इंसानियत की मल्लिका बीबी सोगरा की 116 वीं पूण्यतिथि पर विशेष ...!!
● विश्व इतिहास के फलक पर पुण्यात्मा बीबी सोगरा
● बीबी सोगरा ने स्वयं मोतवल्ली बनकर कीर्तिमान स्थापित किया
लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली
बीबी सोगरा एक प्रबुद्ध, सामाजिक रूप से जागरूक और बुद्धिमान महिला थीं, जिन्होंने अपनी संपत्ति अपने रिश्तेदारों को देने के बजाय समुदाय और देश की सेवा में दान करने का विकल्प चुना। भारतीय समाज एक परम्परागत समाज रहा है। भारतीय समाज अति प्राचीन काल में एक प्रकार का साम्यवादी समाज था जिसमें निजी सम्पत्ति का जन्म अभी नहीं हुआ था। निजी सम्पत्ति के जन्म के साथ ‘राजा’ का भी जन्म हुआ एवं युद्ध से जीती गई सम्पत्ति विजेता की हो गई जिसे वितरित करना उसकी अपनी इच्छा पर था। पीडि़तों की सहायता करना प्राचीनकाल से भारत की परम्परा रही है।
हमारे देश भारत में बिहार का इतिहास बहुत ही विशाल और समृद्ध है। महान राजाओं, स्वतंत्रता सेनानियों, क्रांतिकारियों की कहानियों को सुनकर मन जोश से भर जाता है। कई बार लगता है कि काश! वह जमाना मैंने भी देखा है। हालांकि, पुरुषों के शौर्य और वीरता की गाथाएं तो बहुत सी जगह पर सुनने के लिए मिले हैं। लेकिन आज हम आपको भारतीय इतिहास की महान और शक्तिशाली महिला बीबी सोगरा के बारे में बताना चाहते हैं। बिहार के इतिहास में बीबी सोगरा का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है। क्योंकि वो खुद को किसी पुरुष से कम नही मानती थी।
शंखनाद के अध्यक्ष इतिहासकार डॉ. लक्ष्मीकांत सिंह के अनुसार राजा, व्यापारी, जमींदार तथा अन्य सहायता संगठन धर्म के पवित्र कार्य को संपन्न करने के लिए एक दूसरे की सहायता करने में आगे बढ़ने का प्रयत्न करते थे। हडप्पा संस्कृति से लेकर बौद्ध काल तक जनता की भलाई के लिए उपदेश दिए जाते थे। बुद्ध अपने जीवन काल में काफी लोगों को उपदेश दिया करते थे। मौर्यकाल में भी जनता की भलाई के लिए उपदेश दिए गए। अशोक ने भी कहा कि सहायता के लिए मेरी प्रजा किसी भी समय मुझसे मिल सकती है चाहे मैं अन्तल:पुर में ही क्यों न रहूँ। गुप्तिकाल एवं हर्ष के काल में भी इसी प्रकार की व्यवस्थाएं देखने को मिलती हैं। भारत में जब मुसलमान आये तो उन्होंने भी अपने धर्म के आदेशानुसार दान-पुण्य पर अधिक धन व्यय किया। इस्लाम में ज़कात एक महत्वपूर्ण तत्व है जिसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिवर्ष अपनी सम्पत्ति, विशेष प्रकार से धन या स्वर्ण का ढाई प्रतिशत भाग ज़कात के रूप में व्यय करना आवश्यक है ज़कात की रकम निर्धन एवं अभावग्रस्त् व्यक्तियों पर व्यय की जाती है। इसके अतिरिक्त इस्लाम में एक संस्था खैरात की भी है जिसके अनुसार अभावग्रस्त व्यक्तियों की आर्थिक सहायता व्यक्तिगत रूप से की जाती है। इसके लिये कोई दर निश्चित नहीं है और यह इच्छानुसार दी जाती है। अब समय बदल रहा है। महिलाएं पुरुषों के कदम से कदम बढ़ाकर आगे बढ़ रही हैं। हर क्षेत्र में महिलाओं ने अपनी धाक जमाई है। मोहतरमा बीबी सोगरा भी इसी कड़ी के समाजसेविका महिला रही है।
विश्व इतिहास के फलक पर पुण्यात्मा बीबी सोगरा :
विश्व इतिहास के फलक पर ऐसे अनेक संतों, फकीरों और दिव्य पुण्यात्माओं की पैदाइश हुई है, जिन्होंने लोक- कल्याण के लिए अपने तन-मन और धन अर्पित कर इतिहास का रुख ही बदल दिया। ऐसी आत्माओं के भीतर व्यापक जीवन-दृष्टि होती है। उनमें जाति, धर्म और सम्प्रदाय की संकीर्णता नहीं रहती। ऐसी ही महान विभूतियों के बीच हम कहीं न कहीं मोहतरमा बीबी सोगरा की छवि देखते हैं। कहना न होगा कि जब तक इस धरती पर नालन्दा जिले का अस्तित्व कायम रहेगा, तब तक किसी शिक्षण-संस्थान, किसी अस्पताल और सामाजिक, धार्मिक संगठनों-संस्थाओं में हम उनके उदार व्यक्तित्व की रोशनी देखते रहेंगे।
यह नालन्दा जिला, जहाँ हम बीबी सोगरा के उदार व्यक्तित्व की झलक पाते हैं, कभी मगध साम्राज्य का केन्द्र था। मगध ने अपने राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्र का इतना व्यापक विस्तार किया कि सम्पूर्ण विश्व में इसकी अलग पहचान बन गयी। विश्व इतिहास में नालन्दा का अलग और स्वतंत्र अध्याय कायम हो गया। मगध की उस सरजमीन पर तब बिहारशरीफ एक छोटा-सा नुक्ता था। इसकी चहारदीवारी के भीतर चैत्य, और विहार थे,जिनसे ज्ञान-विज्ञान, धर्म, दर्शन और कला-कौशल की किरणें फूटती थीं। मगध की गरिमा का प्रतीक नालन्दा के दामन में उभर आया यह बिहारशरीफ। धीरे-धीरे समय ने करवटें ली और आपसी दूरियाँ बढ़ने लगी। तब सूफी संत मखदुम साहब, बाबा मणिराम ने अपने उदार व्यक्तित्व से मिल्लत की राह दिखलायी। उसी पावन धरती पर मोहतरमा बीबी सोगरा का किया हुआ कार्य हमें उदारता, सहिष्णुता, मिल्लत और आपसी सद्भाव की रोशनी दिखा रहा है।
बीबी सोगरा का जन्म और पारिवारिक जीवन :
बीबी सोगरा बिहार राज्य के नालंदा जिले के ऐतिहासिक शहर बिहारशरीफ की एक प्रसिद्ध परोपकारी व एक महान व्यक्तित्व वाली महिला थीं। देशभक्ति से ओतप्रोत इनके सीने में अनाथों और गरीबों के प्रति काफी सहानुभूति थी। वे शिक्षा को सबसे बड़ी ताकत मानती थीं। उन्होंने भारत की जनता को शिक्षित करने, उन्हें पतन और गरीबी तथा पराधीनता से मुक्त कराने के लिए अपनी सारी संपत्ति ईश्वर की राह में समर्पित कर दिया। ताकि, समाज से अज्ञानता का खात्मा हो सके। ऐसी महान् और रहमदिल इन्सान-मूर्ति बीबी सोगरा का जन्म जिला मुंगेर के मौजा हसौली में मौलवी समद के घर हुआ। ये बचपन से ही धार्मिक और उदार प्रकृति की थीं। समय के जिस मोड़ पर लोग अपने जीवन को नये-नये सपनों से सजाते हैं, उस अवस्था में भी बीवी सोगरा का ख्याल आम लोगों के दुःख-दर्द की ओर जाता था। दूसरे के दुःख को देखकर दुखित होना, उसकी सहायता करना और सामाजिक मेल-मिलाप की बातें करना उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति थी। उनके सम्बन्ध में ऐसे अनेक प्रसंग आते हैं, जिनमें उनकी उदार भावना का परिचय मिलता है। दयानतदारी तो उनके रोम-रोम में भरी थी। लेकिन कौम में पर्दा-प्रथा के चलते उनकी इन भावनाओं का व्यापक विस्तार सम्भव नहीं हो सका। वह खुद संस्कार भावना को माननेवाली थीं। इस तरह स्मृति के झरोखे एक परम्परावादी व्यक्तित्व के भीतर प्रगतिशील व्यक्तित्व की किरणें फूट रही थीं।
बीबी सोगरा का निकाह और विपत्तियों का बज्रपात :
समयानुसार बीबी सोगरा का निकाह मौलवी अब्दुल अजीज साहब साकिन मौजा मोहनी, जिला नालंदा से हुआ। शादी के बाद ससुराल में उनकी मिलनसार भावनाओं और धार्मिक रुचियों की बहुत ही तारीफ हुआ करती थी। पास-पड़ोस के सभी कौम के बच्चों के साथ उनका वात्सल्य और बुजगों के साथ लिहाज तो चर्चा का विषय बने रहे थे। कुछ दिनों के बाद वह माँ बनीं। उनकी गोद में कदीरन बेटी खेलने लगी। अल्लाह ने उसे कदीरन के रूप में ही एक संतान को पलने और बढ़ने का मौका दिया। कदीरन की शादी दियावां (नालन्दा) के अली अहमद के साथ हुई। लेकिन कुछ ही दिनों के बाद मोहतरमा कदीरन लावल्द ही अल्लाह को प्यारी हो गयी। बीबी सोगरा में अथाह धैर्य था। वह एकलौती संतान के संताप और विछोह को सहने के लिए मजबूर हो गयी। अभी घाव भरा भी नहीं था कि बेटी कदीरन की मौत से दुखित उनके शौहर मौलवी अब्दुल अजीज साहब भी चल बसे। यह तो उनके ऊपर दु:ख का पहाड़ टूट ही पड़ा था। अब बीबी सोगरा लावल्द और बेवा दोनों का दुःख सहने के लिए रह गयीं।
एक ओर विपत्तियों का ऐसा आलम और इतना बड़ा बज्रपात और दूसरी ओर बहुत बड़ी सम्पत्ति की देख-रेख। बीबी सोगरा के ससुर मौलवी फजल इमाम, जो सरिश्तादार थे, ने मुंगेर, दरभंगा, गया, मुजफ्फरपुर और तत्कालीन पटना जिले में बहुत बड़ी जायदाद अर्जित की थी। वे बिहारशरीफ के लहेरी महल्ला में आकर बस गये थे। इस तरह बीबी सोगरा बिहारशरीफ की बन गयीं। उनके सामने बाबा मणिराम और मखदुम के आदर्श मौजूद थे। इतनी बड़ी जायदाद, जिस पर दूर दराज के लोग भी नजर गड़ाए हुए थे, उसको सहेजने और सम्हालने में मोसमात बीबी सोगरा ने जिस दूरदर्शिता, साहस और उदारता का परिचय दिया, वह काबिले तारीफ है। उनकी हवेली से लेकर जोत-जायदाद के नौकर-चाकर व बराहिल तक कभी दुखी नहीं हुए। अपने आश्रितों के घर-परिवार तक की खोज-खबर और हिफाजत पर उनका खास ख्याल रहता था।
मोहतरमा बीबी सोगरा का व्यक्तित्व काबिले तारीफ :
मोहतरमा बीबी सोगरा के व्यक्तित्व की सबसे महत्त्वूपर्ण और काबिले तारीफ बात यह है कि इतनी बड़ी मिल्कियत की मालकिन होकर भी उन्होंने अपने भीतर कभी अहंकार को पनपने नहीं दिया। वह बेहद नेक और रहमदिल खातून थी। गरीबों और जरूरतमंदों की सहायता करती थीं। उदार दृष्टि, धार्मिक प्रवृत्ति और सामाजिक चेतना तो उनमें बचपन से ही कूट-कूट कर भरी थी। इधर शौहर और इकलौती औलाद की मौत ने तो उनकी दुनिया ही बदल दी। उन्होंने अपनी औलाद का विस्तार जन-जन में देखा और ऐसा अनुभव हुआ कि आम जन-जीवन की सेवा अपनी औलाद की सेवा है। सचमुच उन्होंने अपनी पीड़ा को विश्व-पीड़ा और विश्व-पीड़ा को अपनी पीड़ा बना लिया। इसीलिए अपनी बीस लाख की जायदाद को 1892 ई. में वक्फ कर दिया। वक्फनामा 21 सितम्बर 1896 ई. में बना। यह वक्फनामा और कुछ नहीं, उनके रहमोकरम और दरियादिली की एक मिसाल है।
बीबी सोगरा ने स्वयं मोतवल्ली बनकर कीर्तिमान स्थापित किया :
मोहतरमा बीबी सोगरा ने स्वयं मोतवल्ली के रूप में स्थापित अपने खर्च के लिए एक मामूली रकम तय कर दी। उसके जीवन यापन में कोई बाधा ना आए। मोतवल्ली के रूप में लगभग 12 साल जीवित रही और 3 मार्च 1909 ई. को आपके प्राण पखेरू आपका शरीर त्यागकर परलोक को सिधार गए। यह अपार दुख का विषय है कि उनके संबंधियों ने उनके देहांत के पश्चात भी षड्यंत्र रचते रहे। जैसे ही उनकी मृत्यु हुई उन लोगों ने उनका बनाया हुआ वसीयतनामा गायब कर दिया। और उनकी लाश के अंगूठे का निशान सादा कागज पर ले लिया। उसके उपरांत एक नया वसीयतनामा तैयार कर लिया। ऐसा प्रतीत होता है कि यह सब षड्यंत्र पहले ही तय कर लिया गया, यही कारण है कि बीबी सोगरा के बाद मोतवल्ली बनने वाले मूसा साहब को बहुत परेशानियों से जूझना पड़ा। सुनते हैं कि ऊपर वाले के यहां देर है अंधेर नहीं। मूसा साहब को अदालत से इंसाफ मिला और सोगरा बफ स्टेट बेईमानों के चंगुल से बेईमानों के चंगुल में जाने से बच गया।
बीबी सोगरा ने अपने आमदनी के खर्च को बारह मदों का बाँटा :
अपनीं इस 20 लाख की जायदाद से प्राप्त आमदनी के खर्च हेतु उन्होंने स्पष्ट तौर पर बारह मदों का निर्धारण किया। इनमें सर्वाधिक बड़ा भाग छ: आने का खर्च मदरसा और अन्य शैक्षिक मद में निर्धारित किया गया। इसी व्यापक दृष्टि और सामाजिक चेतना का परिणाम हमारे सामने आज सोगरा स्कूल है, जिसका विस्तार कॉलेज तक हुआ। मध्य विद्यालय, उच्च विद्यालय, महाविद्यालय और लॉ कॉलेज के रूप में, बीबी सोगरा की दयानतदारी को हम आज भी देख रहे हैं। इसी तरह मदरसा अजीजिया उन्हीं पुण्य आत्मा की परछाई है। इन जगहों पर पठन-पाठन करके लाखों-लाख लोग अपना जीवन संवार चुके हैं और संवार रहे हैं तथा भविष्य में भी परम्परा कायम रहेगी। उन असंख्य लोगों के दिलों से हमेशा उस पुण्यात्मा के लिए दुआ के शब्द निकलते रहेंगे, जो कयामत की रात उन्हें सर्वोपरि स्थान दिला देंगे। असंख्य लोगों के भीतर उनकी परछाई मिलती रहेगी। इसी तरह उन्होंने खैरात की दवा और इलाज के लिए भी एक मद कायम किया। शादी-विवाह, आपदा, बीमारी व गमी के वक्त पर बीबी सोगरा साम्प्रदायिकता के दायरे से ऊपर उठकर हिन्दू मुसलमान दोनों के सेवार्थ तन-मन और धन से जा लगती थीं।
वर्षों से बिहार शरीफ़ में मौजूद मदरसा अज़ीज़िया 1896 में पटना में क़ायम किया गया था, संस्थापक थीं बीबी सोग़रा जिन्होंने इसे अपने पति अब्दुल अज़ीज़ की याद में बनवाया था। मुस्लिमों में मॉडर्न तालीम की मुहिम से जुड़े मज़हर अलीम अंसारी की किताब 'सफ़रनामा मज़हरी' में ज़िक्र है कि सोग़रा बीबी ने तभी एक वक़्फ़नामा के ज़रिये अपनी सारी जायदाद, जिसकी सालाना आमदनी उन्नीसवीं सदी में सवा लाख रुपये और कुल भूमि 28,000 बीघे से ज़्यादा थी, शिक्षा के विस्तार और मानवता की सहायता के लिए दान कर दी थी। बाद में इसी वक़्फ़ ने बिहार शरीफ़ में 1912 में सोग़रा हाई इंग्लिश स्कूल, फिर कॉलेज, दवाख़ाना, हॉस्टल्स वग़ैरह क़ायम किए जो आज भी काम कर रहे हैं।
उदारता की जबर्दस्त मिसाल थी बीबी सोगरा :
अपने शाषनकाल में बीबी सोगरा ने अपने वफ्फ में कानून की व्यवस्था को उचित ढंग से करवाया। उसने व्यापार को बढ़ाने के लिए इमारतो के निर्माण करवाए, सडके बनवाई और कुएं खुदवाए। उसने शिक्षा व्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए कई विद्यालयों, अस्पतालों और पुस्तकालयों का निर्माण करवाया। उसने सभी संस्थानों में मुस्लिम शिक्षा के साथ साथ हिन्दू शिक्षा का भी समन्वय करवाया। उसने कला और संस्कृति को बढ़ाने के लिए कवियों ,कलाकारों और संगीतकारो को भी प्रोत्साहित किया था।
वफ्फनामें में खुद बीबी सोगरा केवल एक मोतबल्लिया के रूप में रहीं। यह उनकी उदारता की एक जबर्दस्त मिसाल है। अपनी इतनी बड़ी सम्पत्ति वक्फ करके उसमें मात्र एक कार्यकर्ता के रूप में रहना-कितनी बड़ी महानता है। इससे उन्होंने मोतबली की परम्परा कायम की। ऐसी महान थी बीबी सोगरा, जो ईद और बकरीद को छोड़कर सालो भर रोजा रखती थीं। इतनी बड़ी सम्पति की मालकिन होकर खुद मिट्टी के बर्तन में भोजन करती थीं और उनका भोजन भी एकदम सादा हुआ करता था। मोटा लाल सिरहट्टी चावल उनका प्रिय भोजन था। रात को तपस्या और इबादत करती थीं। धर्मावलम्बियों, संन्यासियों, फकीरों और महात्माओं की कद्र करना उनकी स्वाभावगत प्रवृत्ति की बात मानी जानी चाहिए। एक सामान्य महिला के भीतर असामान्य धर्मनिरपेक्ष भाव विद्यमान था। अगर वक्फनामें को गौर से देखा जाय तो पता चलेगा कि उन्होंने जेहालत को कभी कबूल नहीं किया। उन्हें साम्प्रदायिकता से सख्त नफरत थी। इसलिए उन्होंने वक्फनामें में स्पष्ट जिक्र किया है कि सोगरा कमिटी में जितने लोग होंगे, वे सबके सब पढ़े-लिखें होंगे। तो ऐसी थी मोहतरमा बीबी सोगरा, जिनकी रूह आज भी सोगरा स्कूल, सोगरा कॉलेज, सोगरा लॉ कॉलेज, मदरसा अजीजिया से लेकर अन्य सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय संगठनों में कौमी एकता, राष्ट्रीयता, धर्म एवं सांस्कृतिक समन्वय में दिखाई पड़ जाती है। सच कहा जाय तो आज भी उनकी वही शान है, जो सौ वर्ष पहले थी।
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