राज्य का पहला अखबार ‘बिहार बंधु’ बिहारशरीफ की देन...!!
• हिंदी पत्रकारिता ने समाज को दी नई दिशा
लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली
हिंदी पत्रकारिता के जनक जुगल किशोर जी मूल रूप से कानपुर के रहने वाले थे। उनका समाचार पत्र हर मंगलवार को निकलता था। हिंदी भाषा में 'उदन्त मार्तण्ड' के नाम से पहला समाचार पत्र 30 मई 1826 को कोलकाता (कलकत्ता) से निकाला गया था। इसलिए इस दिन को हिंदी पत्रकारिता दिवस के रूप में मनाया जाता है। हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत करने वाले पं. जुगल किशोर शुक्ल ने तब शायद कल्पना भी नहीं की होगी कि हिंदी पत्रकारिता का जो पौधा उन्होंने रोपा है, वह एक दिन विशाल वटवृक्ष बन जाएगा।
एक दौर था जब पत्रकार कागज पर अपनी खबर लिखते थे। उसी पर उसका संपादन किया जाता था। इसके बाद कंपोजीटर उसे टाइप करते थे। 2000 के बाद पत्रकारों के लिए कम्प्यूटर अनिवार्य हुआ। शुरू में काफी परेशानी हुई पर पत्रकारिता के बदलाव का व्यापक स्वरूप यहीं से शुरू हुआ। इसके बाद एंड्रॉइड ने इसके कार्य को और सरल बना दिया। अब कम्प्यूटर पर होने वाले कार्य मोबाइल से भी हो रहे। इसने आज हर व्यक्ति को सूचना प्रदाता बना दिया है। यह फोटोग्राफर, कंपोजीटर, प्रूफरीडर समेत कई जिम्मेदारी को एक साथ निभा रहा है। आज पत्रकार भी समय के साथ इसकी शैली में ढल रहे हैं। यदि वे इसमें पारंगत नहीं हुए तो पीछे छूट जाएंगे। पत्रकारिता ही नहीं हर क्षेत्र में बदलाव समय की मांग भी है पर इसका उद्देश्य कायम रहे यह प्रयास होना चाहिए। पंडित जुगल किशोर शुक्ल को हिन्दी पत्रकारिता जगत का पितामह कहा जाता है। पूरे विश्व में 30 मई को हिंदी पत्रिकारिता दिवस मनाया जाता है। भारत में 30 मई का दिन हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में सुनहरे शब्दों में लिखा गया है। उस दौरान अंग्रेजी, फारसी और बांग्ला में तो अनेक पत्र निकल रहे थे, लेकिन हिंदी में एक भी पत्र नहीं निकलता था। इसलिए 'उदन्त मार्तण्ड' का प्रकाशन शुरू किया गया।
एक समय था जब कोर्ट-कचहरियों में हिंदी में बहस करना गुनाह माना जाता था और उन वकीलों को हेय दृष्टि से देखा जाता था जो हिंदी में बोलते थे। अंग्रेजी में बोलने बालों को प्रतिष्ठा मिलता था। कोर्ट-कचहरियों में जज को ‘श्रीमान’ कहने वाले कम और ‘मी लार्ड’ कहने वाले अधिक होते थे। धोती-कुरता भारतीय परिधान पहनने वाले कोर्ट में कम और हाय-हल्लो कहने वाले पैंट, शर्ट, टाई और हैटधारियों की संख्या अधिक होती थी। नवजागरण और हिंदी की यत्र-तत्र सर्वत्र मजबूती के साथ स्थापित करने का बीड़ा यदि किसी ने उठाया तो वह था बिहार का प्रथम हिंदी समाचार पत्र ‘बिहार बन्धु’।
'बिहार बंधु' के नाम से राज्य का पहला साप्ताहिक समाचार पत्र वर्ष 1872 में बिहारशरीफ से निकला था। इस पत्र के संचालक पण्डित केशवराम भट्ट, पण्डित मदन मोहन भट्ट, पण्डित गदाधर भट्ट तथा संपादक मुंशी हसन अली थे। साप्ताहिक पत्र “बिहार बंधु” का प्रकाशन बिहारशरीफ और मुद्रण श्रीपुरण प्रकाश प्रेस कोलकाता से होता था। ये लोग बिहारशरीफ के रहनेवाले सहपाठी व मित्र थे। जो की बिहारशरीफ के बिहार हाई क्लास इंग्लिश स्कूल में पहला बैच के विद्यार्थी थे। इसका प्रकाशन बिहार (बिहारशरीफ) तथा मुद्रण, श्रीपूरण प्रेस, कलकत्ता से होता था। 1875 में केशवराम भट्ट इसके संपादक थे जो की 1874 में पटना से प्रकाशित हुआ। इसकी स्थापना दो वर्ष पूर्व ही कोलकाता में हुई थी। केशवराम भट्ट के परिवार बिहारशरीफ के चौखंडी पर तथा खन्दक पर कुमार सिनेमा के आसपास मुहल्ले में स्थित थे आज सभी जमीन बिक्री हो गये हैं। चौखंडी पर मुहल्ले में आज भी उनके भव्य परिसर के भग्नावशेष विद्यमान है। तत्कालीन समय में यह बिहारशरीफ का सबसे ज्यादा पढ़ालिखा परिवार था। प्रखर राष्ट्रीय स्वर वाले ‘बिहार बन्धु’ का प्रकाशन 1872-73 के बीच कोलकाता से हुआ था। उस वक्त झारखंड सहित बिहार का वर्तमान भाग बंगाल में ही शामिल था। तब कोलकाता न केवल बिहार बल्कि देश की राजधानी थी। जाहिर है सभी प्रकार की गतिविधियों की केन्द्र वही रही होगी। कचहरियों में देवनागरी लिपि मं हिंदी के प्रयोग के लिए ‘बिहार बंधु’ को सदैव याद किया जोयगा। 01 जनवरी 1881 तक उर्दू बिहार की कचहरियों की भाषा थी। जाहिर है कि सरकारी संरक्षण के अभाव में हिंदी की प्रचार की गति मंद रही। उन्नीसवीं शताब्दी के उतरार्द्ध में हिंदी के प्रचार की गति तेज हो गयी थी। इस प्रगति में दो घटनाओं ने महत्वपूर्ण योगदान किया। एक था 1874 में ‘बिहार बन्धु’ का पटना से प्रकाशन और दूसरा था सन् 1875 में इन्सपेक्टर्स ऑफ स्कूल के रूप में भूदेव मुखर्जी का शुभागमन।
बिहार की कचहरियों में हिन्दी प्रयोग के लिए ‘बिहार बंधु’ अखबार का बहुत बड़ा योगदान है। बिहार बन्धु’ ने बिहार की कचहरियों में देवनागरी लिपि में हिन्दी को प्रतिष्ठित करने के लिए जोरदार आन्दोलन किया। ‘बिहार बन्धु’ अपने इस प्रयास में सफल हुआ और 01 जनवरी 1881 में हिंदी बिहार की कचहरियों की भाषा घोषित कर दी गयी। देश के अन्य किसी प्रांत में हिंदी को तब तक यह स्थान नहीं मिला था। इसी प्रकार ”हिंदी साहित्य और बिहार“ के खंड दो की भूमिका में आचार्य शिवपूजन सहाय ने लिखा है- बिहार के पुर्नजागरण में ‘बिहार बन्धु’ तथा भूदेव मुखर्जी के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। श्री मुखर्जी यद्यपि बंगाली थे परन्तु उन्होंने हिंदी भाषा के महत्व को समझा था। कलकत्ता विश्वविद्यालय से इन्ट्रेंस में अध्ययन के विषयों में हिंदी को उन्हीं के कठिन परिश्रम से शामिल किया गया। उस समय बिहार की शिक्षण संस्थाओं का नियंत्रण कलकत्ता विश्वविद्यालय ही करता था। साथ ही भूदेव मुखर्जी ने हिंदी में पाठ्य पुस्तकें तैयार करायीं और उनका प्रकाशन भी कराया। गजेटियर ऑफ बिहार के श्री एन. कुमार के संपादकत्व में प्रकाषित पुस्तक ”जर्नलिज्म इन बिहार“ में पेज चार पर लिखा है– श्री मदनमोहन भट्ठ ने बिहारवासियों में नागरिक चेतना पैदा करने तथा बिहार की कचहरियों में देवनागरी लिपि में हिंदी को प्रतिष्ठित करने के उद्देश्य से सन् 1872 में बिहारियों के मुख पत्र के रूप में ‘बिहार बन्धु’ का प्रकाशन किया। बिहारवासियों के हितों की रक्षा करने के साथ ही इसका मूल स्तर राष्ट्रीय रहा और देश का शायद ही कोई भाग हो जहां ‘बिहार बन्धु’ नहीं जाता हो। पत्र की निर्भीकता का द्योतक उसके शीर्ष पर छपने वाला संस्कृत का वाक्य था- ‘सत्येव नास्ति भयं क्वाचित’ और अपने इसी सिद्धान्त के मुताबिक ‘बिहार बन्धु’ विदेशी शासकों तथा अन्यायियों से बराबर लड़ता रहा, जूझता रहा। हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए बड़ी कोशिशें हुई है। हिंदी यहां की दीवानी, माल और पुलिस की कचहरियों में पूरी तरह से जारी हो गयी और विलायत के सिविल सर्विस के इम्तिहान में रखी गयी है।
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