मानव जीवन में उत्सव के लिए मंदिर ....!!

● भारत में मंदिर और प्रतिमाओं के निर्माण में विज्ञान की भूमिका है :
लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली

भारत में मंदिर और प्रतिमाओं के निर्माण के पीछे विज्ञान रहा है। यह अकारण नहीं है कि हमने मंदिर बनाए और देवताओं की प्रतिमाएं बनाकर उनका पूजना आरंभ कर दिया। इस विज्ञान को जानने वाले इन प्रतिमाओं के निर्माण को भी तर्कसंगत मानेंगे। भारत ऐसा देश है, जहां मूर्ति निर्माण का एक पूरा विस्तृत तंत्र था। दूसरी संस्कृतियों ने हमें मूर्ति पूजा करते देखकर गलत समझ लिया कि हम किसी गुड़िया या खिलौने को भगवान मानकर उसकी पूजा करते हैं।
ऐसा नहीं है। भारत के लोगों को इस बात का पूरा अहसास और जानकारी है कि यह हम ही हैं, जो रूप और आकार गढ़ते हैं। अगर आप इसे आधुनिक विज्ञान के नजरिए से देखें तो आज हम जानते हैं कि हर चीज में एक जैसी ही ऊर्जा होती है, लेकिन दुनिया में हर चीज एक जैसी नहीं है। यह ऊर्जा पशु के रूप में भी काम कर सकती है और दैवीय रूप में भी। जब मैं दैवीय रूप की बात करता हूं तो मैं आपके बारे में एक अस्तित्व के तौर पर बात नहीं कर रहा हूं, बल्कि मैं सिर्फ शरीर के संदर्भ में बात कर रहा हूं। अगर हम अपने शरीर के पूरे तंत्र को एक खास तरीके से पहचान लेते हैं, तो यह भौतिक शरीर भी एक दैवीय तत्व में रूपांतरित हो सकता है। उदाहरण के लिए पूर्णिमा और अमावस्या के बीच की रातें एक दूसरे से काफी अलग होती हैं। चूंकि आज कल हम लोग बिजली की रोशनी में रहने के इतने अधिक आदी हो गए हैं कि हमें इन रातों की भिन्न्ता का अहसास ही नहीं होता। मान लीजिए कि अगर आप खेतों में, फॉर्महाउस में या जंगल में ऐसी जगह रह रहे होते, जहां बिजली न हो तो वहां शायद आपको इन रातों के अंतर का असर पता चलता। तब आप समझ पाते कि हर रात अलग होती है, क्योंकि हर रात अलग समय पर चंद्रमा निकलता है और हर रात उसका आकार भी अलग-अलग होता है। हालांकि चंद्रमा वही है। हर रात उसका अस्तित्व बदलता नहीं हैं। वही एक चंद्रमा अलग-अलग समय पर अलग-अलग प्रभाव डालता है। अपने अंदर जरा-सा बदलाव लाकर यह कितना फर्क डालता है। इसी तरह से अगर आप अपने शरीर के ऊर्जा तंत्र में जरा-सा बदलाव कर दें तो यह शरीर जो फिलहाल मांस का लोथड़ा है, वह अपने आप में दिव्य अस्तित्व बन सकता है। योग की प्रणाली भी इसी सोच से प्रेरित है। धीरे-धीरे अगर आप इस ओर समुचित ध्यान देंगे और साधना करेंगे तो आप पाएंगे कि यह शरीर सिर्फ अपनी सुरक्षा या संरक्षण और प्रजनन के लिए बेचैन नहीं है, बल्कि इसमें बहुत बड़ा रूपांतरण आया है। यह सिर्फ एक भौतिक शरीर भर नहीं बचा है। हालांकि इसमें भौतिकता होगी, जैविकता होगी, लेकिन तब इसे सिर्फ भौतिक तक सीमित रहने की जरूरत नहीं रहेगी। तब यह बिल्कुल अलग धरातल पर पहुंचकर काम करेगा। तब इसकी मौजूदगी बहुत अलग हो उठेगी। इसी संदर्भ में कई योगियों ने अपने शरीर को खास तरह से रूपांतरित कर दिया और लोगों को अपने शरीर की पूजा करने की इजाजत दे दी, क्योंकि तब तक उनका शरीर एक दिव्य स्वरूप बन चुका था, जबकि वे खुद उस शरीर में नहीं रहे। यह एक प्रतिष्ठित ऊर्जा थी, जो इस तरीके से तैयार की गई थी। अपने यहां मूर्ति निर्माण के पीछे एक पूरा विज्ञान है। जहां एक खास तरह की आकृतियां एक खास तरह के पदार्थ या तत्वों से मिलकर बनाई जाती हैं और उन्हें कुछ खास तरीके से ऊर्जान्वित किया जाता है। अलग-अलग मूर्तियां या प्रतिमाएं अलग-अलग तरीके से बनती हैं और उनमें पूरी तरह से अलग संभावनाएं जगाने के लिए उनमें कुछ खास जगहों पर चक्रों को स्थापित किया जाता है। मूर्ति निर्माण अपने आप में एक विज्ञान है, जिसके जरिए आप ऊर्जा को एक खास तरीके से रूपांतरित करते हैं, ताकि आपके जीवन स्तर की गुणवत्ता बढ़ सके। भारत में मंदिरों के निर्माण पीछे भी एक गहन विज्ञान है। ये मंदिर पूजा के लिए नहीं बनाए गए थे। जब मैं मंदिर की बात करता हूं तो मेरा आशय भारत के पुरातन यानी प्राचीन मंदिरों से होता है। आजकल के मंदिर तो किसी शपिंग कॉम्प्लेक्स की तरह बने हैं। अगर मंदिर के मूलभूत पक्षों को मसलन-प्रतिमाओं का आकार और आकृति, प्रतिमाओं द्वारा धारण की गई मुद्रा, परिक्रमा, गर्भगृह और प्रतिमाओं को प्रतिष्ठित करने के लिए किए गए मंत्रोच्चारण आदि में समुचित समन्वय का ध्यान रखा जाए तो एक शक्तिशाली ऊर्जा तंत्र तैयार हो जाता है। भारतीय परंपरा में कोई आपसे नहीं कहता कि अगर आप मंदिर जा रहे हैं तो आपको पूजा करनी ही होगी, पैसे चढ़ाने होंगे या कोई मन्न्त मांगनी होगी। ये सारी चीजें ऐसी हैं, जो बहुत बाद में शुरू हुई हैं।
पारंपरिक रूप से आपको बताया जाता था कि जब आप मंदिर जाएं तो वहां कुछ देर के लिए बैठें, तब वापस आएं। लेकिन अब आप मंदिर जाते हैं और मंदिर के फर्श पर पल भर के लिए अपना आसन टिकाते हैं और चल देते हैं। मंदिर जाने का यह तरीका नहीं है। अगर आप मंदिर जा रहे हैं तो आप कुछ देर बैठिए, क्योंकि वहां खासतौर से एक ऊर्जा क्षेत्र तैयार किया गया है। सुबह अपने कामकाज के लिए बाहर निकलने से पहले आप कुछ देर के लिए मंदिर में जरूर बैठें। यह खुद को जीवन के सकारात्मक स्पंदन से भरने का एक बेहतरीन तरीका है, ताकि जब आप घर से बाहर निकलें तो एक अलग नजरिए के साथ हों। पुराने जमाने में मंदिर भगवान का स्थान या प्रार्थना स्थल के रूप में नहीं बनाए गए थे। न ही कभी मंदिरों में किसी को प्रार्थना कराने की इजाजत दी गई थी। इन्हें एक ऊर्जा स्थल के रूप में तैयार किया गया था, जहां हर कोई जा सकता था और उस ऊर्जा का इस्तेमाल कर सकता था।

मानव जीवन में उत्सव के लिए मंदिर बनाए गए :

भारत में मंदिर क्यों बनाए गए? उनके बनने से पहले लोग चट्टान, नदी और तारों को पूजते थे। कुम्भ मेला एक अच्छा उदाहरण है, जहां मानव-निर्मित संरचना के न होते हुए भी हिंदू परंपराएं निभाई जाती हैं। असम में कामाख्या और जम्मू में वैष्णोदेवी के मंदिरों से हमें पता लगता है कि ये 'मंदिर' वास्तव में सादी चट्टानों के चारों ओर बनाई गई संरचनाएं हैं। इस प्रकार, मंदिर की सीमा के भीतर नैसर्गिक या प्राकृतिक संरचना को घिरा हुआ पूज्य स्थल निर्धारित किया जाता है। सीमाओं का निर्माण पितृसत्ता की विशेषता है। यह इसलिए कि सीमाओं से वर्गीकरण का निर्माण होता है, जिससे विशिष्ट लोग शक्तिशाली बनते हैं, ठीक पितृसत्तात्मक समुदायों की तरह। मंदिर की दीवारों के माध्यम से मनोवैज्ञानिक सीमाएं व्यक्त की गई। ये सीमाएं मंदिर तथा देवी-देवताओं के प्रकट होने से बहुत पहले सभ्यता की शुरुआत में उभरी, जब प्राणियों से जन्मी मानवता अपने अस्तित्व को समझने का प्रयास कर रही थी। भारत के प्रत्येक गांव में उर्वरता की ग्राम-देवी और संरक्षक ग्राम-देवता होते हैं। स्त्रैण देवत्व पोषण करता है और पौरुष देवत्व रक्षा। स्त्रैण देवत्व के लिए पौरुष देवत्व मात्र बीज प्रदान कर उसकी रक्षा करता है। कभी-कभार हनुमान, भैंरो बाबा और अय्यनार की तरह यह पौरुष देवत्व ब्रह्मचारी होता है। ब्रह्मचर्य के माध्यम से ये संरक्षक देवता देवी अर्थात उनकी माता के प्रति आदर व्यक्त करते हैं। ब्रहाचर्य से वे शक्तिशाली भी बनते हैं। बौद्ध धर्म भारत का सबसे पहला संगठित मठवासी संप्रदाय था। उसके विहारों में महिलाओं का प्रवेश करना वर्जित था। और जब अंततः उन्हें विहारों में आने दिया गया, तब उन्हें पुरुषों से कहीं अधिक नियमों का पालन करना पड़ा। यह इसलिए कि उन्हें अपनी तृष्णाओं को वश में करने के साथ-साथ यह निश्चित करना पड़ा कि वे पुरुषों को नहीं 'लुभाती'। ये विहार चैत्यों के चारों ओर बनाए गए, जिनके भीतर के स्तूपों में बुद्ध के अवशेष होते थे। ये भारत की प्रारंभिक विशाल संरचनाएं थीं, जो चट्टानों में तराशी गई। उससे पहले ग्राम देवी-देवताओं के देवालय केवल पेड़ों के नीचे, नदियों से लगकर और गुफाओं में पाए जाते थे। बौद्ध विचारों का विरोध करने के लिए गृहस्थ जीवन के सुखों को दर्शाने वाले पत्थरों के मंदिर बनाए गए। मंदिर की विधियों में भी विभिन्न सांसारिक सुख व्यक्त किए गए। प्रतिष्ठापित देवी-देवताओं का तिरुपति के ब्रह्मोत्सवम जैसे भव्य समारोहों में विवाह होता था। पुजारी और देवदासियां उनकी देखभाल करते थे। विहारों में जितनी शांति होती थी, उतनी ही चहल-पहल इन मंदिर परिसरों में होती थी। वहां भव्य स्तर पर सांसारिक सुख मनाए जाते थे। लेकिन बौद्ध विहारों की तरह मंदिर भी पुरुषों के नियंत्रण में थे। विडंबना की बात यह है कि मंदिर, जो गृहस्थ जीवन के मूर्त रूप हैं, आज महंतों के नियंत्रण में हैं। ब्रह्मचर्य को धार्मिकता और शुद्धता का प्रतीक मानकर उसे शनि और अय्यप्पा जैसे ब्रह्मचारी देवताओं का मूर्त रूप दिया जाता है। और आधुनिक काल में गुरुओं के आश्रमों में संन्यासियों को 'स्वामी' और संन्यासिनों को 'मां' नामों से संबोधित करने से पुरुषों और महिलाओं की पारंपरिक भूमिकाओं की पुष्टि की जाती है। आजकल हम 20वीं सदी के प्रारंभ में पुरुष प्रधान मठवासी हिंदू संघटनों द्वारा लोकप्रिय बनाए नव-वेदांत की नीरसता पसंद करते हैं। नव-वेदांत के अनुसार परमात्मा की कोई लैंगिकता नहीं होती है और इसलिए वह पुरुष और स्त्रियों को समान मानता है। मासिक धर्म का अनुभव करने वाली महिलाएं भले ही मंदिरों में प्रवेश करें, लेकिन इससे पितृसत्तात्मक विचारों को चुनौती नहीं दी जाती, जो 'ब्रह्मचर्य' को शुद्ध और 'कामुकता' को अशुद्ध मानते हैं।

पहाड़ों पर ही क्यों बनाए गए अधिकांश देवी मंदिर :

देवी-देवताओं के बहुत से ऐसे मंदिर हैं जो पहाड़ों पर बने हुए हैं। देवी के अलावा और भी देवताओं के मंदिर पहाड़ों पर बनाए गए हैं जैसे- बद्रीनाथ, केदारनाथ आदि। पहाड़ी पर बने मंदिरों का स्वरूप कुछ-कुछ पिरामिड से मेल खाता है। ग्रीक भाषा में पायर शब्द का अर्थ है अग्नि। पिरामिड का अर्थ है, जिसके मध्य में अग्नि है वह वस्तु। अग्नि एक प्रकार की ऊर्जा है। अतः पिरामिड का सही अर्थ हुआ- जिसके मध्य में अग्निमय ऊर्जा बहती है। वैज्ञानिक शोधों से भी पता चला है कि पहाड़ी स्थानों पर पॉजिटिव एनर्जी का स्तर आमतौर पर ज्यादा होता है। जब लोग पहाड़ों पर दर्शन के लिए जाते हैं तो उस सकारात्मक पॉजिटिव एनर्जी का असर उनके मनो-मस्तिष्क पर भी होता है। और उनके मन आध्यात्मिक (स्पिरिचुअल) भाव जागते हैं। प्राचीन भारत के ऋषि मुनि जानते थे कि आने वाले समय में मनुष्य अपनी सुविधा के लिए जंगल आदि सभी नष्ट कर देंगे, ऐसी स्थिति में योग साधना के लिए स्थान शेष नहीं बचेंगे। मनुष्य रहने के लिए समतल भूमि पर उपयोग करेंगे, ये भी ऋषि-मुनि जानते थे, इसलिए उन्होंने मंदिर के लिए पहाड़ों को चुना। यहां आकर योगी अपनी साधना आसानी से कर सकते हैं, क्योंकि यहां एकांत होता है। काम कैसा भी हो, उसे पूरा करने के लिए एकाग्रता होनी बहुत जरूरी है। साधना के लिए मन एकाग्र नहीं चाहिए। यह काम एकांत में ही संभव है। इसके अलावा एक कारण ये भी है कि पहाड़ों पर प्राकृतिक सौंदर्य अपने मूल रूप में होता है, जो जीवन में ताजगी लाता है। जब लोग पहाड़ों पर दर्शन के लिए आते हैं तो उन्हें प्राकृतिक सौंदर्य देखने को मिलता है, जो अन्य कहीं देखना संभव नहीं है।

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