26 वीं अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर विशेष ...!!

●अपनी मातृभाषा का मजाक नहीं उड़ायें अपनी संस्कृति को बचाएं :
●मातृभाषा किसी भी समाज और संस्कृति की संवाहक होती है :
 भाषा को बचाना, संस्कृति को संरक्षित करना है : 
●मातृभाषा के संरक्षण के लिए एक जन अभियान की जरूरत :  
●हमारी मातृभाषाएं, हमारे वर्तमान को अतीत से जोड़ने वाला सूत्र हैं :
लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली

अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस 2025 का थीम है “भाषा का महत्व: अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस का रजत जयंती समारोह।” इस वर्ष का थीम भाषाई विविधता को बढ़ावा देने, लुप्तप्राय भाषाओं की रक्षा करने और बहुभाषी शिक्षा को प्रोत्साहित करने के प्रयासों को प्रदर्शित करने पर जोर दे रहा है। कोई भी भाषा जानना और उसमें महारत हासिल करना बुरा नहीं है, लेकिन किसी दूसरी भाषा में महारत हासिल करने के लिए आपको अपनी मातृभाषा का अच्छा ज्ञान होना चाहिए। अगर आपको अपनी मातृभाषा का ही ज्ञान नहीं है, तो आप विदेशी भाषा कैसे बोल पाएंगे? कोई इंसान अपनी संस्कृति और सभ्यता से अलग होकर अच्छा लेखक या कलाकार नहीं बन सकता। संस्कृति के संस्कार हमें मातृभाषा से ही मिलते हैं। और मातृभाषा के संस्कार हमें अपनी संस्कृति से जोड़ते हैं। मातृभाषा में हम अपनी बात अच्छी तरह कह और लिख सकते हैं, इसलिए इससे हमारे अंदर आत्मविश्वास विकसित होता है। विश्वगुरु रवींद्रनाथ टैगोर ने मातृभाषा को माँ की तरह ही आदरणीय कहा है, तो भारतेंदु हरिश्चंद्र ने उन्नति के लिए मातृभाषा को जरूरी माना है। 17 नवंबर, 1999 को यूनेस्को ने हर साल अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस 21 फरवरी को मनाने की घोषणा की। 
 हमारी पहचान है मातृभाषा ‘कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बानी’... ये कहावत मातृभाषा की महत्ता समझाने के लिए पर्याप्त है। विश्व में भाषाई व सांस्कृतिक विविधता व बहुभाषिता को बढ़ावा देने और विभिन्न मातृभाषाओं के प्रति जागरुकता लाने के उद्देश्य से हर साल 21 फरवरी को मातृभाषा दिवस मनाया जाता है। पहले विद्यालयों में अंग्रेजी शिक्षा इतना जोर-शोर से नहीं पढ़ाया जाता था, वहीं आज सिर्फ अंग्रेजी की मांग बढ़ने के कारण देश के बड़े-बड़े विद्यालयों के बच्चे हिंदी में पिछड़ते जा रहे हैं। आज हिंदी की दशा यह है कि बच्चों को सही उच्चारण में हिंदी बोलने या लिखने में दिक्कत आती है। उन्होंने कहा गांधी जी अंग्रेजी के विद्वान थे, लेकिन वे मातृभाषा में ही शिक्षा के पक्षधर थे। उन्होंने 'हिंद स्वराज' में लिखा था- 'मातृभाषा का स्थान दूसरी भाषा नहीं ले सकती। शिक्षा में विदेशी माध्यम बच्चों पर दबाव डालने, रटने और विदेशियों की नकल करने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करता है तथा उनमें मौलिकता का अभाव पैदा करता है।' मातृभाषा ही सबसे पहले इंसान को सोचने-समझने और व्यवहार की समझ देती है। मातृभाषा का व्याकरण नहीं सीखना पड़ता, वह स्वत: ही आ जाता है, इसलिए इस भाषा में सीखने से हमारा स्वाभाविक विकास होता है। मातृभाषा हमारी मानसिकता, समझ और भावनाओं को व्यक्त करती है, इसलिए यही हमारी पहचान है। अपनी मातृभाषा को लेकर हमें अपने भीतर भरपूर आत्मविश्वास होगा। अगर हमारी मातृभाषा मगही, हिंदी है, तो हमें अपने अंदर मगही, हिंदी बोलने का आत्मविश्प्वास होना चाहिए। हम दूसरी भाषाएं अवश्य पढ़ें, लेकिन मातृभाषा के प्रयोग में अपने भीतर हीन-भावना न लाएं। हम स्वयं को आधुनिक दिखाने के लिए मातृभाषा बोलने वालों की हंसी भी न उड़ाएं। हमारे अंदर मगही, हिंदी बोलने का आत्मविश्वास होना चाहिए। नेता अटल बिहारी वाजपेयी, अमिताभ बच्चन, आशुतोष राणा, मनोज वाजपेयी आदि कई मशहूर अभिनेता हैं, जो बड़े आत्मविश्वास के साथ हिंदी बोलते हैं। देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट हिंदी में फैसला लिखने की तैयारी में है। भारत आने वाले विदेशी मेहमान हिंदी बोलने की कोशिश करते हैं। दुनिया के कई देशों में जमकर हिंदी बोली जा रही है। हिंदी सबसे महत्वपूर्ण भाषा है। इस कारण इसे अंतरराष्ट्रीय भाषा का दर्जा मिलना चाहिए।
बिहार के मगध क्षेत्र में  बचपन से ही लोग अपने घरों में मगही, हिंदी भाषा का ज्ञान दिया जाता है। हिंदी दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा में से एक है। 21 फरवरी 1952 को ढाका यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने तत्कालीन पाकिस्तान सरकार की भाषायी नीति का कड़ा विरोध जताते हुए अपनी मातृभाषा का अस्तित्व बनाए रखने के लिए विरोध प्रदर्शन किया। पाकिस्तान की पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर गोलियां बरसानी शुरू कर दी लेकिन लगातार विरोध के बाद सरकार को बांग्ला भाषा को आधिकारिक दर्जा देना पड़ा।  
अगर हम चाहते हैं कि हमारी मगही, हिंदी भाषा को दुनिया के लोग अपनाएं, पूरी दुनिया पर हिंदी भाषा हावी हो तो, इसके लिए बहुत जरूरी है कि हम ऐसा काम करें ताकि बाहरी लोगों को हिंदी सीखने के लिए मजबूर होना पड़े। हिंदी को हावी करने का सबसे बढ़िया तरीका है की हम ऐसा शोध करें, जिससे जुड़ी पूरी बात सिर्फ हिंदी में हो। तभी विश्व में हिंदी का दबदबा बढ़ेगा। भारत विविध संस्कृति और भाषा का देश रहा है। साल 1961 की जनगणना के अनुसार भारत में 1652 भाषाएं बोली जाती हैं। वर्तमान समय भारत में 1365 मातृभाषाएं हैं, जिनका क्षेत्रीय आधार अलग-अलग है। 43 करोड़ लोग भारत में हिंदी बोलते हैं, हिंदी मॉरीशस, त्रिनिदाद-टोबैगो, गुयाना और सूरीनाम की प्रमुख भाषा है। फिजी की सरकारी भाषा हिंदी है। विश्व के सभी देशों के संविधान अपनी मातृभाषा में हैं, पर भारत का संविधान अंग्रेजी में बना है।
आज हमारे देश में अंग्रेजी बोलने वाले को अच्छी नजर से देखा जाती है। आज सभी अंग्रेजी के पीछे भाग रहे हैं। हमारे देश में अंग्रेजी का प्रचलन बढ़ता ही जा रहा है। कुछ लोग हिंदी बोलना शर्म और अंग्रेजी भाषा बोलना शान समझते हैं। भारत में आजकल लोग वहां भी अंग्रेजी बोलते हैं जहां जरूरत नहीं। उन लोगों के साथ अंग्रेजी में बात करते हैं जिन्हें अंग्रेजी समझ भी नहीं आती। भारत की सबसे बड़ी विडंबना है कि दुनिया के सभी देशों के संविधान मातृभाषा में है, लेकिन भारत का संविधान अंग्रेजी में बना। भारत में लोग भले ही अंग्रेज़ी बोल नहीं पाते अथवा लिख नहीं पाते हैं बावजूद इसके वे अंग्रेज़ी का उपयोग करने की कोशिश करते हैं। 40-50 वर्षों के दौरान भारत के विभिन्न हिस्सों की करीब 500 भाषाओं या बोलियों में से लगभग 300 भाषा विलुप्त हो चुकी हैं और 190 से ज्यादा आखिरी सांसें अब ले रही हैं।
जब हम भारत में रहते हुए भी हिंदी का प्रयोग नहीं करेंगे तो क्या अमेरिका व अन्य देशों के नागरिक प्रयोग करने के लिए आयेंगे? हमारी मानसिकता इस तरह की बनती जा रही है कि अंग्रेजी बोलने वाला ही ज्ञानी और बुद्धिमान होता है, हम सोचते हैं कि अंग्रेजी सीखे बिना कोई देश तरक्की नही कर सकता है, लेकिन जापान, चीन फ्रांस और जर्मनी ये वो देश हैं जो अपनी मातृभाषा में पढ़-लिखकर आगे बढ़ रहे हैं, तरक्क़ी कर रहे हैं। 
आंकड़े बताते हैं कि पिछली सदी में, लगभग 400 भाषाएं विलुप्त हो गयी हैं, और कई भाषाविदों का अनुमान है कि दुनिया की शेष 6,500 भाषाओं में से आधी इस सदी के अंत तक विलुप्त हो जायेंगी। आज, दुनिया की दस शीर्ष भाषाएं दुनिया की आधी आबादी पर अपना आधिपत्य स्थापित कर चुकी हैं। क्या भाषा की विविधता को संरक्षित किया जा सकता है, या हमें संरक्षित करना चाहिए? यह एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है। भाषा और संस्कृति एक दूसरे के संपूरक हैं। किसी एक का अस्तित्व दूसरे के बिना संभव नहीं। मानवशास्त्र के अनुसार यदि भाषा नहीं हो तो एक समाज का अस्तित्व ही नहीं होगा।
भाषा किसी भी समाज और संस्कृति की संवाहक होती है जिसके द्वारा सांस्कृतिक धरोहर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित होती है। भाषा का संरक्षण और संवर्द्धन आदिवासी समाज में अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि आदिवासी समाज आज भी मौखिक परंपरा पर जीवित है। इनका समय रहते प्रलेखन अत्यावश्यक है क्योंकि भाषा ने ही हमारी समृद्ध संस्कृति को अतीत में जीवित रखा।
कई भाषाविद् बताते हैं कि भाषाएं आम तौर पर सामाजिक रूप से कमजोर तब होतीं हैं जब एक समाज या समूह अपनी मातृभाषा छोड़ कर अन्य भाषा की ओर विस्थापित होता है।
ज्यादा प्रचलित और मुख्यधारा की भाषाएं नौकरियों, शिक्षा और अन्य अवसरों तक पहुंचने के लिए महत्वपूर्ण हैं और कभी-कभी ये अनिवार्य भी बन जाती हैं। कभी-कभी, विशेष रूप से आप्रवासी समुदायों में, माता-पिता अपने बच्चों को उनकी मातृभाषा छोड़ अन्य भाषा सीखने के लिए प्रेरित या बाध्य करते हैं। इसे जीवन में उनकी सफलता के लिए अनिवार्य मानते हैं। 
 हमारे प्रदेश में भी कई बड़े स्कूल हैं जहां फ्रेंच और जर्मन सिखायी जाती हैं पर हमारी मातृभाषा दरकिनार कर दी जाती है। आज लोग व्यावसायिक भाषा को अधिक महत्व देते हैं और बोलचाल में हिंदी, अंग्रेजी का प्रयोग अधिक करते हैं। मैं नहीं कहता कि यह गलत है, किंतु मेरा और एक महत्वपूर्ण प्रश्न है- इन सबके बीच अपनी मातृभाषा का त्याग क्यों? बहुभाषी होना बहुत कठिन नहीं है।
लुप्तप्राय भाषाएं बोलनेवालों के उत्पीड़न का लंबा इतिहास है। हमारे आदिवासी बच्चे जब स्कूल जाते हैं तो अक्सर उन्हें अपनी मूल भाषा इस्तेमाल करने का अवसर नहीं मिलता है। हमारी अध्ययन व्यवस्था इसे और कठिन बनाती है। इसके अलावा, हमारे अनेक लोग अपनी मातृभाषा के उपयोग को हीन दृष्टि से देखते हैं। 
यहां आपको बता दूं कि भाषा मात्र लिखने या संजोये रखने से नहीं बचेगी, इसे बचाये रखने के लिए इसका अभ्यास और निरंतर उपयोग करना होगा। संस्कृतियां एक विशेष पर्यावरणीय संदर्भ में विकसित हुई हैं। इसलिए जब भाषा मर जाती है, तो उस ज्ञान का अधिकांश हिस्सा उसके साथ चला जाता है और फिर बच्चे भाषा सीखना बंद कर देते हैं, वे भी उस पारंपरिक ज्ञान को प्राप्त करना बंद कर देते हैं।
ऑस्ट्रेलिया के अनेक सरकारी कार्यक्रमों की शुरुआत इस उद्घोषणा के साथ होती है- “हम इस भूमि के पारंपरिक स्वामी, यहां के आदिवासियों का आभार व्यक्त करते हैं। हम उन सभी अतीत के आदिवासी पुरखों, वर्तमान आदिवासी समुदाय और इस पवित्र भूमि की आनेवाली पीढ़ी का भी आभार और सम्मान व्यक्त करते हैं”। यह इस बात की परिचायक है कि आदिवासी संस्कृति भले ही अलिखित है किंतु अपने आप में अत्यंत समृद्ध है।
आज जब सारा विश्व अनेक संकटों से गुजर रहा है तब आदिवासी जीवन शैली में निदान ढूंढा जा रहा है। ऐसे में आदिवासियों की पारंपरिक जीवन पद्धति को समझना आवश्यक हो जाता है। इस ज्ञान को समझना थोड़ा जटिल होता है और इसलिए ऐसे ज्ञान के खजाने को प्रलेखन के माध्यम से संरक्षित करना ही होगा।
 
 भाषाविद तेजी से लुप्त हो रही भाषाओं की विविधता को दस्तावेज और संग्रह करने के लिए प्रयासरत हैं। उनके प्रयासों में शब्दकोश बनाना, इतिहास और परंपराओं को रिकॉर्ड करना और मौखिक कहानियों का अनुवाद करना शामिल है।
अगर वास्तव में अच्छा प्रलेखन है, तो एक मौका है कि इन भाषाओं को भविष्य में पुनर्जीवित किया जा सकता है। ऐसे समय में, आवश्यक है कि हम अपने घरों में मातृभाषा का बोलने-चालने में उपयोग आज से ही करें और इसे अनिवार्य रूप से प्राथमिक और उच्च शिक्षा में पुनर्जीवित करने के प्रयासों को एक नयी गति दें।
विश्व की असंख्य भाषाओं में, हमारी अपनी मातृभाषा का हमारे हृदय में विशेष स्थान होता है। मातृ भाषा में बोला गया हर शब्द आपकी भावनाओं को दूसरों तक पहुँचा देता है।
हम अपनी मातृ भाषाओं को सुरक्षित रखें, उनका प्रयोग करते हुए गर्व करें, तभी हमारी मातृ भाषा और विकसित होगी। भारत में सैकड़ों भाषाएं और हजारों बोलियां रही हैं। यह भाषाई विविधता ही हमारी सनातन सभ्यता को विशिष्ट बनाती है। सदियों पुरानी इस भाषाई विविधता के बावजूद, हमारा परस्पर संपर्क और संवाद मजबूत और सौहार्दपूर्ण रहा है।
अंत में यह याद रखें कि भाषा ही लोगों के बीच संवाद का वह सूत्र है जो किसी समुदाय को बनाता है। अगर हम अपनी मातृभाषा को भूलते हैं तो हम अपनी पहचान खोते हैं, अपना आत्म सम्मान, अपना आत्म विश्वास खो देते हैं। हम अपनी मातृभाषा में बोलने, बात करने गौरव महसूस करना चाहिए और इस अमूल्य निधि को भावी पीढ़ियों के लिए संरक्षित रखना चाहिए।

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