महान् वीरांगना झलकारी बाई कोली की 194 वीं जयंती पर विशेष...!!

वीरता और कर्तव्यपरायणता की मिसाल थी झलकारी बाई

लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली
भारत प्राचीन काल से ही 'वीरप्रसूताभूमि' रही है। समयानुसार इसने वीर संतानों को जन्म दी है। उन्ही में से एक थी झलकारी बाई, जिसकी वीरता झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई से जरा भी कम न थी। जाकर रण में ललकारी थी, वह झाँसी की झलकारी थी। गोरों से लड़ना सिखा गई, है इतिहास में झलक रही, वह भारत की ही नारी थी, झलकारी थी। रानी लक्ष्मीबाई जी के प्राण बचाकर स्वयं के प्राणों की आहुति देनी वाली स्वतंत्रता सेनानी झलकारी बाई कोली जी की जयंती पर कोटि-कोटि नमन।
इतिहास के पन्नों में लुप्त, यह एक महान दलित महिला योद्धा की कहानी है, जिसने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बहादुरी से लड़ाई लड़ी थी। एक सामान्य परिवार से ताल्लुक रखने वाली, झलकारी बाई केवल अपनी दृढ़ता और साहस से प्रेरित थीं और आगे चलकर आदरणीय योद्धा बन गईं। जब भी भारतीय वीरांगनाओं का नाम लिया जाता है, उसमें झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम सबसे आगे आता है। उन्हें भारत की सबसे बड़ी वीरांगना माना जाता है, जिन्होंने अंग्रेजों का जमकर मुकाबला किया। हालांकि बहुत कम लोग ही जानते हैं कि देश में एक ऐसी भी वीरांगना रहीं हैं, जिसका नाम रानी लक्ष्मीबाई से भी पहले आता है। इस वीरांगना को भारत की दूसरी लक्ष्मीबाई भी कहा जाता है, वह दलित झलकारी बाई है। 1857 की क्रांति के दौरान उन्होंने झांसी के युद्ध में भारतीय बगावत के समय महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आपको जानकर हैरानी होगी कि झलकारी बाई कोली, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की महिला सेना में ही सैनिक थीं। उनका जन्म एक गरीब कोली परिवार में हुआ था। वह रानी लक्ष्मीबाई की सेना में एक आम सैनिक की तरह भर्ती हुईं थीं। उनमें युद्ध के साथ ही अन्य मसलों पर भी असाधारण योग्यताओं थी, इसी के दम पर वह रानी लक्ष्मीबाई की विशेष सलाहकार बनीं। कहा जाता है कि रानी लक्ष्मीबाई के महत्वपूर्ण निर्णयों में झलकारी बाई कोली की अहम भूमिका रहती थी।
देश की स्वतंत्रता में निडर योद्धा वीरांगना झलकारी बाई का बहुत ब़ड़ा योगदान है, उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। भारत प्राचीन काल से ही 'वीरप्रसूताभूमि' रही है। समयानुसार इसने वीर संतानों को जन्म दी है। उन्ही में से एक थी झलकारी बाई, जिसकी वीरता झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई से जरा भी कम न थी। झलकारी की वीरता में उसके विपक्षी सेनापति ह्यूरोज ने कहा था “अगर भारत में स्वतंत्रता की दीवानी ऐसी दो-चार और महिलाएँ हो जायें, तो अब तक ब्रिटिश ने भारत में भी जो ग्रहण किया है, वह उन्हें छोडना पड़ेगा। फिर भारत को स्वतंत्र होने से कोई भी नहीं रोक सकता।”

 झलकारी बाई का जन्म और पारिवारिक जीवन :

निडर योद्धा झलकारी बाई का जन्म 22 नवंबर 1830 को झांसी से 4 कोस दूर भोजला गांव में एक निर्धन कोली परिवार में हुआ था। उन्होंने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों का मुकाबला किया था। इनके पिता सदोवर सिंह और माता जमुना देवी थे। झलकारी बाई को शैशवास्था से ही मातृ-वियोग सहना पड़ा। पर पिता ने उन्हें उन दिनों की सामाजिक परिस्थितियों के कारण कोई औपचारिक शिक्षा तो न दिलवा सके, परन्तु घुड़सवारी और हथियारों का प्रयोग जैसे प्रशिक्षण कराते हुए उसका पालन-पोषण एक वीर लड़के की भांति किया था। झलकारी बचपन से ही बहुत साहसी और दृढ़ प्रतिज्ञ संकल्पी बालिका थी। झलकारी घर के काम-काज के अतिरिक्त पशुओं की देखभाल और पास के जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने का काम भी करती थी। एक बार जंगल में एक आदमखोर चीते ने झलकारी के संगी-साथियों पर हामला कर दिया। चीते के अचानक हमले को देखकर उसके संगी-साथी सभी भाग खड़े हुए, किन्तु झलकारी ने हिम्मत न हारी और वह कुल्हाडी लेकर चीते से जा भिड़ी। चीते ने भी अपने पंजों से झलकारी को घायल कर दिया। लेकिन झलकारी ने भी कुल्हाड़ी से चीते के माथे पर सधा हुआ कई वार किया। कुछ ही समय में वह आदमखोर चीता निर्बल होकर निढाल हो कर गिर पड़ा, जो कुछ ही समय के उपरांत मर गया।

सन् 1857 के विद्रोह और झाँसी पर अंग्रेज फ़ौज का आक्रमण :

सन् 1857 के विद्रोह के समय, जनरल रोज ने अपनी विशाल सेना के साथ 23 मार्च 1858 को झाँसी पर आक्रमण किया। रानी ने वीरतापूर्वक अपने 5000 के सैन्य दल से उस विशाल सेना का सामना किया. रानी कालपी में पेशवा द्वारा सहायता की प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन उन्हें कोई सहायता नही मिल सकी क्योकि तात्या टोपे जनरल रोज से पराजित हुए थे। जल्द ही अंग्रेज फ़ौज झाँसी में घुस गयी थी और रानी अपनी झाँसी को बचाने के लिए जी जान से लढ रही थी। तभी झलकारीबाई ने रानी लक्ष्मीबाई के प्राणों को बचाने के लिये खुद को रानी बताते हुए लड़ने का फैसला किया, इस तरह झलकारीबाई ने पूरी अंग्रेजी सेना को अपनी तरफ आकर्षित कर रखा था ताकि दूसरी तरफ से रानी लक्ष्मीबाई सुरक्षित बाहर निकाल सके। इस तरह झलकारीबाई खुद को रानी बताते हुए लडती रही और जनरल रोज की सेना भी झलकारीबाई को ही रानी समझकर उनपर प्रहार करने लगी थी। लेकिन दिन के अंत में उन्हें पता चल गया था की वह रानी नही है।
झलकारीबाई की प्रसिद्धि :

सन् 1951 में बी.एल. वर्मा द्वारा रचित उपन्यास झाँसी की रानी में उनका उल्लेख किया गया है, वर्मा ने अपने उपन्यास में झलकारीबाई को विशेष स्थान दिया है। उन्होंने अपने उपन्यास में झलकारीबाई को कोरियन और रानी लक्ष्मीबाई के सैन्य दल की साधारण महिला सैनिक बताया है‌ एक और उपन्यास में हमें झलकारीबाई का उल्लेख दिखाई देता है, जो इसी वर्ष राम चन्द्र हेरन द्वारा लिखा गया था, उस उपन्यास का नाम माटी था। हेरन ने झलकारीबाई को “उदात्त और वीर शहीद” कहा है। झलकारीबाई का पहला आत्मचरित्र 1964 में भवानी शंकर विशारद द्वारा लिखा गया था, भवानी शंकर ने उनका आत्मचरित्र का लेखन वर्मा के उपन्यास और झलकारी बाई के जीवन पर आधारित शोध को देखते हुए किया था। बाद में कुछ समय बाद महान जानकारो ने झलकारीबाई की तुलना रानी लक्ष्मीबाई के जीवन चरित्र से भी की।

झलकारी बाई की महानता और सरकार द्वारा डाक टिकट जारी :

कुछ ही वर्षो में भारत में झलकारी बाई की छवि में काफी प्रख्याति आई है। झलकारीबाई की कहानी को सामाजिक और राजनैतिक महत्ता दी गयी।   भारतीय पुरातात्विक सर्वे ने अपने पंच महल के म्यूजियम में, झाँसी के किले में झलकारी बाई का भी उल्लेख किया है। भारत सरकार ने 22 जुलाई 2001 में झलकारी बाई के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया। अब अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना के अंतर्गत सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की महान् वीरांगना झलकारी बाई के महान् अवदान और गौरवशाली इतिहास है। एक अविश्वसनीय योद्धा जिसने युद्ध के मैदान में अपनी मृत्यु तक झाँसी की महान रानी लक्ष्मीबाई के साथ कई ब्रिटिश सैनिकों को मारने के लिए एक शेरनी की तरह लड़ाई लड़ी, वह गुमनामी में चली गई। हमारे स्वतंत्रता आंदोलन की गुमनाम नायक या नायिका, जैसा कि आप उन्हें कह सकते हैं, झलकारीबाई के नाम से जानी जाती है। झलकारी बाई को अनुसूचित जाति की पृष्ठभूमि के कारण स्कूल जाने की अनुमति नहीं थी। इसके बजाय, उसके पिता ने उसे घुड़सवारी और मार्शल आर्ट में प्रशिक्षित किया। समय के साथ वह बड़ी होकर रानी की सलाहकार बन गयी। रानी लक्ष्मीबाई की विश्वासपात्र होने के नाते, झलकारी बाई ने युद्ध रणनीति की योजना बनाने और रणनीति बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और 1857 में भारत की आजादी के पहले युद्ध के दौरान एक प्रमुख व्यक्ति बनकर उभरीं। उनकी बहादुरी के किस्से झाँसी के अंदर और बाहर घर-घर में मशहूर थे। ऐसा कहा जाता है कि एक बार जब धोखेबाजों ने उसके गांव को नष्ट करने की कोशिश की, तो झलकारी ने अकेले ही उन्हें खदेड़ दिया। कुछ किंवदंतियों के अनुसार, उसने एक बार एक बाघ को कुल्हाड़ी से मार डाला था जब जानवर ने जंगल में उस पर हमला करने की कोशिश की थी।

रानी लक्ष्मीबाई के रक्षा में झलकारी बाई और तोपची पूरण सिंह कोली :

झलकारीबाई को रानी लक्ष्मीबाई के समान माना जाता है। उन्होंने एक तोपची सैनिक पूरण सिंह से विवाह किया था, जो रानी लक्ष्मीबाई के ही तोपखाने की रखवाली किया करते थे। पुरण सिंह कोली ने ही झलकारीबाई को रानी लक्ष्मीबाई से मिलवाया था। बाद में झलकारी बाई भी रानी लक्ष्मीबाई की सेना में शामिल हो गयी थी। सेना में शामिल होने के बाद झलकारीबाई ने युद्ध से सम्बंधित अभ्यास ग्रहण किया और एक कुशल सैनिक बनी। रानी लक्ष्मीबाई ने उन्हें झाँसी किले में एक उत्सव के दौरान देखा, और झलकारीबाई और उनके बीच की अनोखी समानता को देखकर सुखद आश्चर्यचकित हुईं। जब रानी को झलकारीबाई के वीरतापूर्ण कार्यों के बारे में बताया गया, तो उन्होंने तुरंत उसे अपनी सेना की महिला शाखा में शामिल कर लिया और युद्ध में आगे प्रशिक्षित किया।
1858 में, जब ब्रिटिश फील्ड मार्शल ह्यू रोज़ ने झाँसी पर हमला किया, तो रानी लक्ष्मीबाई ने 4,000-मजबूत सेना के साथ अपने किले से ब्रिटिश सेना पर हमला किया। हालाँकि, उसके एक कमांडर ने उसे धोखा दिया और वह हार गई। अपने सेनापतियों की सलाह पर लक्ष्मीबाई चुपचाप घोड़े पर सवार होकर झाँसी से निकल गईं। लेकिन झलकारीबाई डटी रहीं और शेरनी की तरह लड़कर कई ब्रिटिश सैनिकों को मार डाला और भेष बदलकर जनरल रोज़ेज़ के शिविर के लिए निकल गईं और खुद को रानी घोषित कर दिया। उनकी गलत पहचान के कारण भ्रम की स्थिति पैदा हो गई जो पूरे दिन जारी रही, जिससे लक्ष्मीबाई को भागने के लिए पर्याप्त समय मिल गया।
अपनी मातृभूमि के लिए लड़ते हुए शहीद हुई :

जंगे आज़ादी की लड़ाई में वीरांगना झलकारी बाई की शहादत हमेशा याद रहेगी। अपनी मातृभूमि के लिए अंग्रेजों से लड़ते-लड़ते पति पूरन कोली के साथ 4 अप्रैल 1858 को वीरगति को प्राप्त हुए थी। उन्होंने प्रतिज्ञा किया था कि जब तक झांसी को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद नहीं करा दूंगी, तब तक माथे पर सिंदूर नहीं लगाऊंगीं। देश में दलित समुदाय आज भी उन्हें देवी के रूप में देखते हैं और हर साल झलकारीबाई की जयंती और पूण्यतिथि मनाते हैं। उनके साहस ने लाखों लोगों के अनुकरण के लिए एक समृद्ध विरासत छोड़ी है। भारत सरकार ने योद्धा झलकारीबाई की स्मृति में डाक टिकट जारी किया, जो अपने लोगों और अपने देश की रक्षा करते हुए जीती और मर गई। आज भी उनकी यादें लोगों के ह्रदय में जीवित हैं और उनके साहसी कारनामे लोककथाओं में फिर से उभर आते हैं। क्षेत्र के कई दलित समुदाय उन्हें भगवान के अवतार के रूप में देखते हैं।
“यदि भारत की 1% महिलाऐं भी उसकी जैंसी हो जाएं तो अंग्रेजों को सब कुछ छोड़कर यहाँ से चले जाना होगा”- जनरल ह्यूरोज- फिर आखिर क्यों महान् वीरांगना झलकारी बाई के इतिहास में उचित स्थान देना तो छोड़िए वरन् उनके इतिहास तोड़-मरोड़ कर रख दिया! आखिर क्यों? वास्तविकता यह है कि पश्चिमी इतिहासकारों, वामपंथी इतिहासकारों के साथ एक दल विशेष के समर्थक इतिहासकारों ने मिलकर मुगलों और अंग्रेज़ों का और उनके भारतीय समर्थकों का इतिहास में गुणगान कर पाठ्यक्रमों में शामिल किया ताकि हमारा वीरोचित इतिहास दफन हो जाए!आने वाली भावी पीढ़ियों हीन भावना से ग्रसित केवल हमारी पराजयों का इतिहास पढ़ती रहें, हमारी विजयों और वीरोचित संघर्ष का नहीं! और वास्तविक भारतीय वीरांगनाओं के साथ तो दोयम दर्जे का व्यवहार हुआ! वीरांगना झलकारी बाई भी इसी षडयंत्र का शिकार हुई हैं! भारतीय पुरातात्विक सर्वे ने अपने पंच महल के म्यूजियम में झांसी के किले में झलकारी बाई का भी उल्लेख किया है। अजमेर, राजस्थान में उनकी प्रतिमा और स्मारक भी है। उत्तर प्रदेश सरकार ने उनकी एक प्रतिमा आगरा में भी स्थापित की है। उनके नाम से लखनऊ में एक धर्मार्थ चिकित्सालय भी है।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

ककड़िया विद्यालय में हर्षोल्लास से मनाया जनजातीय गौरव दिवस, बिरसा मुंडा के बलिदान को किया याद...!!

61 वर्षीय दस्यु सुंदरी कुसुमा नाइन का निधन, मानववाद की पैरोकार थी ...!!

ककड़िया मध्य विद्यालय की ओर से होली मिलन समारोह का आयोजन...!!