साहित्यिक पत्रकारिता के अनवरत साधक थे स्वर्णकिरण...!!

लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली
 
भारत विश्व के गुरु के रूप में मान्य है। यहाँ विश्व के कोने-कोने से लोग शिक्षा ग्रहण करने हेतु आते रहे हैं। नालंदा, उदंतपुरी, विक्रमशिला एवं तक्षशिला विश्वविद्यालय के भग्नावशेष, जो आज भी अपने सुंदर इतिहास की कहानी दुहरा रहे है। वैसे भी भारत, खासकर इसका एक राज्य, बिहार शुरू से ही एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है, जहाँ अभूतपूर्व-व्यक्तित्व के लोग हुए हैं। ऐसे विद्वान् अब तक कम ही अन्य प्रदेशों में देखने को मिले है। भगवान् के अवतारों में बुद्ध और महावीर, साहित्य में बेनीपुरी, जानकी वल्लभ शास्त्री, हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि विद्वानों का जन्म यहीं हुआ है। यही नहीं, भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद, का जन्म भी यहीं हुआ। इसी तरह से अन्य क्षेत्र जैसे वैज्ञानिक इंजीनियरिंग आदि क्षेत्रों में भी, कई बहुमूल्य व्यक्तित्व के लोग भी यहीं हुए हैं, जो आज विश्व को आलोकित किए हुए हैं वहीं डॉ० स्वर्णकिरण जी की 'रचना संसार' को देखते हुए हमें भी गर्व के साथ यह कह सकते हैं कि इन्होंने भी अपनी रचना से देश-विदेश के कोने को आलोकित किया है।

 डॉ० स्वर्णकिरण का जन्म, शिक्षा-दीक्षा एवं पारिवारिक जीवन :
 डॉ० स्वर्णकिरण का मूल नाम गोपाल जी था। उनका साहित्यिक नाम डॉ० स्वर्णकिरण था। इनका जन्म 16 मार्च 1934 को आरा के समीप ग्राम मखदूमपुर डुमरा में हुआ था। इनके पिता का नाम स्व. राम भवन और माता का नाम स्व. रामेश्वरी देवी था। लेकिन पालन-पोषण मामा महावीर प्रसाद के यहाँ हुआ था। 
डॉ० स्वर्णकिरण के मामा शिक्षक महावीर प्रसाद निः संतान थे, उन्होंने ही उनका लालन-पालन पुत्र के समान किया था और उन्होंने ही उनका नाम गोपालजी रखा था। डॉ० स्वर्णकिरण का विवाह 25 मई 1950 को श्रीयुत लक्ष्मण दास की सुपुत्री मिथिलेश कुमारी के साथ हुआ था। स्वर्णकिरण जी 1957 में पटना विश्वविद्यालय से हिंदी में एम० ए० किया और फिर इसी वर्ष नवम्बर 1957 में ही हर प्रसाद दास जैन कॉलेज, आरा में हिंदी विभाग में प्राध्यापक बने अस्थाई रूप में। लेकिन स्थाई रूप में किसान कॉलेज सोहसराय-नालंदा के हिंदी विभाग में प्राध्यापक पद पर इन्होंने 19.11.1961 को कार्यभार संभाला था। 

 नालंदा के प्रतिष्ठित साहित्यकार :
डॉ० स्वर्णकिरण हिंदी साहित्य के जाने-माने हस्ताक्षरों में एक थे। इन्होंने हिंदी, भोजपुरी और मगही में समान रूप से लेखन कार्य किया है। इन्होंने प्रबंध काव्य, नाटक, गीत निबंध, शोध, कहानी, आलोचना, लोक साहित्य के क्षेत्रों में अपनी लेखनी चलायी है। इनकी ख्याती साहित्य सेवक, संपादक, समीक्षक, कवि, पत्रकार, निबंधकार, नाटककार, अनुवादक, कहानीकार, शोधकार इत्यादि के साथ साथ कर्मयोगी के रूप में हैं। एक जाने-माने नालंदा के प्रतिष्ठित साहित्यकार, कवि और एक महान समाजसेवी के रुप में डॉ० गोपालजी ‘स्वर्णकिरण’ किसी परिचय के मोहताज नहीं थे। नालंदा जिला का बुद्धिजीवी, साहित्यकार और सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता इनके व्यक्तित्व से हमेशा प्रभावित रहे। स्वर्णकिरण जी अपने हँसमुख व्यक्तित्व और माधुर्यपूर्ण वाक्य-चातुर्य से लोगों के मन में गहरी छाप छोड़ देते थे। हिंदी साहित्य के महान गौरवशाली स्तंभ डॉ स्वर्णकिरण जी अपने  साहित्यिक एवं सामाजिक कार्यों में पुरे देश में खूब नाम कमाया। उनके ह्रदय में एक साहित्यकार का प्रेम और परोपकार की भावना भरी हुई थी। यही कारण है कि इनकी सहजता, सरलता, व्यवहार-कुशलता पर सामान्य जनों के अतिरिक्त विद्वान साहित्यकार और साहित्यानुरागी भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहते थे। नालंदा में या जिले के बाहर किसी प्रकार का साहित्यिक आयोजन हो, उसमें स्वर्णकिरण जी अवश्य उपस्थित रहते थे। वे पूरा जीवन गरीब, लाचार व समाज के वंचित छात्रों के प्रति सदैव समर्पित रहे।

 डॉ० स्वर्णकिरण एक बहुआयामी व्यक्तित्व :
 डॉ० स्वर्णकिरण एक बहुआयामी व्यक्तित्व के कवि और लेखक थे। उनका जीवन ही संघर्ष की उपज है। उन्होंने दर्जनों कविता संग्रह, प्रबंध काव्य, खंड काव्य तथा अनेकों गीत संग्रहों की रचना की। उन्होंने लघुकथाओं के दर्जनों पुस्तक लिखे हैं। उनका सारा जीवन साहित्य साधना में बीता। डॉ० स्वर्णकिरण हिंदी, भोजपुरी और मगही साहित्याकाश के जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं। ये एक प्रतिभावान एवं धुनी साहित्यकार, बहुभाषाविद तथा शोधी विद्वान थे। 

डॉ०स्वर्णकिरण हिंदी साहित्य के जाने-माने हस्ताक्षर :
डॉ०स्वर्णकिरण हिंदी साहित्य के जाने-माने हस्ताक्षरों में एक उज्वल नक्षत्र हैं तथा एक प्रतिष्ठित धरोहर हैं। इन्होंने हिंदी, भोजपुरी और मगही में समान रूप से लेखन कार्य किया है। डॉ०स्वर्णकिरण जी प्रबंध काव्य, नाटक, गीत, निबंध, शोध, कहानी, आलोचना, लोक साहित्य के क्षेत्रों में अपनी लेखनी चलायी है।

राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त साहित्य सेवक डॉ० स्वर्णकिरण : 
राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त डॉ० स्वर्णकिरण की ख्याति साहित्य सेवक, संपादक, समीक्षक, कवि, पत्रकार, निबंधकार, नाटककार, अनुवादक, कहानीकार, शोधकार इत्यादि के साथ-साथ कर्मयोगी के रूप में है। ये आरा में जन्मे, पटना में उच्च शिक्षा ग्रहण की और नालंदा में अपना मुख्य शैक्षणिक कर्मक्षेत्र बनाया। स्वर्णकिरण जी सादा जीवन उच्च विचार, सादगी, सच्चाई, ईमानदारी और मेहनत के साथ साथ प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। इन्होंने कठिनाई का जीवन जीकर गरीबों, असहायों, पीड़ितों और अनछुए पहलुओं पर अपनी लेखनी चलायी। 

साहित्यिक पत्रकारिता के एक अनवरत साधक डॉ० स्वर्णकिरण :
डॉ०गोपालजी 'स्वर्णकिरण' व्यावसायिक पत्रकारिता के युग में साहित्यिक पत्रकारिता के एक अनवरत साधक थे। बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी डॉ० स्वर्णकिरण जी ने कविकर्म तथा साहित्यसेवा के अलावा पत्रकारिता भी जमकर की। उन्होंने अपने जीवन में लगभग एक सौ पचास पुस्तकों की रचना की। इस सदी के महान साहित्यकार मूर्धन्य विद्वान डॉ० स्वर्णकिरण आज के बढ़ते विज्ञान के युग में साहित्य के प्रति छात्रों की लगातार घट रही रूचि को बढ़ाने के लिए साहित्य व साहित्यकार, प्रख्यात् मूर्धन्य कवि थे। 
 
 दर्जनों उपाधियों से कई पारखी संस्थाओं द्वारा सम्मानित : 
छात्र जीवन से ही उन्हें अनेक प्रतियोगिताओं में सफलता मिल चुकी थी। जिनमें विद्यालयीय एवं स्थानीय पुरस्कारों के अतिरिक्त 'बौद्ध धर्म के विकास में बिहार का योगदान' शीर्षक निबंध पर राष्ट्रभाषा परिषद् द्वारा सन् 1957 में पुरस्कृत किया जाना उल्लेख्य है। अध्यापन आजीविका हेतु उपलब्ध होने के बाद भी यह हिंदी की पत्रकारिता से भी जुड़े रहे किसी के संपादक मंडल में तो किसी के संयुक्त संपादक या उप संपादक के रूप में रहे जिनमें प्रमुख हैं :- 'गवाक्ष', 'कुर्माली', मासिक 'नागरिक', 'पाक्षिक, 'मराली' साप्ताहिक, 'सरस्वती संवाद', साप्ताहिक आदि। 'अभिनव प्रत्यक्ष' मासिक के तो नामतः उपसंपादक ही रहे है।
डॉ० स्वर्णकिरण ने अपनी रचना, राष्ट्रीय एवं मातृभाषा हिंदी के अलावे कई अन्य भाषा में भी लिखी है जैसे मगही, भोजपुरी, बज्जिका आदि में। इन्होंने अपनी विद्वत्ता का प्रभाव छोड़ा है। यही कारण है कि इनके संपादन में, कई पत्रिकाएँ निकली हैं जैसे, 'गवाक्ष' 'मासिक, 'कुर्माली', मासिक 'कोशा' मासिक नागरिक' साप्ताहिक, मराली' साप्ताहिक, 'सरस्वती संवाद' साप्ताहिक, 'अन्वेषण', 'चौरसिया भवन स्मारिका' ! 'अभिनव प्रत्यक्ष' 'चौरसिया संदेश' और 'नालंदा दर्पण' आदि। शायद ही अब तक किसी अन्य साहित्यकार ने इतनी सारी पत्रिकाओं का संपादन किया हो या कर रहा हो? सचमुच यह एक गर्व की बात है। इसके अलावा, किसी भी तरह के साहित्यिक आयोजन हो, इन्हें निमंत्रित करने पर यह जरूर ही वहाँ निस्संकोच जाते हैं। वह चाहे भारत के किसी भी महानगर, शहर या कस्बा हो। वहाँ इन्हें प्रतिष्ठा और श्रद्धा के साथ उस आयोजन में शामिल किया जाता है। एक कहावत मशहूर है,- ‘राजा की इज्जत सिर्फ उसके राज में होती है लेकिन विद्वान् की इज्जत पूरे संसार में होती है।’ इन्हीं सब कारणों से इन्हें समय-समय पर, हिंदी एवं अन्य भाषा जैसे संस्थानों से इन्हें कतिपय पुरस्कार, सम्मान प्राप्त हुए हैं। सैकड़ो साहित्य सेवा के फलस्वरूप डॉ० स्वर्णकिरण को साहित्यालंकार, साहित्यमनीषी, राष्ट्रीय गीतकार, विद्यासागर, लघुकथाचार्य, लघुकथारत्न, लघुकथा मार्तंड, साहित्य श्री, विद्यालंकार, समाजकोविद, साहित्यकला शिरोमणि, राष्ट्रभाषा आचार्य, महामहोपाध्याय, भोजपुरी शिरोमणि, साहित्यभूषण, लघुकथा महोपाध्यायाय आदि अनेक उपाधियों से विभिन्न पारखी संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया। छात्रजीवन में भी अपने निबंध प्रतियोगिता, भाषण प्रतियोगिता, कविता प्रतियोगिता में अनेकों बार पुरस्कारों से सम्मानित किये गये। कुशल अध्यापक के रूप में उन्हें मगही सम्मान, राम प्रसाद सिंह पुरस्कार, माखनलाल चतुर्वेदी लघुकथा पुरस्कार, भोजपुरी सम्मान, महेंद्र शास्त्री सम्मान, लघुपत्र पत्रिका समान से आपको विभूषित किया गया। अक्षय कुमार जैन कलाकार सम्मान, लघुकथा सम्मान, डॉ० अंबेदकर फलोशिप सम्मान, साहित्यवंद्य, राजमणि राय परंपरा सम्मान, सुरभि साहित्य सेवा सम्मान, समाजसेवा सम्मान, बाल साहित्यकार सम्मान, शांति प्रियदर्शी रचना पुरस्कार आदि प्राप्त हुए। 
 
डॉ० स्वर्णकिरण का लेखन : 
डॉ० स्वर्णकिरण ने हिन्दी, भोजपुरी, मगही आदि भाषा में कहानी, लघुकथा, कविता, हाईकू, समीक्षा, निबंध, नाटक, अनुवाद, आलोचना,  बाल साहित्य में लेखन किया। नालंदा दर्पण मासिक, सोहसराय-बिहार का सम्पादन किया।
 
डॉ० स्वर्णकिरण द्वारा नालंदा दर्पण' पत्रिका का प्रकाशन :
'नालंदा दर्पण' जिले की गौरव शाली साहित्य, सामाजिक पत्रिका है फिर भी अर्थ संग्रह की दृष्टि से कोई साथ देने को तैयार नहीं हुआ। अपने खर्च से नालंदा के कई प्रेसों में छपवाता रहा। पटना के हुंकार प्रेस, जनता प्रेस में भी छपवाया। पर पटना आने जाने में परेशानी होती थी जिसके चलते 1982 में अपने यहाँ मिथिलेश प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की। अपना प्रेस होने पर भी अच्छा छापने वाले के अभाव में पत्र मनलायक रूप नहीं ले पाया। यह पत्रिका 'वन मेन शो'  बन कर रह गया था। पत्रिका को बिहार जन संपर्क विभाग तथा डी० ए० वी० पी० भारत सरकार से भी विज्ञापन मिलता था। बाद में बिहार सरकार से कोई सहयोग नहीं मिलने के कारण 'नालंदा दर्पण' बंद हो गया।

डॉ० स्वर्णकिरण ने कई हिन्दी काव्य लिखे : -
मिटा हुआ पत्र (कविता संग्रह)-1961, कुएँ का उड़ाह (कविता संग्रह)-1961, कविताएँ स्वर्ग किरण की (कविता संग्रह)-1967, नचिकेता (खंडकाव्य)-1970, भीष्म (खंडकाव्य)-1974,सुलोचना (खंडकाव्य)-1974, मांडवी (खंडकाव्य)-1974, रत्नावली (खंडकाव्य)-1974, इन्दिरा गांधी (खंडकाव्य)-1975, निष्ठा का सुर्य पुरुष: मैं (कविता संग्रह)-1976, नालंदा की वेदना (लम्बी कविता)-1976, कथामाला (कविता संग्रह)-1977, तुलसी (खंडकाव्य)-1978, बापू (प्रबंध काव्य)-1981, विज्ञान की दुनियां (कविता संग्रह)-1981, कवींद्र रवींद्र (खंडकाव्य)-1983, गौरवगिरी महान यह कवि जी (चकल्लस काव्य), गंगा (काव्य)-1984, मेरा संसार (कविता संग्रह)-1985, कौंध रहे वे क्षण (कविता संग्रह)-1990, ईशपुत्र ईसा (प्रबंध काव्य)-1990-91, मदर टेरेसा (प्रबंध काव्य)-1993, पूर्वा की विदाई (कविता एंव गीत संग्रह)-1994, निष्ठा की सुई (कविता एंव गीत संग्रह)-1995, तलाश है (कविता एंव गीत संग्रह)-1999 प्रमुख कृतियाँ हैं।
डॉ० स्वर्णकिरण के लिखे प्रमुख कहानी / लघुकथा : -
फैसला (कहानी संग्रह)-1987, अपना पराया (लघुकथा संग्रह)-1981, ऊँची नीची सड़क (लघुकथा संग्रह)-1987, हाइफन (लघुकथा संग्रह)-1987, इलाज (लघुकथा संग्रह)-1987, संप्रेषण (लघुकथा संग्रह)-1989, आजकल (लघुकथा संग्रह)-1989, घेरा (लघुकथा संग्रह)-1990, गंगोत्री (लघुकथा संग्रह)-1990, बरगद (लघुकथा संग्रह)-1992, मोरचा (लघुकथा संग्रह)-1995, अनिला (लघुकथा संग्रह)-1996, पहचान (लघुकथा संग्रह)-1997, सरोकार (लघुकथा संग्रह)-1998 सहित दर्जनों है।

डॉ० स्वर्णकिरण के लिखे बालोपयोगी पुस्तकें : -
घर बाहर (भाग-1) कविता संग्रह-1974, घर बाहर (भाग-2) कविता संग्रह-1974, घर बाहर (भाग-3) कविता संग्रह-1975 है।
डॉ० स्वर्णकिरण के लिखे नाटक : -
विभीषण (सैद्वांतिक नाटक)-1969, सुनयना (सैद्वांतिक नाटक)-1972, संत रविदास (सैद्वांतिक नाटक)-1985 प्रमुख हैं।
डॉ० स्वर्णकिरण के लिखे हिंदी निबंध / आलोचना : -
संत रविदास और उन का काव्य-1970, प्रेमचंद का कथा-संसार-1980,

डॉ० स्वर्णकिरण के लिखे मगही पुस्तकें : -
तिनड़िड़िया (कहानी संग्रह)-1980, बिहार ग्रंथालय संघम (स्मारिका)-1988, मगही संस्कृति आउ दोसर (निबंध)-1992, जमाना के असर (लघुकथा संकलन)-1992 पुस्तकें हैं।
डॉ० स्वर्णकिरण के लिखे भोजपुरी पुस्तकें : -
चारो ओर अन्हरिया (कविता संग्रह)-1971, ले के ई लुकार हाथन में (कविता संग्रह)-1975, धरती फट गेलइ हे (कविता संग्रह)-1975, सुजाता (खंडकाव्य)-1986, धरती के पाती तथागत के नाम (खंडकाव्य)-1986, शेरशाह (खंडकाव्य)-1988, जीवक (खंडकाव्य)-1989, मुआर (कविता संग्रह)-1989, तिनपतिया (कहानी संग्रह)-1989, चहर दिवारी (कहानी संग्रह)-1989, भोजपुरी संस्कृति आ दोसर (निबंध संग्रह)-1990, नोआखाली में बापू (विचार काव्य)-1996 पुस्तकें हैं।
डॉ० स्वर्णकिरण के भाषाई अनुवाद : - संस्कृत से हिंदी, भोजपुरी एवं मगही
इंदिरोपाख्यानम्-मूल : डॉ. युगल किशोर उपाध्याय-1978, भगवद् बुद्वोपाख्यानम्-मूल: श्री विष्णुकांत-1984, आईना के आर-पार (गुजराती)-मूल: श्री गिरीन जोशी  (मगही)-1991, शिव तांडव स्तोत्रम्-मूल : रावण-1993 पुस्तकें हैं।

डॉ० स्वर्णकिरण के सम्मान / उपाधि आदि : -
●18 मार्च 1978 को अखिल भारतीय मगही साहित्य सम्मेलन, गया-बिहार द्वारा मगही सम्मान।
●15 मार्च 1985 को साहित्यलोक, परियावाँ, प्रतापगढ़-उत्तर प्रदेश द्वारा साहित्यश्री उपाधि।
●28 अगस्त 1991 को हलाहल, रेवाड़ी-हरियाणा द्वारा लघुकथा रत्न सम्मान।
●24 जुलाई 1994 को श्री साईदास बालूजा साहित्य कला अकादमी, लाजपत नगर, दिल्ली द्वारा प्रशस्ति पत्र।
●17 सितम्बर 1994 को अखिल भारतीय भोजपुरी परिषद् लखनऊ-उत्तर प्रदेश द्वारा भोजपुरी शिरोमणि सम्मान।
●23 दिसम्बर 1994 को उत्तर प्रदेश रचनाकार संस्थान, परानापुर, बरवा, फैजाबाद-उत्तर प्रदेश द्वारा माखनलाल चतुर्वेदी लघुकथा पुरस्कार।
●13 सितंबर 2000 को जैमिनी अकादमी, पानीपत-हरियाणा द्वारा बीसवीं शताब्दी रत्न सम्मान व उपाधि मिले। डॉ० स्वर्णकिरण इतने बड़े मनीषी होने के बावजूद सादगी एवं मूल्यपरक जीवन का अप्रतिम उदाहरण है।

 डॉ० स्वर्णकिरण का  सरल स्वभाव :
विषयुक्त सर्प के स्वभाव में कड़वाहट, गुलाब के फूल में काँटों की चुभन, कुमुदनी के परिवेश में सौंदर्य का निखार, विद्या से उत्कृष्ट उपाधियाँ प्राप्त करने के बाद मनीषियों में सहज व्यक्तियों के दुराव स्वभाविक-सा लगता है। परंतु अपवाद ही देखा कि डॉ० स्वर्णकिरण के स्वभाव में विनोदप्रियता कूट-कूट कर भरी है। मधुरवाणी सुयोग्य संबोधन, साधारण विशिष्ट व्यक्ति से मिलने का सहज तरीका अपने आवास पर सभी तरह के लोगों के साथ आत्मीयता सर्वमंगल भावना इनके सरल स्वभाव का परिचायक है तथा इनके व्यक्तित्व में ये गुण स्वयं चार चाँद लगा देते हैं। राष्ट्रीय स्तर के प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ० स्वर्णकिरण 75 वर्ष की आयु में लम्बी बीमारी के बाद 16 अक्टूबर 2009 को देहावसान हो गया। ये कैंसर (कर्कट) रोग से पीड़ित थे।

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