फुले फिल्म: पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग की सामाजिक चेतना का जागरण...!!
●फुले-फिल्म में शोषित और शोषक का शोषण और अत्याचार दिखाया गया है
लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली
भारतीय समाज में सदियों से व्याप्त जातिवाद, सामाजिक असमानता और शोषण के विरुद्ध कई क्रांतिकारियों ने अपने जीवन को समर्पित किया। जोतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले उन महान समाज सुधारकों में अग्रणी थे जिन्होंने शूद्र, अति शूद्र और महिलाओं के उत्थान के लिए अनथक संघर्ष किया। उत्तर भारत का साधारण पढ़ा-लिखा पिछड़ा वर्ग (मिडिल क्लास) फुले के बारे में नहीं के बराबर जानता है। महाराष्ट्र में कितना जानता है, इसका अंदाजा नहीं। फिर भी यह फिल्म सिर्फ अपनी उपस्थिति से मौजूदा समय में हलचल पैदा करती है। फिल्म चले या न चले, यह बात रेखांकित की जानी चाहिए।
यह फिल्म नाटक नहीं हकीकत है। ज्यादातर पिछड़े और अति पिछड़े के समीक्षकों ने इसको बहुत ही बेहतर और ‘संतुलित’ फिल्म बताया है। यही संतुलन इसकी कमजोरी भी लगता है। यह एक शांत, आम-आवाम के बीच घटित होने वाली फिल्म है, बनाते समय कोशिश की गई है कि कोई नाराज़ न हो। इस फिल्म के माध्यम से शोषण और अत्याचार की बात को सलीके से रखा गया है।
बॉलीवुड और साउथ में जातिवाद पर कई सारी फिल्में बनी हैं। इन फिल्मों ने समाज का एक ऐसा आईना दिखाया है जो हर इंसान को उसकी इंसानियत के अंदर झांकने को मजबूर कर देगी। बॉलीवुड में हर मुद्दे पर फिल्में बनी हैं। जातिवाद हमेशा से एक बड़ा और संवेदनशील मुद्दा रहा है। इसलिए इस मुद्दे पर भी फिल्में बनी हैं। फुले फिल्म कई बातों की तरफ इशारा करती है, भले ही उसे किसी विचारोत्तेजक बहस में नहीं बदल पाती, मगर इस मिथक को तोड़़ती है कि भारत के लोग अंग्रेजों के गुलाम भर थे। इसके बरअक्स यह समाज के भीतर जड़ बना चुकी हजारों सालों की गुलामी को खड़ा करती है। शिक्षा के अधिकार को स्त्रियों की आजादी से जोड़कर आगे बढ़ती है। यह हिंदू समाज में फैले हुए मिथकों को भी तोड़ती है। ‘फुले’ ब्राह्मणवादी व्यवस्था के अत्याचारों को दर्शाती तो है मगर उन पर बहुत समय नहीं खर्च करती, इसकी जगह वह फुले दंपती की रणनीतिक गतिविधियों पर अपना ध्यान केंद्रित करती है। इसमें लेखक की ‘कल्पना’ फातिमा शेख भी शामिल किया गया हैं। उनके रोल में अक्षया गुरव ने बहुत कम संवादों के बावजूद स्क्रीन में अपनी उपस्थिति भर से आकर्षण बनाए रखा है। फुले दंपती बने प्रतीक गांधी और पत्रलेखा ने बढ़िया अभिनय किया है।
प्रतीक गांधी ने कम अभिनय किया है। यह इसलिए गले उतरता है, क्योंकि वे अपने समय के एक पढ़े-लिखे अंग्रेजी शिक्षा हासिल करने वाले व्यक्ति का धैर्य भी सामने लाते हैं, जो आवेश में फैसले नहीं लेता। जो बहुत गहराई से उस दौर की दुनिया को बदलते हुए देख रहा है, जो अपनी सामाजिक विसंगतियों को समझने लगा है, उसे भावनात्मक उद्वेलन से नहीं बहकाया जा सकता।
फिल्म इसलिए भी उल्लेखनीय है कि यह बताती है कि ब्रिटिश शासन में सब कुछ बुरा नहीं था, वे अपने साथ शिक्षा, टेक्नोलॉजी और दुनिया भर में बह रही लोकतांत्रिक मूल्यों की बयार भी लेकर आ रहे थे। वहीं भारत में सब कुछ अच्छा नहीं था, मनुष्य द्वारा मनुष्य को नीचा दिखाया जा रहा था। उसे कई पीढ़ियों तक बुनियादी अधिकारों से परंपरा और शास्त्रों के नाम पर वंचित रखा जा रहा था।
ज्योतिबा फुले के जरिए निर्देशक अनंत महादेवन ने तीन महत्वपूर्ण बातों का जिक्र करते हैं। पहली फ्रांस की क्रांति का– जो इस फिल्म के नायक का स्वप्न है, जब उदारवादी विचारधारा की बुनियाद पड़ रही थी, मनुष्य को मूलतः स्वतंत्र मानने की शुरुआत– न कि किसी राज्य सत्ता या धर्म सत्ता की मेहरबानी पर जीने की लाचारगी। दूसरी थॉमस पेन की किताब ‘राइट्स आफ मैन’ जो इस नायक को एक वैचारिक मजबूती देती है।
तीसरी अमेरिका में गुलामी प्रथा के खत्म होने की घटना, जिसके बारे में वह उत्साह से अपनी पत्नी को बताता है कि अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन पहले जूते बनाते थे और यह बात वह एक ऐसे समय में कह रहा होता है जब ब्राह्मण अछूतों की परछाईं से भी दूर भागते थे। फिल्म के एक दृश्य में सावित्री बाई ब्राह्मणों के इसी डर को अपनी ताकत बनाती दिखती है। फिल्म में इन घटनाओं को ब्योरों से हमें समानांतर तिथियों में पता लगता है कि भारत और दुनिया में किस तरह की हलचल हो रही थी। यह अपने समय से आगे ज्योतिबा फुले के प्रति सम्मान और अधिक बढ़ा देती है।
निर्देशन बहुत ही अच्छा है। अनंत महादेवन ने ‘स्टोरीटेलर’ (2022) जैसी सहजता बनाए रखी है। फोटोग्राफी कई बार पेटिंग की तरह दिखती है। फ्रेम सुंदर हैं और लोकेशन को इस प्रभावशाली ढंग से कैप्चर किया गया है कि वे फिल्म की प्रामाणिकता में इजाफा करते हैं। फिल्म की एक और खूबी इसके सरल मगर गहरे अर्थ खोलने वाले संवाद हैं। जैसे एक दृश्य में फुले से कहा जाता है, “धर्म आस्था का विषय है तर्क वितर्क का नहीं…”फुले का जवाब है, “जो विषय तर्क नहीं झेल सकता, पाखंड कहलाता है।”
फिल्म इसलिए देखी जानी चाहिए कि ज्योतिबा की मृत्यु के 130 साल से ज्यादा होने, और देश को आजाद हुए 75 साल से ज्यादा वक्त बीत जाने के बावजूद यह फ़िल्म देश के एक वर्ग को इस कदर परेशान करती है। कि फुले के जन्मदिन पर इसकी रिलीज टालनी पड़ती है और ‘तीन हजार वर्षों की गुलामी’ जैसे संवाद हटाने पड़ते हैं।
समझ में आता है कि फिल्म असल में देश की जिस बड़ी आबादी के हितों की बात करती है, वह अभी भी इतनी मजबूत नहीं है कि अपने ऐतिहासिक अधिकारों और सांस्कृतिक प्रतीकों के साथ खड़ी हो पाए। बस, जब हम इस परिप्रेक्ष्य (दृश्य के अनुरूप चित्रण) से पूरी फ़िल्म को देखते हैं तो पूरा ऐतिहासिक संदर्भ हमारे सामने होता है। जिसकी रोशनी में शिक्षा और संघर्ष की आंच में खरे सोने सा तपता प्रतीक गांधी का किरदार ‘फुले’ बहुत बड़ा लगने लगता है!
फुले ने कामगार जातियों को संगठित कर जगाया :
फिल्म "फुले" ने निश्चित रूप से पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों को जगाने का काम किया है। यह फिल्म ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले के जीवन पर आधारित है, जो दलितों और महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़े थे। फिल्म में उनकी संघर्षपूर्ण यात्रा को दिखाया गया है, जिससे यह संदेश दिया गया है कि अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना और समानता के लिए लड़ना ज़रूरी है।
सामाजिक चेतना :
फिल्म "फुले" पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को उजागर करती है। यह फिल्म उन्हें अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए प्रेरित करती है।
ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले:
फिल्म में ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले के जीवन को दिखाया गया है, जिन्होंने दलितों और महिलाओं के अधिकारों के लिए आवाज उठाई।
फिल्म में समानता का संदेश :
फिल्म यह संदेश देती है कि सभी लोग समान हैं और उन्हें समान अधिकार प्राप्त होने चाहिए।
फुले का सत्यशोधक समाज :
फिल्म में ज्योतिराव फुले द्वारा स्थापित सत्यशोधक समाज के बारे में भी बताया गया है, जो जाति और धर्म के आधार पर भेदभाव के खिलाफ था।
फुले की गुलामगिरी पुस्तक :
ज्योतिराव फुले ने "गुलामगिरी" नामक एक किताब लिखी थी, जिसमें उन्होंने ब्राह्मणवाद की आलोचना की थी और दलितों की स्थिति पर प्रकाश डाला था।
अन्याय के खिलाफ आवाज:
फिल्म अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने के महत्व पर जोर देती है और लोगों को अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए प्रेरित करती है।
यह फिल्म वर्तमान में पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों को जागृत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। यह फिल्म टैक्स फ्री कर पुरे भारत में दिखाना चाहिए। फिल्म ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले के जीवन और उनके सामाजिक सुधारों के बारे में है। इस फिल्म के माध्यम से, दर्शक उनके संघर्षों, उनकी शिक्षा के प्रति प्रतिबद्धता, और उनके सामाजिक सुधारों के बारे में जान सकते हैं। यह फिल्म उन लोगों को प्रेरित कर सकती है जो अभी भी सामाजिक भेदभाव और अन्याय से जूझ रहे हैं, और उन्हें अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाने के लिए प्रेरित कर सकती है।
शिक्षा की क्रांति पिछड़े वर्ग का पहला हथियार :
फिल्म में दर्शाया गया है कि किस प्रकार फुले दंपत्ति ने उस समय के सामाजिक विरोध के बावजूद शूद्र और स्त्रियों के लिए स्कूल खोले। उस समय शिक्षा केवल ऊँची जातियों तक सीमित थी, लेकिन ज्योतिराव और सावित्रीबाई ने यह मिथक तोड़ दिया। फिल्म यह सशक्त संदेश देती है कि शिक्षा ही पिछड़े वर्ग का सबसे बड़ा हथियार है, जो उन्हें सामाजिक बेड़ियों से मुक्त कर सकता है।
जाति व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष की प्रेरणा :
फुले फिल्म यह स्पष्ट करती है कि जाति व्यवस्था केवल एक सामाजिक बुराई नहीं, बल्कि एक मानसिक गुलामी है। जोतिराव फुले ने ब्राह्मणवादी सोच के खिलाफ जिस निर्भीकता से आवाज उठाई, वह आज के समाज को भी यह सिखाती है कि जब तक अन्याय के खिलाफ विद्रोह नहीं होगा, तब तक समानता की कल्पना अधूरी रहेगी।
आत्मसम्मान और अधिकारों की पुनः स्थापना :
फिल्म में फुले दंपत्ति का संघर्ष केवल शिक्षा तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आत्मसम्मान की लड़ाई भी है। उन्होंने समाज के वंचित वर्गों को यह बताया कि वे केवल सेवा के लिए नहीं बने, बल्कि वे नेतृत्व और परिवर्तन के हकदार हैं। पिछड़ा वर्ग जो लंबे समय से खुद को कमजोर और हाशिए पर समझता रहा, इस फिल्म के माध्यम से अपने गौरवशाली इतिहास से जुड़ता है और आत्मबल प्राप्त करता है।
महिला सशक्तिकरण की वास्तविक कहानी :
सावित्रीबाई फुले, भारत की पहली महिला शिक्षिका के रूप में, फिल्म में केवल सहायक भूमिका में नहीं हैं, बल्कि वे नेतृत्व और संघर्ष की प्रतीक हैं। उनके द्वारा झेले गए सामाजिक अपमान और शारीरिक हमलों को सहते हुए भी शिक्षा के लिए किया गया योगदान आज की महिलाओं को साहस और प्रेरणा प्रदान करता है, विशेषकर उन महिलाओं को जो पिछड़े वर्गों से आती हैं।
ऐतिहासिक गौरवबोध और सामाजिक चेतना :
फुले फिल्म केवल एक ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं है, बल्कि यह एक सामाजिक आंदोलन की पुनर्स्मृति है। यह पिछड़े वर्गों को यह याद दिलाती है कि उनके पूर्वजों ने शिक्षा, अधिकार और आत्मसम्मान के लिए लड़ाई लड़ी थी—अब समय है कि वे उस विरासत को आगे बढ़ाएँ। यह एक ऐसी रोशनी है जो अज्ञान और हीनता के अंधकार में डूबे समाज को रास्ता दिखाती है। यह फिल्म सभी वर्गों, विशेषकर युवाओं को यह समझाने में सफल होती है कि सामाजिक बदलाव के लिए इतिहास को जानना, आत्मसम्मान को पहचानना और शिक्षा को अपनाना अनिवार्य है।
जय फुले - जय सावित्री
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