पुनरुत्थानवादी युगपुरूष अंबेडकर की 134 वीं जयंती पर विशेष: एक अपराजेय नायक, जिसने न्याय के लिए किया संघर्ष



●आंबेडकर सिर्फ दलितों के नहीं, हर शोषित-वंचित वर्ग की आवाज थे : 
● समतामूलक समाज के सृजनहार डॉ भीमराव अंबेडकर
 लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव साहित्यिक मंडली शंखनाद

 'शिक्षा शेरनी के दूध की तरह है जो पिएगा वही दहाड़ेगा।'
बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर आधुनिक भारतीय चिंतकों में एक प्रतिनिधि नाम हैं। 20 वीं शताब्दी के श्रेष्ठ चिंतक, ओजस्वी लेखक, तथा यशस्वी वक्ता एवं स्वतंत्र भारत के प्रथम कानून मंत्री डॉ. भीमराव अंबेडकर भारतीय संविधान के प्रमुख निर्माणकर्ता हैं। विधि विशेषज्ञ, अथक परिश्रमी एवं उत्कृष्ट कौशल के धनी व उदारवादी,  व्यक्ति के रूप में डॉ. अंबेडकर ने संविधान के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। 
डॉ. भीमराव आंबेडकर एक बहुजन राजनीतिक नेता और एक बौद्ध पुनरुत्थानवादी होने के साथ-साथ, भारतीय संविधान के मुख्य वास्तुकार भी थे। आंबेडकर का जन्म एक गरीब अस्पृश्य परिवार में हुआ था। आंबेडकर ने अपना सारा जीवन हिंदू धर्म की भेदमूलक वर्ण व्यवस्था, और भारतीय समाज में सर्वव्याप्त जाति व्यवस्था के विरुध्द संघर्ष में बिताया। बाबा साहब एक अछूत और मजदूर का जीवन जी कर देख चुके थे, वे कुली का भी काम किए तथा कुलियों के साथ रहे भी थे। उन्होंने गांव को वर्णव्यवस्था का प्रयोगशाला कहा था।
युगपुरूष, विश्व भूषण, भारत रत्न भीमराव अंबेडकर जी आंबेडकर बाबा साहेब के नाम से लोकप्रिय, भारतीय संविधान के मुख्य शिल्पकार, भारतीय विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ और समाजसुधारक थे। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने महात्मा फूले की शिक्षा संबंधी सोच को परिवर्तन की राजनीति के केन्द्र में रखकर संघर्ष किया था। वे सामाजिक परिवर्तन के ध्वज बाहक थे। डॉ. अम्बेड़कर ने महात्मा फूले द्वारा कुरीतियों के खिलाफ शुरू किए गए आन्दोलन को विश्वव्यापी बनाया और श्रमिक अधिकारों के रक्षक तथा श्रमिकों के लिए सुरक्षा कवच थे बाबा साहेब अंबेडकर। बुद्ध, कबीर, महात्मा फुले जैसी महान विभूतियों के विचारों को आत्मसात कर सामाजिक क्रांति के उद्बोधक एवं पोषक भारत रत्न बाबा साहब डा. भीमराव अंबेडकर का जन्म युग और काल की धाराओं को मोड़ने के लिए ही हुआ था। उनके बहुआयामी व्यक्तित्व को समझने के लिए किसी विद्वान को भी वर्षों लग सकते हैं क्योंकि उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलू इतने गहरे हैं कि उनकी थाह पाना कठिन है।
  अंबेडकर का जन्म, शिक्षा और पारिवारिक जीवन :

भारत रत्न डॉ. भीमराव अंबेडकर का कहना था कि शिक्षित बनो और संघर्ष करो। डॉ. अंबेडकर सामाजिक नवजागरण के अग्रदूत, समतामूलक समाज के निर्माणकर्ता और आधुनिक राष्ट्र के शिल्पकार थे। उनके सामाजिक समानता के मिशन के केन्द्र में समाज के कमजोर, मजदूर, महिलाएं थीं, जिन्हें वे शिक्षा और संघर्ष से सशक्त बनाना चाहते थे। उनके जीवन का एक मात्र लक्ष्य था समाज के शोषित वर्गों को न्याय दिलाना, जिसके लिए उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन समाज के सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक उत्थान के लिए समर्पित कर दिया। 
सहृदय नेता डॉ. भीमराव अंबेडकर का जन्म मध्यप्रदेश के इंदौर शहर में स्थित महू में हुआ था जिसका नाम आज बदल कर डॉ.अंबेडकर नगर रख दिया गया है। डॉ भीमराव अंबेडकर जी का जन्म 14 अप्रैल 1891 को महू में सूबेदार रामजी शकपाल एवं भीमाबाई की चौदहवीं संतान के रूप में हुआ था। बचपन में वे भिवा, भीम, भीमराव के नाम से जाने जाते थे लेकिन आज हम सब उन्हें बड़े आदर के साथ बाबा साहेब अंबेडकर के नाम से पुकारते हैं। उनके पिता इंडियन आर्मी में सूबेदार थे, व उनकी पोस्टिंग इंदौर के पास महू में थी, यही अंबेडकर जी का जन्म हुआ। 1894 में रिटायरमेंट के बाद उनका पूरा परिवार महाराष्ट्र के सतारा में शिफ्ट हो गया। कुछ दिनों के बाद उनकी माँ चल बसी, जिसके बाद उनके पिता ने दूसरी शादी कर ली, और बॉम्बे शिफ्ट हो गए। जिसके बाद अंबेडकर जी की पढाई यही बॉम्बे में हुई, 1906 में 15 साल की उम्र में उनका विवाह 9 साल की रमाबाई से हो गया। इसके बाद 1908 में उन्होंने 12 वीं की परीक्षा पास की। छुआ छूत के बारे में अंबेडकर जी ने बचपन से देखा था, वे हिन्दू मेहर जाति के थे, जिन्हें नीचा समझा जाता था व ऊँची जाति के लोग इन्हें छूना भी पाप समझते थे। इसी वजह से अंबेडकर जी ने समाज में कई जगह भेदभाव का शिकार होना पड़ा। इस भेदभाव व निरादर का शिकार, अंबेडकर जी को आर्मी स्कूल में भी होना पड़ा जहाँ वे पढ़ा करते थे, उनकी जाति के बच्चों को क्लास के अंदर तक बैठने नहीं दिया जाता था। टीचर तक उन पर ध्यान नहीं देते थे। यहाँ उनको पानी तक छूने नहीं दिया जाता था, स्कूल का चपरासी उनको उपर से डालकर पानी देता था, जिस दिन चपरासी नहीं आता था, उस दिन उन लोगों को पानी तक नहीं मिलता था। स्कूल की पढाई पूरी करने के बाद अंबेडकर जी को आगे की पढाई के लिए बॉम्बे के एल्फिनस्टोन कॉलेज जाने का मौका मिला, पढाई में वे बहुत अच्छे व तेज दिमाग के थे, उन्होंने सारे एग्जाम अच्छे से पास करे थे, इसलिए उन्हें बरोदा के गायकवाड के राजा सहयाजी से 25 रूपए की स्कॉलरशिप हर महीने मिलने लगी। उन्होंने राजनीती विज्ञान व अर्थशास्त्र में 1912 में ग्रेजुएशन पूरा किया। उन्होंने अपने स्कॉलरशिप के पैसे को आगे की पढाई में लगाने की सोची और आगे की पढाई के लिए अमेरिका चले गए। अमेरिका से लौटने के बाद बरोदा के राजा ने उन्हें अपने राज्य में रक्षा मंत्री बना दिया। परन्तु यहाँ भी छुआछूत की बीमारी ने उनका पीछा नहीं छोड़ा, इतने बड़े पद में होते हुए भी उन्हें कई बार निरादर का सामना करना पड़ा। बॉम्बे गवर्नर की मदद से वे बॉम्बे के सिन्ड्रोम कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स एंड इकोनोमिक्स में राजनैतिक अर्थशास्त्र के प्रोफेसर बन गए। अंबेडकर जी आगे और पढ़ना चाहते थे, इसलिए वे एक बार फिर भारत से बाहर इंग्लैंड चले गए, इस बार उन्होंने अपने खर्चो का भार खुद उठाया। यहाँ लन्दन युनिवर्सिटी ने उन्हें डीएससी के अवार्ड से सम्मानित किया। अंबेडकर जी ने कुछ समय जर्मनी की बोन यूनीवर्सिटी में गुज़ारा, यहाँ उन्होंने इकोनोमिक्स में अधिक अध्ययन किया। 8 जून 1927 को कोलंबिया यूनीवर्सिटी में उन्हें डॉक्टोरेट की बड़ी उपाधि से सम्मानित किया गया।
अंबेडकर जी की पत्नी रमाबाई की लम्बी बीमारी के चलते 1935 में म्रत्यु हो गई थी। 1940 में भारतीय संबिधान का ड्राफ्ट पूरा करने के बाद उन्हें बहुत सी बीमारियों ने घेर लिया। उन्हें रात को नींद नहीं आती थी, पैरों में दर्द व डायबटीज भी बढ़ गई थी, जिस वजह से उन्हें इन्सुलिन लेना पड़ता था। इलाज के लिए वे बॉम्बे गए जहाँ उनकी मुलाकात एक ब्राह्मण डॉक्टर शारदा कबीर से हुई। डॉ. के रूप में उन्हें एक नया जीवन साथी मिल गया, उन्होंने दूसरी शादी 15 अप्रैल 1948 को दिल्ली में की। अंबेडकर जीवन भर समाजवाद और लोकतंत्र के साथ ही गरीबो, वंचितों, पीडि़तां के आंसू पोंछने का काम किया था। अंबेडकर महार जाति से आते थे, जो कि उस समय अछूत माना जाता था। अंबेडकर को बचपन में ही समाज के विभेदकारी बर्ताव का सामना करना पड़ा था। उन्हें स्कूल में अलग बैठाया जाता था, ऊंची जाति के बच्चे उनसे ठीक से बात नहीं करते थे। अंबेडकर को ये बात काफी चुभती थी और उन्होंने उस अल्प आयु में ही समाज से इस विभेद को खत्म करने का प्रण ले लिया था। अंबेडकर ने अपने जीवन में समाज से विभेद हटाने को अपना लक्ष्य बना लिया था और इसकी पूर्ति करने के लिए उन्होंने पढ़ाई को हथियार बनाया।
बाबा साहेब डॉ० भीमराव अंबेडकर का त्रिसूत्र शिक्षा, संगठन और संघर्ष :

भारतरत्न महामानव, राष्ट्रपुरुष, बाबासाहेब डॉ० भीमराव अंबेडकर दलितों, शोषितों तथा बहुजन राजनीतिक नेता और साथ ही साथ भारतीय संविधान के मुख्य शिल्पकार भी थे। वे जातिविहीन समाज के पक्षधर थे। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने देश के निर्धन और बंचित समाज को प्रगति करने का जो सुनहरी सूत्र दिया था, उसकी पहली इकाई शिक्षा ही थी। इससे अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि वे गतिशील समाज के लिये शिक्षा को कितना महत्व देते थे। उनका त्रिसूत्र था- शिक्षा, संगठन और संघर्ष। वे आह्वान करते थे, शिक्षित करो, संगठित करो और संघर्ष करो। पढ़ो और पढ़ाओ। इस सूत्र का अर्थ स्पष्ट है कि संगठित होने और न्याययुक्त संघर्ष करने के लिये प्रथम शर्त शिक्षित होने की ही है। उनके भारतीय संविधान के अभूतपूर्व योगदान के लिए उन्हें ‘भारतीय संविधान का पितामह’ कहा जाता है। संसार में ऐसी मानसिक ऊंचाई और शाश्वत प्रतिभा के धनी कर्मठ महापुरुष कभी-कभी ही अवतरित होते हैं।’’
सामाजिक असमानता के लिए संघर्ष :

उस समय हिंदू पंथ में अनेक कुरीतियां, छुआछूत और ऊंच-नीच की प्रथायें प्रचलन में थीं। जिसके लिए उन्होंने अथक संघर्ष किया। वे स्वयं दलित वर्ग से सम्बन्धित थे। छुआछूत के दंश को, समाज में व्याप्त सामाजिक असमानता, जाति-व्यवस्था, शूद्रों के साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार को उन्होंने अपने बाल्यकाल से देखा-जाना और भोगा था। उस भोगे हुए जीवन-यथार्थ से उन्हें प्रत्येक प्रकार की सामाजिक असमानता के लिए आवाज उठाने की प्रेरणा मिली।  उनका मानना था कि “छुआछूत गुलामी से भी बदतर है।” सन 1927 तक डॉ. अंबेडकर ने छुआछूत के विरूद्ध एक सक्रिय आंदोलन प्रारंभ किया और सार्वजनिक आंदोलन, सत्याग्रह और जुलूसों के माध्यम से पेयजल के सार्वजनिक संसाधन समाज के सभी वर्गों के लिए खुलवाने का प्रयास किया। वे निरंतर हिंदू समाज को सुधारने, समानता लाने के लिए प्रयास करते रहे, लेकिन कुप्रथाओं की जड़ें इतनी गहरी थीं कि उनका समूल उन्मूलन उन्हें कठिन लगने लगा। एक बार तो वे गहरी हताशा में कहते हैं कि “हमने हिंदू समाज में समानता का स्तर प्राप्त करने के लिए हर तरह के प्रयास और सत्याग्रह किए, परंतु सब निरर्थक सिद्ध हुए। हिंदू समाज में समानता के लिए कोई स्थान नहीं है।” इसका परिणाम यह हुआ कि 14 अक्टूबर, 1956 को नागपुर में उन्होंने अपने 3.85 लाख समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म को अपनाते हुए वंचित समुदाय को नवीन धार्मिक, अध्यात्मिक, नैतिक मूल्यों, रीति रिवाजों की एक जीवंत परंपरा प्रदान की। उनकी जयंती पर मेरा युवा पीढ़ी को विशेष संदेश है कि उनके आदर्शों का पालन केवल विशेष अवसर पर ही न करें, अपितु प्रत्येक क्षण उस राष्ट्रभक्त, मानवतावादी, धर्मप्राण और सात्विक वृति के महापुरुष के विचारों को अपने जीवन में आत्मसात करें।
अंबेडकर ने बड़ी संख्या में विवादास्पद पुस्तकें और पर्चे प्रकाशित किये :

अंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘जाति के विनाश’ प्रकाशित की जो उनके न्यूयॉर्क में लिखे एक शोधपत्र पर आधारित थी। इस सफल और लोकप्रिय पुस्तक मे अंबेडकर ने हिंदू धार्मिक नेताओं और जाति व्यवस्था की जोरदार आलोचना की। उन्होंने अस्पृश्य समुदाय के लोगों को गाँधी द्वारा रचित शब्द हरिजन पुकारने के कांग्रेस के फैसले की कडी़ निंदा की। अंबेडकर ने रक्षा सलाहकार समिति और वाइसराय की कार्यकारी परिषद के लिए श्रम मंत्री के रूप में सेवारत रहे। 1941 और 1945 के बीच उन्होंने बड़ी संख्या में अत्यधिक विवादास्पद पुस्तकें और पर्चे प्रकाशित किये जिनमे ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ भी शामिल है, जिसमें उन्होने मुस्लिम लीग की मुसलमानों के लिए एक अलग देश पाकिस्तान की मांग की आलोचना की। वॉट काँग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स (काँग्रेस और गांधी ने अछूतों के लिये क्या किया) के साथ, अंबेडकर ने गांधी और कांग्रेस दोनो पर अपने हमलों को तीखा कर दिया उन्होने उन पर ढोंग करने का आरोप लगाया। उन्होने अपनी पुस्तक ‘हू वर द शुद्राज़?’( शुद्र कौन थे?) के द्वारा हिंदू जाति व्यवस्था के पदानुक्रम में सबसे नीची जाति यानी शुद्रों के अस्तित्व मे आने की व्याख्या की। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि किस तरह से अछूत, शुद्रों से अलग हैं। 1948 में हू वर द शुद्राज़? की उत्तरकथा द अनटचेबलस: ए थीसिस ऑन द ओरिजन ऑफ अनटचेबिलिटी (अस्पृश्य: अस्पृश्यता के मूल पर एक शोध) में अंबेडकर ने हिंदू धर्म को लताड़ा।
राजनीतिक मुद्दों से परेशान अंबेडकर का निधन :

अंबेडकर मधुमेह रोग से पीड़ित थे। जून से अक्टूबर 1954 तक वो बहुत बीमार रहे इस दौरान वो काफी कमजोर हो गये थे। राजनीतिक मुद्दों से परेशान अंबेडकर का स्वास्थ्य बद से बदतर होता चला गया और 1955 के दौरान किये गये लगातार काम ने उन्हें तोड़ कर रख दिया। अपनी अंतिम पांडुलिपि बुद्ध और उनके धम्म को पूरा करने के तीन दिन के बाद 6 दिसम्बर 1956 को अंबेडकर की मृत्यु नींद में दिल्ली में उनके घर में ही हो गई। 7 दिसंबर को चौपाटी समुद्र तट पर बौद्ध शैली में अंतिम संस्कार किया गया जिसमें हजारों समर्थकों, कार्यकर्ताओं और प्रशंसकों ने भाग लिया। मृत्युपरांत अंबेडकर के परिवार में उनकी दूसरी पत्नी सविता अंबेडकर रह गयी थीं जो, जन्म से ब्राह्मण थीं पर उनके साथ ही वो भी धर्म परिवर्तित कर बौद्ध बन गयी थीं। विवाह से पहले उनकी पत्नी का नाम शारदा कबीर था। उन्हें मरणोपरांत साल 1990 में देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया।
डॉ. भीमराव अंबेडकर के राष्ट्रीय योगदान का आज तक सही आकलन- मूल्यांकन नहीं हुआ। उनके जीवन दर्शन को हम जानने-समझने का प्रयत्न करते हैं तो एक बात स्पष्ट रूप से सामने आती है कि उनका पूरा जीवन दो लक्ष्यों पर केंद्रित, समर्पित था। एक, शोषित-पीड़ित मानवों की सेवा और दूसरा, राष्ट्रहित सर्वोपरि। अंबेडकर अपने जीवनकाल में सामाजिक और राष्ट्र जीवन के अनेक पहलुओं पर कार्य करते रहे। भारतीय समाज में व्याप्त असमानता और जातिवाद के दौर में डॉ. भीमराव अंबेडकर का जन्म किसी क्रांति और अभ्युदय से कमतर नहीं आंका जा सकता।

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