भोजपुरी और पूरबी के बेताज बादशाह महेंदर मिसिर की 139 वीं जयंती पर विशेष ..!!

●महेंदर मिसिर जी मगही-भोजपुरी और पुरबी के उत्कृष्ट गीतकार थे
 ●मिसिरजी स्वाधीनता आन्दोलन के क्रांतिकारियों की खुले हाथों से सहायता किया
 ●लोक कलाकार भोजपुरी भाषा के शेक्सपियर भिखारी ठाकुर और महेंदर मिसिरजी दोनों समकालीन मित्र थे

लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली
पाकल पाकल पानवा खिअवले गोपीचनवा पिरितिया लगा के ना, हंसी हंसी पानवा खिअवले गोपीचानवा पिरितिया लगा के ना… मोहे भेजले जेहलखानवा रे पिरितिया लगा के ना…। महेंदर मिसिर भारत के लोकप्रिय क्रांतिकारी-गायक, महान स्वतंत्रता सेनानी, देशानुरागी, देशप्रेमी, पुरबी सम्राट, प्रख्यात गीतकार, निर्भीक गायक एवं ओजस्वी आशुकवि थे। बिहार की उर्वर भूमि जुझारू एवं कर्मठ व्यक्तित्व को जन्म देती रही है। 

महेंदर मिसिर का जन्म और पारिवारिक जीवन :

बिहार के सारण जिले में छपरा शहर से 12 किलोमीटर उत्तर बनियापुर मार्ग पर जलालपुर प्रखंड के सटे मिसिरवलिया गाँव में 16 मार्च, 1886 दिन मंगलवार को माता गायत्री देवी और पिता शिवशंकर मिसिर के लाडले महेंद्र मिसिर का जन्म हुआ था। कौशिक गोत्रीय इस कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार के पूर्वज उत्तर प्रदेश के लगुनहीं-धरमपुरा गाँव से तीन सौ वर्ष पूर्व आकर वहाँ बस गए थे। छह भाइयों में महेंदर सबसे बड़े थे। शेष भाई थे- गोरखनाथ, त्रिगुणानंद, विंदा, केदार तथा वटेश्वर। लगुनहीं धरमपुरा (कानपुर) के पश्चिमी छोर से पूरव की ओर बढ़ते हुए
काहीं मिसिरवलिया में आ बसे पूर्वज की पाँचवीं पीढ़ी के रूप में महेंद्र मिसिर का जन्म हुआ था। माँ गायत्री देवी धर्मपरायण गृहिणी थीं। नारी स्वर में गाए जानेवाले संस्कार गीत उन्हें कंठस्थ थे और विभिन्न अवसरों पर उनके गाए गीत श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते थे। पिता शिवशंकर मिसिर आध्यात्मिक प्रवृत्ति के गृहस्थ थे और पूजा-पाठ में उनकी गहरी आस्था थी। वह कर्मकांडों के भी ज्ञाता थे और गाँव-जवार में उन्हें मान-सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। जब माँ-पिता के पूजा-पाठ और लंबी प्रतीक्षा के बाद महेंदर का जन्म हुआ तो महीनों तक सोहर गवाने का सिलसिला चलता रहा था।  
बालक महेंदर का बचपन लाड़-प्यार में बीता, पर ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते ज़रूरत से ज्यादा ममत्व-दुलार ने मनमोजी बना दिया। उनकी स्कूली पढ़ाई नहीं हुई। महेंदर मिसिर यानि पुरबी सम्राट छपरा के मिसरवलिया गांव में जनमे जरूर लेकिन छपरा, मुजफ्फरपुर से लेकर बनारस, कलकत्ता तथा पूरा मगधांचल के जनमानस में रचे-बसे रहे। दुनिया को प्रेम नगरिया बतानेवाले महेंदर मिसिर की पहचान कई रूपों में बनी, गीतकार के रूप में, देशप्रेमी के रूप में, गवैया के रूप में, बजवैया के रूप में, स्वतंत्रता सेनानी के रूप में भी दुनियाभर में चर्चित रहे। महेंदर मिसिर जी उत्कृष्ट कोटि के गीतकार थे। एक ऐसे गीतकार जो निजी तौर पर देशभक्तों को पैसे से मदद कर रहे थे, लेकिन देशभक्ति के गीत नहीं रच रहे थे, बल्कि वे अपने गीतों के जरिये समाज को प्रेमी समाज, स्त्री मन को समझने वाला और प्रेम के जरिये दुनिया को खूबसूरत बनानेवाला समाज बनाने में ऊर्जा लगा रहे थे। उन्होंने वर्षों पहले ऐसे गीत रचे, जिसे आज भी गाया जाये और सुना जाये तो लगेगा कि जैसे आज के लिए ही लिखे थे वे।

महेंदर मिसिर के लिखे गीतों को महफ़िलों में गाया जाता था :

यह ज्ञात तथ्य है कि कलकत्ता, बनारस, मुजफ्फरपुर आदि जगह की कई तवायफें महेंदर मिसिर को अपना गुरु मानती थी। इनके लिखे कई गीतों को उनके कोठों पर सजी महफ़िलों में गाया जाता था। पूरबी की परंपरा का सूत्र पहले भी दिखा है लेकिन उसकी प्रसिद्धि महेंदर मिसिर से ही हुई। चूँकि मिसिर जी हारमोनियम, तबला, झाल, पखाउज, मृदंग, बांसुरी पर अद्भुत अधिकार रखते थे तो वहीं ठुमरी टप्पा, गजल, कजरी, दादरा, खेमटा जैसी गायकी और अन्य कई शास्त्रीय शैलियों पर जबरदस्त अधिकार भी था। इसलिए उनकी हर रचना का सांगीतिक पक्ष इतना मजबूत है कि जुबान पर आसानी से चढ़ जाते थे सो इन तवायफों ने उनके गीतों को खूब गाया भी। उनकी पूरबी गीतों में बियोग के साथ-साथ गहरे रूमानियत का अहसास भी बहुत दिखता है जो कि अन्य भोजपुरी कविताओं में कम ही दिखायी देती हैं।

महेंदर मिसिर नकली नोट की छपाई और गोपीचंद जासूस :

मिसिरजी का कलकत्ता आना जाना खूब होता था। तब कलकता न केवल बिहारी मजदूरों के पलायन का सबसे बड़ा केंद्र बल्कि राजनीतिक गतिविधियों की भी सबसे उर्वर जमीन बना हुआ था। कलकते में ही उनका परिचय एक अंग्रेज से हो गया था जो उनकी गायकी का मुरीद था। उसने लन्दन लौटने के क्रम में नकली नोट छापने की मशीन महेंदर मिसिरजी को दे दी जिसे लेकर वह गाँव चले आए और वहाँ अपने भाईयों के साथ मिलकर नकली नोटों की छपाई शुरू कर दी और सारण इलाके में अपने छापे नकली नोटों से अंग्रेजी सत्ता की अर्थव्यवस्था की रीढ़ तोडनी शुरू कर दी। उनहोंने कहा कि महेंदर मिसिर ने अपने सुख-स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि शोषक ब्रिटिश हुकूमत की अर्थव्यवस्था को धराशायी करने और उसकी अर्थनीति का विरोध करने के उद्देश्य से नोट छापते थे’। इस बात की भनक लगते ही अंग्रेजी सरकार ने अपने सीआईडी जटाधारी प्रसाद और सुरेन्द्र लाल घोष के नेतृत्व में अपना जासूसी तंत्र को सक्रिय कर दिया और अपने जासूस हर तरफ लगा दिए। सुरेन्द्रलाल घोष तीन साल तक महेंदर मिसिर के यहाँ गोपीचंद नामक नौकर बनकर रहे और उनके खिलाफ तमाम जानकारियाँ इकट्ठा की।

जासूस गोपीचंद के इशारे पर महेंदर मिसिर को पकड़ा :

16 अप्रैल 1924 को गोपीचंद के इशारे पर अंग्रेज सिपाहियों ने महेंदर मिसिर को उनके भाइयों के साथ पकड़ लिया। गोपीचंद की जासूसी और गद्दारी के लिए महेंदर मिसिर ने एक गीत गोपीचंद को देखते हुए गाया– पाकल पाकल पानवा खिअवले गोपीचनवा पिरितिया लगा के ना, हंसी-हंसी पानवा खिअवले गोपीचानवा पिरितिया लगा के ना… मोहे भेजले जेहलखानवा रे पिरितिया लगा के ना… गोपीचंद जासूस ने जब यह सुना तो वह भी उदास हो गया। उन्होंने बताया पटना उच्च न्यायालय में महेंदर मिसिर के केस की पैरवी विप्लवी हेमचन्द्र मिश्र और मशहूर स्वतंत्रता सेनानी चितरंजन दास ने की। महेंदर मिसिर की लोकप्रियता का आलम यह था कि उनके गिरफ्तारी की खबर मिलते भी बनारस से कलकत्ता की तवायफों ने विशेषकर ढेलाबाई, विद्याधरी बाई, केशरबाई ने अपने गहने उतार कर अधिकारीयों को देने शुरू कर दिए कि इन्हें लेकर मिसिर जी को छोड़ दिया जाए। सुनवाई तीन महीने तक चली। लगता था कि महेंदर मिसिर जी छूट जाएँगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ और उन्होंने अपना अपराध कबूल लिया। महेंदर मिसिर को दस वर्ष की सजा सुना दी गई और बक्सर जेल भेज दिया गया। महेंदर मिसिर के भीतर के कवि, गायक ने जेल में जल्दी ही सबको अपना प्रशंसक बना लिया और उनके संगीत और कविताई पर मुग्ध होकर तत्कालीन जेलर ने उन्हें जेल से निकाल कर अपने घर पर रख लिया। वहीं पर महेंदर मिसिर जेलर के बीवी बच्चों को भजन एवं कविता सुनाते तथा सत्संग करने लगे। 
महेंदर मिसिर की रचना :

महेंद्र मिसिर का रचना-कर्म सन् 1910 से आरंभ होकर 1945 तक अहर्निश जारी रहा था। यहाँ तक कि कारावास की सजा भी उनके सृजन के लिए वरदान साबित हुई थी। जेल में रहकर उन्होंने रामकथा पर केंद्रित विभिन्न लोकधुनों, छंदों और राग-रागिनियों में रामचरित मानस को आधार बनाकर अपूर्व रामायण के सातों कांड रच डाले थे। 1924 से 1931 के बीच रचित अपूर्व रामायण भोजपुरी का प्रथम महाकाव्य माना जाता है। उनकी अधिकतर पुस्तकें दूधनाथ पुस्तकालय, सलकिया, हावड़ा और कचौड़ी गली, वनारस से प्रकाशित हुई थीं। चूँकि उन प्रकाशन-संस्थानों का अव कोई अस्तित्व नहीं है, अतः मिसिर जी की कृतियां अनुपलब्ध हैं। उनकी पूरी रचनावली प्रकाशन की बाट जोह रही है। मिसिर जी का महाकाव्य अपूर्व रामायण महाकवि की हस्तलिपि में उनके वंशजों के पास सुरक्षित है। अपूर्व रामायण में मिसिर जी ने अपनी वीस (20) कृतियों की चर्चा की है जिनमें पाँच नाटक भी शामिल हैं। नाटक भी गीत-संगीत से लवलेज़ हैं। उनका विपुल सृजन-संसार निम्नवत है-1. अपूर्व रामायण (सात खंड), 2. महेंद्र मजरी (चार भाग में), 3. महेंद्र विनोद, 4. महेंद्र दिवाकर, 5. महेंद्र प्रभाकर, 6. महेंद्र चंद्रिका (तीन भाग में), 7. महेंद्र रत्नावली, 8. महेंद्र कुसुमावली, 9. महेंद्र मयंक,10. महेंद्र मंगल (चार भाग में), 11, कृष्ण गीतावली,12. महेंद्र प्रभावली,13. 'भागवत दशम स्कंध,14. भीष्म प्रतिज्ञा, 15. श्रीमद्भागवत नादक संगीत,16. कृष्णार्जुन युद्ध नाटक,17. कंस विध्वंस नाटक, 18. हरिश्चंद्र नाटक, 19. चीरहरन लीला, 20. गोपी विरह नाटक, 21. महेन्द्र कवितावली आदि कई रचनाओं की सर्जना की। इनके अलावा उन्होंने असंख्य फुटकर गीतों की रचना की थी। औपनिवेशिक भारत की आर्थिक दुर्दशा को अपनी कविता में महेंद्र मिसिर ने बेबाकी से अभिव्यक्त किया है।


महेंदर मिसिरज की शोहरत दुनिया में थी :

महेंदर मिसिरजी की शोहरत भारत ही नहीं बल्कि दुनिया में थी। उनकी गायकी जहाँ भी गई अपनी बिहार की मिटटी का पाथेय बनाकर साथ लेते गये। साहित्य संगीत के इतिहास में विरला ही कोई होगा जो एक साथ ही शास्त्रीय और लोक संगीत पर गायन-वादन में दक्षता भी रखता हो और अपने आसपास के राजनीतिक-सामाजिक हलचलों में सक्रिय भागीदारी रखता हो और पहलवानी का शौक भी रखता हो। महेंदर मिसिरजी का जीवन रूमानियत के साथ भक्ति का भी साहचर्य साथ-साथ का रहा है। भोजपुरी के भारतेंदु कहे जाने वाले लोक कलाकार भोजपुरी भाषा के शेक्सपियर भिखारी ठाकुर और महेंदर मिसिरजी दोनों समकालीन मित्र थे। भिखारी ठाकुरजी से महेंदर मिसिर दो साल उम्र में बड़े थे।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महेंदर मिसिरजी का योगदान :
 
देश की आज़ादी की लड़ाई में महेंद्र मिसिर की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, हालाँकि उन्होंने जीवनपर्यंत इसका श्रेय लेने की कभी कोशिश नहीं की थी। उनका तो संपूर्ण जीवन ही तन-मन-धन से मातृभूमि और मातृभाषा के लिए समर्पित था। जब राजकुमार शुक्ल ने महात्मा गाँधी को चंपारण बुलाकर नील की खेती करने को मजबूर किसानों के शोषण और अंग्रेजों के अमानुषिक अत्याचार का आँखों देखा हाल सुनाया तो सत्य के अन्वेषी गाँधी ने न सिर्फ़ उस आंदोलन का नेतृत्व किया, बल्कि मुक़दमे में विजयश्री हासिल कर उस अमानवीय तीन कठिया प्रथा का भी खात्मा करवाया। फिर तो स्वतंत्रता संग्राम का आंदोलन जंगल की आग-सा बिहार के तमाम शहर, कस्वों और गाँवों में फैलता-पसरता चला गया।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महेंदर मिसिरजी स्वतंत्रता सेनानियों की आर्थिक मदद खूब किया करते थे। महेंदर मिसिर का घर स्वंतंत्रता संग्राम के सिपाहियों का गुप्त अड्डा हुआ करता था। उनके घर की बैठकों में संगीत और गीत गवनई के अलावा राजनीतिक चर्चाएँ भी खूब हुआ करती थी। वे स्वाधीनता आन्दोलन के क्रांतिकारियों की खुले हाथों से सहायता किया करते थे। भोजपुरी के इस जीवंत गीतकार और पूरबी के बेताज बादशाह की रसिक मिजाजी तथा नोट छापने के धंधे के प्रति समाज में फैली किंवदंतियों और भ्रमों को तोड़कर उन्हें एक स्वाधीनता-सेनानी, कर्मठ योद्धा, राष्ट्रीय गीतकार व महान संगीत-साधक थे। नोट छापने का धंधा भी विदेशी शासन की अर्थव्यवस्था को नेस्तनाबूद करने की दिशा में एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था।

महेंदर मिसिर का निधन :

सन् 1931 में महेंद्र मिसिर की जेल से रिहाई हुई थी। गाँव पहुँचने पर उन्हें ढेलाबाई के गंभीर रूप से अस्वस्थ होने की सूचना मिली। फिर वह भागे-भागे छपरा पहुँचे। वहाँ हवेली में ढेलावाई शायद उन्हीं का इंतजार कर रही थीं। टी.वी. ग्रस्त ढेलाबाई का बदन कंकालवत दिख रहा था। दोनों की आखिरी मुलाक़ात हुई और ढेलाबाई ने चैन से आखिरी साँसें लीं। ढेलाबाई के निधन से मिसिर जी पूरी तरह टूट चुके थे। दोनों एक-दूसरे की प्ररणा थे।  
महेंद्र मिसिर ने साढ़े साठ साल की उमर में ढेलाबाई की कोठी में निर्मित शिव मंदिर में 26 अक्टूबर, 1946 दिन मंगलवार को अंतिम साँस ली थी उसी मंदिर में जिसे उन्होंने खुद बनवाया था और जहाँ बैठकर रोज तड़के भैरवी और विहाग गाया करते थे। आज वह मंदिर ढेलावाई के मंदिर के नाम से मशहूर है। महज आख़िरी आठ दिनों तक वह अस्वस्थ रहे थे, पर उस स्थिति में भी उनका चिंतनशील मन और कवि अंतिम साँस तक सृजनशील रहा। मंगलवार की प्रातःकालीन वेला में विहाग के बजाय राम नाम सत्त है के स्वर गूँजे थे और भैरवी की तान की जगह उस महामानव की अर्थी उठी थी। उन्हें मृत्यु का पूर्वाभास हो गया था। तभी तो उन्होंने गाँव से सभी परिजनों को छपरा बुला लिया था और अस्वस्थता के बावजूद लगातार भजन-कीर्तन गाते हुए ही महाप्रयाण किया था।
हमारे देश में राजाओं और शासकों का इतिहास है लेकिन लोक ह्रदय सम्राटों का नहीं। महेंदर मिसिर इसी उपेक्षा के मारे ऐसे ही कलाकार हैं। 16 मार्च 1886 से शुरू हुई यात्रा से 26 अक्टुबर 1946 को ढेलाबाई के कोठा के पास बने शिवमंदिर में पूरबी के इस सम्राट ने दुनिया को अलविदा कह दिया। उनको विरासत में संस्कृत का ज्ञान और आसपास के समाज में अभाव का जीवन मिला था जिसमें वह अपने अंत समय तक अपने गीत में भाव भरते रहे। इसीलिए उनकी रचनाओं में देशानुराग से लेकर भक्ति, श्रृंगार और वियोग के कई दृश्य मिलते हैं। महेंदर मिसिरजी ऐसे क्रांतिकारी-गायक थे जिनके लिए भारत के नामचीन तवायफों ने अपने गहने तक उतार दिए हिंदी, भोजपुरी साहित्य में गायकी की जब-जब चर्चा होती, महेंदर मिसिरजी की पूरबी सामने खड़ी हो जाती है।

गाँव में जन्मे महेंद्र मिसिर ने स्कूली शिक्षा तो नहीं पाई। पर अपने स्वाध्याय और लोकजीवन के प्रति अपनी संवेदना और सहृदयता से लोकधुनों, छंदों व रागिनियों में ऐसी सिद्धहस्तता हासिल की कि उन्हें लोकधुन ‘पूरबी’ का सम्राट माना जाने लगा।

  महेंदर मिसिरजी की साधना के दो किनारे हैं – गीत-संगीत-साधना और देश की आजादी। दोनों किनारे समानांतर होकर भी समानांतर नहीं हैं। एक सिक्के के दो पहलू की तरह एक-दूसरे के पूरक हैं। कहना कठिन है कि महेंद्र मिसिर गीत-संगीत-साधक के रूप में बड़े हैं या स्वतंत्रता-सेनानी  के रूप में। शायद दोनों ही रूप में।’
महेंद्र मिसिर अपने जीवन के अंतिम दिनों में पत्नी को बुलाकर कहते हैं – ‘हमरा पास जवन धन-दउलत बा, तोहरा सामने बा आ तोहार बा, बाकिर हमार असली धन इहे पोथी बाड़ी सन। हम अपना हिरदया के मथ-मथ के जवन रतन पवलीं, तवना के एह पोथिन में लिख-लिख के धऽ देले बानीं। तूँ जान लऽ, इहे महेंदर मिसिर के असली पहचान बाड़न सन। एकनी के जोगा के रखिहऽ आ जग तोहरा एह दुनिया से आए के समय आवे, त एकनी के अपना बेटा के सहेज के रखे खातिर दे दिहऽ। कबहीं एकनी के बड़ा कीमत लागी।’

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

ककड़िया विद्यालय में हर्षोल्लास से मनाया जनजातीय गौरव दिवस, बिरसा मुंडा के बलिदान को किया याद...!!

61 वर्षीय दस्यु सुंदरी कुसुमा नाइन का निधन, मानववाद की पैरोकार थी ...!!

ककड़िया मध्य विद्यालय की ओर से होली मिलन समारोह का आयोजन...!!