आस्था व निष्ठा का अद्भुत संगम है देव का सूर्य मंदिर...!!
बिहार के औरंगाबाद जिले में एक देव नाम का स्था,न है। यह रहस्यामयी मंदिर भी इसी स्थाेन पर स्थालपित है। यह सूर्य देवता का मंदिर है और देव नामक जगह पर है तो इसलिए इसे देव सूर्य मंदिर के नाम से जाना जाता है। मंदिर के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण छठीं या आठवीं सदी के बीच हुआ होगा। मंदिर की नक्का शी बेजोड़ है। यह सूर्य नगरी के नाम से भी जाना जाता है जिसकी वजह है अनूठा देव सूर्य मंदिर। भारत में हिंदुओं का यह पहला मंदिर है, जिसका मुख्य द्वार पश्चिम दिशा में है। पश्चिमाभिमुख देव सूर्य मंदिर को ‘दवार्क’ माना जाता है। मंदिर को पौराणिकता, शिल्पकला और महत्ता विरासत में मिली है जो अपनी भव्यता के लिए जहां प्रसिद्ध है, वहीं आस्था का बहुत बड़ा केंद्र भी है। यह देव सूर्य मंदिर देश ही नहीं विदेशों में भी काफी प्रसिद्ध है।मान्याता के अनुसार यह करीब 9 लाख 49 हजार 131 वर्ष पहले बना था। मंदिर का निर्माण त्रेतायुग में किया गया था। हालांकि वास्तुकार इसका निर्माण काल गुप्तकालीन बताते हैं तो एएसआइ इसे पांचवीं से छठी शताब्दी के बीच का बताता है। निर्माण जब भी हुआ हो लेकिन यहां लोगों की आस्थाश असीम है। हर वर्ष लाखों श्रद्धालु यहां पहुंचते हैं।
त्रेतायुग में इला के पुत्र ऐल ने करवाया था सूर्य मंदिर का निर्माण :
मंदिर के निर्माण से संबंधित शिलालेख मंदिर परिसर में प्रवेश द्वार पर दाहिने तरफ लगा है। शिलालेख के अनुसार माघ मास शुक्ल पक्ष पंचमी तिथि गुरुवार को इला के पुत्र ऐल ने धार्मिक ग्रंथों के अनुसार त्रेतायुग में मंदिर का निर्माण कराया था। त्रेतायुग के 12 लाख 16 हजार वर्ष बीत जाने के बाद सूर्यमंदिर का शिलान्यास किया गया था। शिलालेख के अनुसार त्रेतायुग 12 लाख 86 हजार वर्ष का होता है। इसमें 12 लाख 16 हजार वर्ष घटा देने के बाद 80 हजार वर्ष होता है। त्रेतायुग के बाद द्वापरयुग आया है। यह आठ लाख 64 हजार वर्ष का था। वर्तमान कलियुग के 6131 वर्ष बीत चुके हैं। इस प्रकार वर्तमान संवत 2081 को सूर्य मंदिर के बने करीब 9 लाख 49 हजार 131 वर्ष हो चुके हैं। काले पत्थरों को तराशकर बनाए गए सूर्य मंदिर के हर पत्थरों पर नक्काशी व कलाकृतियां उकेरी गई है। ऐसी कलाकृति दक्षिण भारत के मंदिरों में देखी जाती है। मंदिर की बनावट उड़ीसा के मंदिरों से मिलती है। करीब एक सौ फीट ऊंचे सूर्य मंदिर के सबसे ऊपर कमल के आकार का बना गुंबद पर करीब पांच फीट लंबा सोने का कलश स्थापित किया गया है। मंदिर के निर्माण में सीमेंट का उपयोग नहीं किया गया है। हर पत्थर को लोहे की कील से जोड़कर मंदिर का निर्माण किया गया है। मंदिर के निर्माण में इस कदर संतुलन बनाया गया है कि हर पत्थर एक दूसरे से गुबंद तक जुड़े हैं।
भयानक भूकंप में भी मंदिर रहा सही-सलामत :
कई बार भूकंप आने के बावजूद मंदिर का संतुलन नहीं गड़बड़ाया है। मंदिर का गुबंद इस तरह का बनाया गया है कि उसपर कोई चढ़ नहीं सकता है। गुंबद के नीचे से ही मंदिर की सजावट की जाती है। मंदिर के जानकर बताते हैं कि मंदिर में विद्यमान तीन स्वरुपी भगवान सूर्य की प्रतिमा जीवंत है। प्रतिमा के सामने जो भी श्रद्धालु खड़े होकर जो मांगते हैं वह मिलता है। ऐसी वर्षों से मान्यता है। मंदिर परिसर में भगवान सूर्य के अलावा कई देवी देवताओं की प्रतिमा दर्शनीय है। मंदिर बिहार की नहीं देश की पौराणिक विरासत है।
इस धरोहर को संरक्षित करने की जरूरत है :
देव सूर्य मंदिर, यह औरंगाबाद शहर से 18 किलोमिटर दूर, गया शहर से 68 किलो मीटर और बिहारशरीफ से लगभग 162 किलोमिटर दूर है। आपने भारत में कई सूर्य मंदिरों के बारे में पढे, सुने और देखे होगे, लेकिन बिहार के औरंगाबाद जिले के देव स्थित प्राचीन सूर्य मंदिर की विशेषता अलग है। देव सूर्य मंदिर में पूर्वाह्न काल में ब्रह्मा, मध्यकाल में विष्णु और अपराहं काल में शिव के रूप में एकादश भास्कर भगवान विद्यमान हैं। इस मंदिर में सात रथों से सूर्य की उत्कीर्ण प्रस्तर मूर्तियां अपने तीनों रूपों उदयाचल (सुबह) सूर्य, मध्याचल (दोपहर) सूर्य, और अस्ताचल (अस्त) सूर्य के रूप में विद्यमान है। ऐसा कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण स्वयं भगवान विश्वकर्मा ने त्रेतायुग में एक रात में की थी। मंदिर में लगे पत्थर के शिलालेख से पता चलता है कि सन 2024 ईस्वी तक इस पौराणिक मंदिर का निर्माण का काल 155020 वर्ष पूरा हो गया है। देव का सूर्यमंदिर को संरक्षित करने की जरूरत है। संरक्षण के अभाव में मंदिर का पत्थर टूटकर गिर रहा है। मंदिर के गर्भ गृह में मुख्य द्वार के बिंब में दरार आ गया है। प्रवेश द्वार के ऊपर पत्थर थोड़ा दरक गया है। जानकारों के अनुसार अगर एक भी पत्थर का संतुलन बिगड़ा तो मंदिर को काफी नुकसान हो सकता है। वर्तमान में मंदिर धार्मिक न्यास बोर्ड के अधीन है। बोर्ड के द्वारा मंदिर के रख रखाव एवं देख-रेख के लिए मंदिर न्याय समिति का गठन कर उसके अधीन दिया गया है।
केमिकल पेंट से मंदिर को नुकसान :
बिहार राज्य धार्मिक न्यास बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष आचार्य किशोर कुणाल ने जब इस मंदिर का निरीक्षण किया था तब वे मंदिर परिसर में सीमेंट के बनाए गए देवी मंदिर के अलावा अन्य स्ट्रक्चर का विरोध किया था। मंदिर के पत्थर पर किए गए केमिकल पेंट को भी मंदिर के लिए नुकसान बताया था। हालांकि पूर्व अध्यक्ष के आदेश पर आजतक अमल नहीं किया गया है। वर्तमान में मंदिर की सुरक्षा को लेकर पत्थरों में किसी भी तरह का कील गाड़ने पर कमेटी के द्वारा प्रतिबंध लगाया गया है।
हर वर्ष लाखों श्रद्धालु व पर्यटक पहुंचते है:
देव सूर्यमंदिर को देखने और दर्शन करने हर वर्ष 30 लाख से अधिक श्रद्धालु और पर्यटक पहुंचते हैं। यहां कार्तिक एवं चैत्र मास में लगने वाला छठ मेला में देश के कोने कोने से करीब 18 से 30 लाख श्रद्धालु आते थे। यह मंदिर नई दिल्ली से कोलकाता को जाने वाली जीटी रोड अब एशियन हाइवे वन से करीब 6 किमी हटकर है जिसकारण इस हाइवे से आवागमन करने वाले श्रद्धालु एवं पर्यटक यहां पहुंचते हैं।यह देश का एकमात्र ऐसा सूर्य मंदिर है, जिसका दरवाजा पश्चिम की ओर है। मंदिर का शिखर आमलक आकार से सुशोभित है और यह मंदिर नागर या उत्तर भारतीय शैली में निर्मित है।
अलौकिक देव सूर्य मंदिर :
देव सूर्य मंदिर देवार्क रूप में विख्यात है, उसी तरह वाराणसी में लोलार्क और उड़ीसा में कोणार्क मंदिर विख्यात है। देव सूर्य मंदिर देश की धरोहर एवं अनूठी विरासत है। देव सूर्य मंदिर दो भागों में बना है।पहला मंदिर के गर्भ गृह जिसके ऊपर कमल के आकार का शिखर है और शिखर के ऊपर सुनहला कलश है। गर्भ गृह के ऊपर तीन प्रतिमाएँ स्थापित है। दूसरा भाग मुख्य मंडप है, जिसके ऊपर पिरामिड आकार के छत और छत को सहारा देने के लिए नक्काशीदार पत्थरों का बना स्तंभ है। यह सूर्य मंदिर ओड़िशा के पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर से मिलता-जुलता है।
पाली लिपि के अनुसार देव सूर्य मंदिर का निर्माण काल :
देव सूर्य मंदिर के पाली लिपि में लिखित अभिलेख मिलने से पुरातत्वविद इस मंदिर का निर्माण काल आठवीं-नौवीं सदी के बीच का मानते हैं। यह सूर्य मंदिर स्थापत्य और वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण है। बिना सीमेंट या चूना-गारा का प्रयोग किए आयताकार, वर्गाकार, आर्वाकार, गोलाकार, त्रिभुजाकार आदि कई रूपों और आकारों में काटे गए पत्थरों को जोड़कर बनाया गया यह मंदिर अत्यंत आकर्षक एवं विस्मयकारी है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार महाराज मनु ने अपनी गुणवती कन्या इला का बुध के साथ विवाह किया। इला और बुध से महाराज पुरूरवा की उत्पत्ति हुई थी। राजा पुरुरवा ऐल को कुष्ठ रोग काफी दिन से था और वह ठीक नहीं हो रहा था। राजा ऐल एक बार देव लोक के जंगल में शिकार खेलने गए थे। शिकार खेलने के समय उन्हें प्यास लगी थी। उन्होंने अपने आदेशपाल को लोटा भर पानी लाने को कहा था। आदेशपाल पानी की तलाश करते हुए एक पानी भरे गड्ढे के पास पहुंचा। वहां से उसने एक लोटा पानी लेकर राजा को दिया। राजा के हाथ में जहां-जहां पानी का स्पर्श हुआ और हाथ में कुष्ठ ठीक हो गया था। बाद में राजा ने उस गड्ढे में जा कर स्नान किया और उनका कुष्ठ रोग ठीक हो गया। उसके बाद उसी रात जब राजा रात में सोए हुए थे, तो सपना आया कि जिस गड्ढे में उन्होंने स्नान किया था, उस गड्ढे में तीन मूर्तियां हैं। कहा जाता है की राजा ने फिर उन मूर्तियों को वहां से निकाल कर एक भव्य मंदिर बनाकर उसमें स्थापित किया था।
राजा भैरवेन्द्र द्वारा मंदिर का जीणोद्धार :
पंद्रहवी सदी में उमगा-देव के राजा भैरवेन्द्र के द्वारा इस मंदिर का जीणोद्धार कराया गया था। राजा भैरवेन्द्र द्वारा जीर्णोद्वार विधि के विशेषग्य महापंडित जगन्नाथ दीक्षित एकसरिया भूमिहार ब्राह्मण को देव मंदिर के जीर्णोद्वार हेतु आमंत्रित किया गया और उन्हें इस मंदिर का मुख्य पुरोहित नियुक्त किया गया था।
मंदिर में नित्य पूजा अर्चना :
मंदिर के बारें में बताया जाता है कि प्रत्येक दिन सुबह चार बजे मंदिर में भगवान को घंटी बजाकर जगाया जाता है। उसके बाद पुजारी भगवान को नहलाते हैं, ललाट पर चंदन लगाते हैं, नया वस्त्र पहनाते हैं। यह परंपरा आदि काल से चली आ रही है। भगवान को आदित्य हृदय स्त्रोत का पाठ सुनाया जाता है।
छठ महापर्व :
महापर्व छठ साल में दो बार यानी कार्तिक और चैत्र माह में होता है, जिसमें लोग भगवान भास्कर की पूजा करते हैं। छठ पर्व के मौके पर यहां लाखों लोग भगवान भास्कर की अराधना के लिए आते हैं और सम्पूर्ण मंदिर भक्तिमय हो जाता है।
छठी मैया :
छठ पूजा के दिन माता छठी की पूजा की जाती है। जिन्हें छठी मैयां कहते हैं। शास्त्रों के अनुसार छठी मैयां को सूर्य भगवान के बहन कहा गया है। इसलिए इस दिन सूर्य भगवान के पूजा का काफी महत्व है। मार्कण्डय पुराण में सृष्टि के अधिष्ठात्री देवी प्रकृति ने खुद को छः भागों में बांटा हुआ है और इसके छठे अंश को मातृ देवी के रूप में पूजा जाता है जो भगवान ब्रह्मा की मानस पुत्री है। बच्चे के जन्म के छठवें दिन बाद भी छठी मैया की पूजा की जाती है और माँ से प्रार्थना की जाती है की बच्चे को स्वस्थ, सफलता और दीर्घ आयु का वरदान दें।
चार दिविसीय छठ महापर्व :
छठ पर्व वर्ष भर में दो बार कार्तिक छठ पर्व और चैती छठ पर्व, दोनों माह के शुक्ल पक्ष चतुर्थी तिथि से सप्तमी तिथि तक मनाया जाता है। पहले दिन शुक्ल चतुर्थी को नहाय खाय के रूप में मनाया जाता है। सबसे पहले घर की साफ सफाई कर स्वच्छ व पवित्र बनाया जाता है। इसके बाद छठव्रति नदी तालाब या कुआं के जल मे स्नान कर पवित्र तरीके से कदू, चने की दाल और अरवा चावल का प्रसाद बनाकर भगवान को भोग लगाने के बाद व्रती को प्रसाद ग्रहण करने के बाद अन्य लोगों को प्रसाद खिलाया जाता है।
दूसरे दिन शुक्ल पक्ष पंचवी को व्रती दिनभर उपवास रहकर मीठा चावल, घी चुपड़ी रोटी और चावल का पीठा बनाकर शाम को भगवान भास्कर को भोग लगाकर व्रती भोजन प्रसाद ग्रहण करती हैं। उसके बाद लोगों को लोहंडा का प्रसाद ग्रहण करवाया जाता है। व्रती इस दिन नमक या चीनी का प्रयोग नही करती है। व्रती इसी समय के बाद व्रती लोग 36 घंटा का निर्जल उपवास व्रत शुरू हो जाता है।
तीसरे दिन शुक्ल पक्ष षष्ठी को दिन में छठ का प्रसाद बनाया जाता है। प्रसाद के रूप में ठेकुआ, चावल के लड्डू बनाते है। इसके अलावा प्रसाद के रूप में फल भी चढ़ाया जाता है। बांस की टोकरी में प्रसाद सजाकर अर्ध्य का सूप सजाया जाता है। व्रती लोग सपरिवार के साथ अस्ताचल गामी सूर्य भगवान को विधिवत पूजा करते हुए जल और दूध के अर्ध्य देती है।
चौथे दिन शुक्ल पक्ष सप्तमी को सुबह उगते उदयाचल सूर्य को व्रती लोग सपरिवार पुनः सूर्य भगवान को विधिवत पूजा करते हुए जल और दूध के अर्ध्य देती है। खरना के बाद शुरू हुआ व्रतियों का 36 घंटों का निर्जला उपवास अस्ताचलगामी सूर्य एवं उदीयमान सूर्य को अर्य्त देने के बाद संपन्न हो जाता है। इसके बाद व्रती लोग निर्जल उपवास को कच्चे दूध का शरबत और प्रसाद ग्रहण कर पूर्ण करती है। जिसे पारण कहते हैं।
सूर्य मंदिर देव छठ मेला :
देव छठ पर्व मेला वर्ष में दो बार चैत्र् एवं कार्तिक मास में शुक्लर पक्ष की षष्ठीर और सप्तमी तिथि को मेला लगता है। उस समय यहां लाखों की संख्या में श्रद्धालु गण छठ व्रत करने के लिए देश के हर कोने से यहाँ आते हैं। श्रधालु गण मंदिर के प्रांगण में आ कर भगवान् भास्कर को दण्डयवत करते हैं, अर्ध्यु दे कर पूजा करते है। कहा जाता है कि जो श्रद्धालु भक्त मन से इस मंदिर में भगवान् भास्कर की पूजा करते हैं, उनकी मनोकामनाएं पूर्ण होती है। यहां मंदिर के समीप स्थित सूर्यकुंड तालाब का विशेष महत्व है। इस सूर्यकुंड में स्नान कर व्रती भगवान् भास्कर की आराधना करते हैं। प्रत्येक रविवार को असंख्यम श्रधालु भक्तीगण देव सूर्य मंदिर आकर सूर्य कुण्डव में स्नारन के बाद भगवान भास्कभर का पूजन करते हैं। यहाँ सालोभर देश के विभिन्न जगहों से लोग इस मंदिर में दर्शन के लिए आते रहते हैं और मनौतियां मांगते हैं, मनौती पूरी होने पर यहां पर लोग भगवान् भास्कर को अरघ्य देने के लिए विशेषकर आया करते है। श्रधालू भक्तगण सपरिवार अपने बच्चों के मुंडन संस्कार कार्य कराने के लिये दूर-दूर से इस मंदिर परिसर में आते रहते हैं।
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