गुरु नानक देव जी का 555 वें ज्योति ज्योत पर्व पर विशेष ..!!

●गुरु नानक देव जी के 555 वें स्मृति दिवस पर विशेष :
 ●गुरुनानक देवजी ने जाति-प्रथा को खत्म करने का काम किया
● गुरुनानक ने जीवन-भर ईश्वरीय ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया

लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली

भारतीय धर्म में जाति-पांति तथा कर्मकाण्डों का जब बोलबाला हो रहा था, तब ब्राह्मणवादी सनातनी धर्म से कुछ ऐसी शाखाएं प्रस्फुटित हुईं, जिन्होंने मानवतावादी धर्म की नींव रखी, जिनमें सिख धर्म का विशेष स्थान है। सिखों के प्रथम गुरु सिख धर्म के संस्थापक श्री गुरु नानक देव जी महाराज अपने परिवार के साथ 1522 में पाकिस्तान के नरोवाल जिला के करतारपुर में रहने लगे और वहीं पर खेती करने का काम प्रारंभ किया। अंतिम सांस तक श्री गुरु नानक देव जी महाराज अपने परिवार के साथ करतारपुर में ही रहे। अश्विन महीने के कृष्ण पक्ष दसवीं (22 सितंबर 1539) को परलोक चले गए। इनका स्मृति दिवस या ज्योति ज्योत गुरु पर्व हिंदी तारीख प्रतिवर्ष अश्विन महीने के दसवीं के दिन मनाया जाता है। गुरु नानक देव जी एक दार्शनिक थे, जिन्होंने समाज में फैली कुरीतियों को देखकर बदलाव की आवश्यकता को महसूस किया। सिख धर्म के 10 गुरुओं में गुरु नानक देव जी का नाम सबसे पहले आता है। उन्होंने “इक ओंकार” का संदेश दिया, जिसका अर्थ है “ईश्वर एक है,” और आत्मा के परमात्मा से मिलन की बात करते हुए गुरु और ईश्वर की उपासना की सीख दी। गुरु नानक देव जी का जीवन और उनके उपदेश आज भी समाज में परिवर्तन की प्रेरणा देते हैं।

गुरुनानक देव जी का जन्म एवं पारिवारिक जीवन 
 
गुरुनानक देवजी का जन्म 15 अप्रैल 1469 को सुबह के प्रकाश से पहले कार्तिक पूर्णिमा को लाहौर जिले के तलवंडी नामक ग्राम में हुआ था। वर्तमान में ननकाना साहब के नाम से प्रसिद्ध इस धार्मिक तीर्थस्थल पर लाखों श्रद्धालु पाकिस्तान जाकर अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं। उनके पिता कालूचन्द थे और माता तृप्ता देवी थीं। उनके पिता उन्हें पढ़ाना चाहते थे, पर उनका मन आध्यात्म की ओर रमा रहता था। एक बार किसी पण्डित ने उनसे ॐ का अर्थ पूछा था। नानक ने उसकी जब विशद् व्याख्या की, तो पण्डितजी अवाक् रह गये। नानक के पिता पैसे देकर उन्हें बाजार भेजते थे, तो वे सामान लाने की बजाय पैसों को पीर-फकीरों में बांट आते थे। सांसारिक विरक्ति देखकर उनका विवाह सुलक्षणी से करा दिया गया, जिससे उनके दो पुत्र- श्रीचन्द और लक्ष्मीचन्द हुए। सांसारिक जीवन उन्हें रास नहीं आया।

गुरू नानक देव सिखों के पहले गुरु थे

गुरू नानक देव सिखों के पहले गुरु हैं। सिख धर्म के लोग इन्हें नानक, नानक देव जी, बाबा नानक और नानकशाह नामों से संबोधित करते हैं। नानक अपने व्यक्तित्व में दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्मसुधारक, समाजसुधारक, कवि, देशभक्त और विश्वबन्धु सभी के गुण समेटे हुए थे। इनका समाधि स्थल गुरुद्वारा ननकाना साहिब पाकिस्तान में स्थित है। 
 
 गुरु नानक देव ने शुरू की थी लंगर की परंपरा, हर वर्ग के लोग करते हैं सेवा
 
गुरु नानकदेव का सच्चा सौदा है लंगरः सिखों के गुरु नानकदेव ने अत्यधिक तपस्या और अत्यधिक सांसारिक भोगविलास, अहंभाव और आडंबर, स्वार्थपरता और असत्य बोलने से दूर रहने की शिक्षा दी। गुरु नानक देव को उनके पिता जी कल्यानचंद उर्फ मेहता कालू जी ने 20 रुपये बिजनेस के लिए दिए थे, लेकिन उन्होंने उस 20 रुपये में लोगों को भोजन करा दिया था। पिता जी ने सच्चा सौदा करने की बात कही थी और नानक देव ने भूखे को भोजन कराने की परंपरा का निर्वहन किया सबसे बड़ा सौदा कर दिया। उसके बाद से गुरुद्वारों में शुरू हुई परंपरा चलती रही। यह भी कहा जाता है कि अकबर बादशाह ने तीसरे गुरु अमरदास से लंगर का इंतजाम करने की बात कही तो गुरु ने यह कहते हुए मना कर दिया कि इसमे आपका घमंड होता, श्रद्धा तो संगतों के पैसे से आएगी। इसके चलते लंगर सेवा के लिए मिलकर इंतजाम करते हैं। कुछ आर्थिक मदद तो कुछ लोग लंगर सेवा करके अपनी भागीदारी निभाते हैं।
गुरू नानक देव जी ने की 5 उदासियां

गुरुनानक में सुलतानपुर में ज्ञान प्राप्त करने के बाद ही घर छोड़ लंबी यात्राओं पर निकलने का फैसला किया उनकी इन यात्रों को उदासियां कहा जाता है क्योंकि इस दौरान उन्होंने गृहस्थ जीवन त्याग कर उदाससाधु सा जीवन बिताया। अपनी यात्राओं के दौरान उन्होंने हिंदू, जैन,  बौद्ध, मुस्लिम और अन्य संप्रदायों के तीर्थ स्थानों का भ्रमण किया और लोगों को एकीश्वरवाद के उपदेश दिए। गुरुनानक जी की तीर्थ यात्राओं का मकसद अपने धार्मिक और आध्यात्मिक ज्ञान को जनजन तक पहुंचाना, धर्म और ईश्वर के वास्तविकस्वरूप की व्याख्या करना, लोगों में प्रचलित झूठे रीतिरिवाजों और कुरीतियों को खत्म करके उन्हें प्रेम, त्याग, संयम और सदाचार के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करना था।
 
गुरु नानक की पहली यात्रा

1499 से 1509 के बीच पहली यात्रा में उन्होंने सय्यदपुर, तालुम्बा, कुरुक्षेत्र, पानीपत और दिल्ली की सैर सय्यदपुर, तालुम्बा, तलवंडी, पेहोवा, कुरुक्षेत्र, पानीपत, दिल्ली, हरिद्वार, गोरख मत्ता, बनारस, गया, नालंदा, बंगाल, कामरूप (आसाम), सिलहट, ढाका और जगन्नाथ पूरी आदि स्थानों पर गए। पुरी से भोपाल, चंदेरी, आगरा और गुड़गांव होते हुए वे पंजाब लौट आए। अपनी यात्राओं के दौरान उन्होंने कई अमीरों, संतों, आदि को प्रभावित किया तो कई जगहों पर लोगों के अंधविश्वास को तोड़ कर दिखाया।

दूसरी से चौथी उदासी

गुरु नानक की तीसरी उदासी 1510 से 1515, तीसरी उदासी 1515 से 1517 और चौथी उदासी 1517 से 1521 के बीच हुई. दूसरी उदासी में राजसथान, मध्यप्रदेश, हैदराबाद से होते हुए रामेश्वरम और श्रीलंका की यात्रा की इसके बाद वे कोचीन, गुजरात, सिंध से होते हुए वापस आए कई लोगों को प्रभावित किया। तीसरी उदासी में वे कांगड़ा, चंबा, मंडी नादौन, बिलासपुर, कश्मीर की घाटी, कैलाश पर्वत और मान सरोवर झील पर गए। माना जाता है कि वे तिब्बत भी गए  थे और वहां से लद्दाख और जम्मू से होते हुए वह पंजाब लौटे। इस दौरान वे कई योगियों से भी मिले। जबकि चौथी उदासी में उन्होंने मक्का मदीना और बगदाद की यात्रा की और ईरान काबुल और पेशावर होते हुआ वापसी की। इसके बाद गुरु नानक ने पंजाब के ही कई इलाकों की यात्रा की जिसके कहीं चौथी उदासी का हिस्सा तो कहीं पांचवी उदासी माना जाता है। वे जहां गए वहां उन्होंने लोगों को प्रभावित किया, उनके अंधविश्वास और कुरीतियों को तोड़ने का काम किया और तीर्थों पर पंडितों के साथ शास्त्रार्थ भी किया। उन्होंने किसी धर्म की खिलाफत तो नहीं की, लेकिन कट्टरपंथ को खारिज कर अपने उपदेशों से प्रभावित जरूर करते रहे।

गुरु गुरुनानक देवी जी के चार शिष्य

सिख धर्म के प्रथम गुरु गुरुनानक देवी जी के चार शिष्य हुए। ये चारों शिष्य हमेशा बाबाजी के साथ ही रहते थे। बाबाजी ने अपनी लगभग हर उदासी इन चारों के साथ ही की। इन चारों के नाम थे- मरदाना, लहना, बाला और रामदास। मरदाना ने गुरुजी के साथ 28 साल में लगभग दो उपमहाद्वीपों की यात्रा की। इस दौरान उन्होंने तकरीबन 60 से ज्यादा प्रमुख शहरों का भ्रमण किया। जब गुरुजी मक्का की यात्रा पर थे तब मरदाना उनके साथ थे।

मक्का की यात्रा पर भी गए थे गुरू नानक

मक्का में गुरू जी की यात्रा से जुड़ा एक रोचक प्रसंग मिलता है। जब वह मक्का गए तो पवित्र स्थान की ओर पैर करके सो गए। इससे कुछ लोग नाराज हो गए। गुरू जी ने उनसे कहा- आप मेरे पैर को उस दिशा में कर दें जो पवित्र न हो। कहते हैं, जब उनके पांव दूसरी ओर किए गए तो पूरा मक्का उधर घूम गया। यह देख सभी हैरान रह गए। हालांकि इस किस्से का कोई तथ्यात्मक प्रमाण नहीं मिलता है।उन्होंहने अपनी मृत्यु से पहले अपने शिष्य भाई लहना को उत्तराधिकारी बनाया, जो आगे चलकर गुरु अंगद देव कहलाए। वे सिखों के दूसरे गुरु माने जाते हैं।

गुरुनानक देवजी का चमत्कारिक जीवन

गुरुनानक का कहना था सच्चे मन से भगवान का भजन करो, संयमित जीवन बिताओ, मेहनत से कमाई करो और मधुर व परहितकारी वचन बोलो। गुरुनानक का कहना था कि शरीरधारी का नाम नहीं जपना चाहिए।
गुरुनानक ने लोगों को धर्म का सही मार्ग दिखाने के लिए अनेक चमत्कार दिखाये। एक बार की घटना है। गुरुनानक जी धार्मिक तीर्थयात्रा पर हरिद्वार पहुंचे थे। वहां पण्डों द्वारा उन्होंने गंगाजी में खड़े होकर जल तर्पण करते देखा। पूछने पर पण्डों ने बताया कि वे पितरों को जल अर्पण कर उनका श्राद्ध कर रहे हैं। यह जल उन तक पहुंचेगा, ऐसा पण्डों ने बताया। यह सुनकर गुरुनानक जोर-जोर से जल उछालने लगे। लोगों ने उनसे इसका कारण पूछा, तो उन्होंने बताया- "वे अपने पूर्व दिशा में स्थित खेतों को पश्चिम दिशा से जल देकर सिंचाई कर रहे हैं।" लोग हंसने लगे, तो उन्होंने कहा “अगर तर्पण का जल पितरों तक पहुंच जाता है, तो मेरा यह जल दो-तीन सौ कोस के फासले पर स्थित खेतों में कैसे नहीं पहुंचेगा?" यह सुनकर वहां उपस्थित सभी लोग निरूत्तर हो गये।
 
गुरुनानक देव जी ने जीवन-भर ईश्वरीय ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया

गुरुनानक देव जी ने जीवन-भर ईश्वरीय ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया। धर्म का सही ज्ञान लोगों को कराया। हिन्दू-मुस्लिम समान रूप से उनके भक्त बन गये थे। समानतावादी समाज की स्थापना की। उन्होंने प्रेम और शांति का जो संदेश लोगों को दिया, वह आज भी प्रासंगिक है। स्त्रियों को भी धार्मिक उत्सव और हरिकीर्तन में भाग लेने का समान अधिकार दिया। उनके द्वारा लिखे गये गुरुग्रन्थसाहब का आज भी प्रत्येक गुरुद्वारे में पाठ किया जाता है। उनकी दूसरी पुस्तक "जपुजी" तथा तीसरी पुस्तक "सोहिला नाम" धर्म सन्देशों से भरी है। उन्होंने सर्वधर्मसमभाव हेतु “लंगर सामूहिक भोज” प्रथा का प्रारम्भ किया था। और गुरुअगंद देवजी उनके उत्तराधिकारी बने।

गुरुनानक ने जाति-प्रथा को खत्म करने का काम किया

गुरुनानक देव जी ने जाति-प्रथा को खत्म करने का काम किया गुरुनानक के भक्त गुरु गोविंद सिंह जी ने कहा है कि “चार वरण इक वरन कराओं, तबेई गोबिंद सिंह नाम कहाऊँ” जिसका अर्थ है कि जब मैं चारों जातियों को एक कर दूं, तभी मैं गोविंद सिंह कहलाया जाऊं। ये तो जगजाहिर है कि जातिवाद, भेदभाव, छूआछूत को खत्म करने और बराबरी का दर्जा देने में सिखों का बहुत बड़ा योगदान रहा है। वो सिख ही थे, जिन्होंने ब्राह्मणवादी रूढ़िवादिता का जमकर विरोध किया। जाहिर है कि पंजाब एक ऐसा राज्य है जहां जातिवाद प्रथा दक्षिणी और पश्चिमी राज्यों के मुकाबले बेहद कम है। इसके अलावा सिखों के गुरु ने समाज सुधार में बड़ा योगदान दिया है। जातिवाद और छूआछूत को कम करने के लिए सिखों के गुरुओं ने संगत की शुरुआत की, लंगर की शुरुआत की। जहां सभी एक साथ जमीन पर बैठकर साथ आए। इसका सिर्फ एक ही उद्देश्य था कि सभी लोग चाहे वो उंच जाति के हो या नीच जाति के। चाहे वो अमीर हो या गरीब। सभी को साथ में लाने का काम किया। इस पहल को एक नए सुधार आंदोलन के तौर पर भी देखा गया। सिखों की इस पहल ने जातिप्रथा को कम करने और काफी हद तक खत्म करने का काम भी किया। सिखों के कारण ही जातिप्रथा को कम करने का मौका मिला। उनके लंगर और संगत की पहल ने लोगों में एकता और बराबरी का संदेश दिया।

गुरुनानक ने मृत्यु से पहले अपने शिष्य भाई लहना को उत्तराधिकारी बनाया

अपनी पूरी जिंदगी मानव समाज के कल्याण में लगाने वाले गुरुनानक देव जी ने अपनी मृत्यु से पहले अपने परम शिष्य भाई लहना को अपना उत्तराधिकारी बनाया, जो बाद में गुरु अंगद देवजी नाम से जाने गए। गुरुनानक देव जी की मृत्यु 22 सितंबर 1539 ई. संवत् 1566 को करतारपुर में 70 वर्ष की आयु में आश्विन कृष्ण दशमी के दिन हुई थी। गुरुनानक देव जी ने ईश्वर को सर्वव्यापी मानने पर बल दिया।  

'नाम जपो,किरत करो और वंड छको' के मंत्र से ही मानवता का उद्धार होगा

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