं है। दोष लड़की का है क्योंकि हमारे समाज में अपने शील की रक्षा करना लड़की का कर्तव्य है। चाहे छुरे के बल पर बलात्कार किया जाये, डरा धमका कर अथवा 4-5 गुण्डों द्वारा - समाज दण्डित लड़की को करता है।
इन्हीं कारणों के चलते लड़की को बजाय अपराध दर्ज कराने के अपना मुँह सिल कर रखने की सलाह दी जाती है। इसलिए जितने अपराध होते हैं उसका बहुत छोटा अंश रिपोर्ट किए जाते हैं। और यह बात बलात्कारी भी जानता है। अनेक बलात्कार तो घर की चारदीवारी के भीतर अपने ही सम्बन्धियों द्वारा होते हैं जिनका रिपोर्ट करने का सवाल ही नहीं उठता क्योंकि एक पुरुष की इज़्ज़त लड़की से कहीं गुना बढ़कर है।
भारतीय सोच में बेटा ही वंश चलाने वाला होता है और मृत्यु होने पर वह पिण्ड दान नहीं करेगा तो मोक्ष नहीं मिलेगा अत: येन केन बेटा प्राप्त करना आवश्यक है। लडकी को तो यूँ भी पराए घर जाना होता है सो बचपन से ही बेटे और बेटी के पालने में भेदभाव शुरू हो जाता है। अनेक बार बेटी अधिक मेधावी होने पर भी पढ़ नहीं पाती और सीमित आय वाले घरों में तो पौष्टिक खुराक में भी अन्तर रहता है। गाँव क़स्बों में, नगरों की झुग्गी झोंपड़ी में आज भी अर्ध शिक्षित स्त्रियों की भरमार है जो हर रूप में अपने पुरुषों पर आश्रित होती हैं। पर सबसे बड़ी बात यह कि लड़का छुटपन से ही जान लेता है कि उसका दर्जा बहन से बड़ा है और यह भी कि घर की स्त्रियों का मुख्य काम पुरुषों की सुख सुविधा का ख़्याल रखना, उन की ज़रूरतें पूरी करना ही है। तो सबसे पहले तो अपने बेटों में यह संस्कार डालना आवश्यक कि लड़कियों की अपनी स्वतंत्र सत्ता है।

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