अमर शहीद बुद्धू नोनिया, पिछड़े समाज के प्रेरणास्त्रोत....!!
●अमर शहीद बुद्ध नोनिया हमारे देश के महानायक
लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव साहित्यिक मंडली शंखनाद
गुमनाम स्वतंत्रता सेनानी वे व्यक्ति होते हैं जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष में महत्वपूर्ण योगदान दिया, लेकिन उन्हें कभी भी उतना सम्मान नहीं मिला जितना कि उन्हें मिलना चाहिए था। ये वे लोग थे जिन्होंने बिना किसी व्यक्तिगत प्रसिद्धि की लालसा के भारत की आज़ादी के लिए अपना जीवन समर्पित किया।
आज की तेजी से भागती दुनिया और कठिन प्रतिस्पर्धात्मक दैनिक जीवन में, युवाओं को हमारी समृद्ध विरासत और अतीत को याद करने के लिए मुश्किल से ही समय मिलता है। भारत में औपनिवेशिक शासन के खिलाफ लड़ाई एक अनूठी कहानी है, जो हिंसा से प्रभावित नहीं है। बल्कि एक कहानी जो इस लम्बे चौड़े उपमहाद्वीप में वीरता, बहादुरी, सत्याग्रह, समर्पण और बलिदान की विविध कहानियों से भरी है। वे कभी-कभी ऐसे नेता हो सकते हैं जिनके आदर्श भारतीय मूल्य प्रणाली को चित्रित करते हैं।
जिनमें से कई नई पीढ़ी के लिए प्रसिद्ध हो सकते हैं लेकिन वे अज्ञात हैं। अतीत की फीकी यादों के रूप में पड़ी कहानियों को फिर से उजागर करने और सामने लाने का उद्देश्य आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा और प्रोत्साहन के एक माध्यम के रूप में काम करेगा। जब तक हम अपने गुमनाम नायकों को तरक्की और विकास की इस यात्रा में शामिल नहीं करते हैं, तब तक भारत की भावना अधूरी है। उनके लोकनीतियों और सिद्धांतों को याद किया जाना चाहिए और उनका सम्मान किया जाना चाहिए।
हमारे ख्यातनाम स्वतंत्रता सेनानियों के अलावा ऐसे बहुत से स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे हैं जिनके नाम इतिहास की किताबों के पन्नों से गायब हैं। या लोग इन लोगों के बारे में बहुत कम जानते हैं,
बुद्धू नोनिया या कहें बुद्ध नोनिया भी हमारे देश के नायक हैं लेकिन ये गुमनामी के अंधेरे में रहे हैं हालांकि जहां तक त्याग और तपस्या की बात है तो इन्होंने सुप्रसिद्ध लोगों से कम बलिदान नहीं दिए हैं। उन्होंने कभी इस बात की चिंता नहीं की कि वे प्रसिद्ध हुए या गुमनाम बने रहे क्योंकि उन सभी का उद्देश्य देश को आजादी दिलाना था।
हमारा देश भारत लगभग 200 सालों तक अंग्रेजों का गुलाम रहा :
इस बात से हम सभी अवगत हैं कि हमारा देश भारत लगभग 200 सालों तक अंग्रेजों का गुलाम रहा। आज़ादी के पहले का काल क्रांतिकारी आन्दोलन का ही काल रहा। शोषण, अन्याय, असमानता, स्वार्थपरता के साथ जातिवाद, साम्प्रदायिकता भी रूढ़ की तरह समाज में व्याप्त था। स्वतंत्रता से पूर्व सम्पूर्ण भारतवर्ष के मानव का केवल एक ही लक्ष्य था– स्वाधीनता की प्राप्ति। इसी लक्ष्य को पाने के लिए बड़े तो बड़े भारत का बच्चा-बच्चा तक अपने प्राण त्यागने के लिए तत्पर था। भारतीय जनता तन-मन-धन देकर अंग्रेजों से भिड़ने को तैयार थी। व्यवसाय करने आयी हुई ईस्ट-इंडिया कम्पनी ने धीरे-धीरे इस तरह अपना दमनकारी नीति अपनाया कि भारत उनका गुलाम हो गया। अंग्रेजों ने भारतीय चीजों पर अधिक से अधिक कर लगाना शुरू किया जिससे वे भारत की उत्पादित चीजों को कम और अपने चीजों को अधिक मात्रा में बेंच सके। और दोनों से मुनाफा उन्हीं को मिले। इस तरह उन्होंने भारतीय नमक पर इतना ज्यादा ‘कर’ लगा दिया कि भारतीय जनता के लिए नमक खरीदना दुष्कर हो गया तथा अंग्रेजों ने नमक कानून भी बनाये। जैसे – भारतीय लोगों के लिए नमक इकट्ठा करना, नमक बनाना या बेंचना कानूनन जुर्म बन गया। अगर ऐसी परिस्थिति में कोई नमक बनाता या बेंचता तो उसे 6 महीने की सजा दी जाने लगी। ब्रिटिश काल में जेल की यात्रा किसी नारकीय यातना से कम न था। पराधीनता के उस वातावरण में जेल का सफर एक नारकीय अनुभव था। स्वतंत्रता आन्दोलन में हजारों देशभक्त जेलों में भर दिए गए। राजनीतिक कैदियों के साथ कुछ हद तक अच्छा व्यवहार होता परन्तु “ साधारण कैदी ब्रिटिश शासकों की दृष्टि में पशु से भी बदत्तर थे।” कठोर श्रम, यातनाओं और अत्याचारों द्वारा उनकी जीवन-शक्ति समाप्त कर दी जाती थी। कभी किसी को कोल्हू का बैल बनना पड़ता, कभी किसी को इस तरह पीटा जाता कि वह लहू-लुहान हो जाता। कमजोर व्यक्ति दस बेंत के बाद बेहोश हो जाता तब उसे होश में लाने का प्रयत्न किया जाता और होश आते ही फिर उसे पीटना शुरू किया जाता। यह सब व्यवहार उसके साथ अधिक होता जो गरीब, निस्सहाय और कमजोर होते क्योंकि जो पैसेवाले होते वह पैसे के दम पर अपनी सजा माफ करवा लेते। जेल में भी जो बलवान है वह कमजोरों पर अपना हुकूमत चलाता और निस्सहाय-कमजोर तिल-तिल अपना जीवन यातनाओं में गुजारता। जेल के इस भीषण और नारकीय यातनाग्रस्त कैदियों के जीवन को देख सुभाष चन्द्र बोस कहते हैं कि “ इन व्यवस्था में जो सबसे अधिक प्रयोजनीय है, वह है एक नया जीवन या कहो, अपराधियों के प्रति सहानुभूति के भाव पैदा करना।” परन्तु पराधीनता के वातावरण में जेल अधिकारियों से, ब्रिटिश सरकार से, उसके दमनकारी शासन प्रणाली से सहानुभूति की उम्मीद ही कोई कैसे कर सकता था।
‘नमक कर’ के विरूद्ध अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह :
महात्मा गांधी जी ने इस ‘नमक कर’ के विरूद्ध अंग्रेजों के खिलाफ खुला विद्रोह किया। 12 मार्च 1930 को गांधी जी 78 लोगों को लेकर अहमदाबाद (गुजरात) के गांधी आश्रम से दांडी नामक गांव तक पैदल यात्रा किए। तीन हफ्तों की इस यात्रा में गांधी जी के साथ हजारों लोग जुड़ गए। अंग्रेजों के खिलाफ इस आंदोलन का मकसद था– नमक पर लगे कर, भारतीय के नमक बनाने और बेंचने में जो पाबंदी थी उसका विरोध। दांडी पहुंच कर ही गांधी जी एक मुट्ठी नमक अपने हाथों में लेकर यह कसम खाये कि– ‘नमक की इन दानों से मैं ब्रिटिश राज की नींव हिला दूंगा।’ इस नमक आन्दोलन में गांधी जी के साथ 80,000 भारतीय जेल भेज दिए गए। सच के इस लड़ाई के साथ ही ‘सविनय अवज्ञा आन्दोलन’ भी शुरू किया गया। अंत में इन स्वतंत्रता सेनानियों से हार कर इस आन्दोलन के समझौते के लिए गांधी जी को इंग्लैंड बुलाया गया। ‘क्रांति’ किसी बिजली की कौंध नहीं जो अचानक आए और आतंक मचाकर चली जाए। ‘क्रांति’ तो ज्वालामुखी की तरह होती है जो विस्फोट के लिए ऊर्जा एकत्रित करने में वर्षों लगा देती है। जब भी भारत को ब्रिटिश साम्रज्यवाद से मुक्त करवाने वालों की चर्चा होती है तो सबसे पहला नाम गांधी जी का आता है परन्तु क्या यह केवल गांधी जी के अकेले के योगदान का परिणाम है? नहीं, इस तूफान के लिए अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार सभी ने योगदान दिया है। सुभाषचन्द्र बोस, भगतसिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद, सुखदेव, साहित्यकार, पत्रकार, हमारे सैन्य दल, राजा-महाराजा, मजदूर, किसान, पत्रकार, नेता, अफ़सर, अमीर, गरीब, सवर्ण, दलित, क्रांतिकारियों के साथ उतना ही महत्वपूर्ण योगदान है जितना बाकियों का।
बुद्धू नोनिया जी का जन्म और नमक सत्याग्रह आन्दोलन :
1857 ई. के सिपाही विद्रोह को भारत का प्रथम स्वतंत्रता आन्दोलन कहा जाता है तथा उसके बाद असहयोग आन्दोलन, सविनय अवज्ञा आन्दोलन, द्वितीय विश्वयुद्ध का दौर, भारत छोड़ो आन्दोलन फिर 15 अगस्त 1947 ई. को भारत को आज़ादी मिली। असहयोग आन्दोलन को चौरा-चौरी कांड के कारण समाप्त करना पड़ा और उसके बाद 1930 ई. का नमक सत्याग्रह आन्दोलन भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में ‘मील का पत्थर’ साबित हुआ। और इस ‘नमक सत्याग्रह’ को सफल बनाने का श्रेय ‘नोनिया’ जाति को जाता है। इतिहास में इस बात का जिक्र हर जगह मिलता है कि ‘नोनिया’ (लोनिया) जाति के लोग नमक बनाने का कार्य करते थे, यही उनका व्यवसाय था। दांडी यात्रा के 80,000 क्रांतिकारियों में अधिकतर नोनिया जाति के ही लोग थे। ‘नमक’ जिसका अस्तित्व पानी से शुरू होकर पानी में ही खत्म हो जाता है और यही नमक लोहे को भी तिल-तिल गलाते हुए मिट्टी में मिला देता है। जैसे- हवा, पानी, अग्नि में कोई वजन नहीं और न ही उनका कोई ठोस आधार है परन्तु इन तीनों के बिना जीव-जन्तु-उद्भिद किसी का भी जीवित रहना सम्भव नहीं वैसे ही ‘नमक’ के बिना जीना मनुष्य के लिए दुष्कर है। ‘नमक’ के बिना छप्पन भोग भी खाने योग्य नहीं बनता और हमारे शरीर में भी नमक की आवश्यकता होती है।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी और बिहार के नोनिया समाज के भीष्म पितामह एवं अन्य पिछड़ी जातियों के अग्रदूत बुद्धू नोनिया जी का जन्म एक सामान्य नोनिया परिवार में 05 अगस्त 1869 को ग्राम-पोस्ट गढ़पुरा व थाना-गढ़पुरा, अनुमंडल-बखरी, जिला-बेगूसराय, में धौल नोनिया के पौत्र व पिता स्व० गुन्नी नोनिया के घर में हुआ था। ये बचपन से ही मेधावी और क्रांतिकारी विचारधारा के थे। इनका पूरा परिवार आंदोलनकारी स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष किया। वे विभिन्न तरीकों से संघर्ष करते थे, जैसे कि अहिंसक विरोध, क्रांतिकारी कार्य और राजनीतिक आंदोलन।
महात्मा गाँधी और डॉ० श्रीकृष्ण सिंह का आंदोलात्मक आह्वान :
भारत, एक ऐसा देश जिसे सोने की चिड़िया कहा जाता था। जहां की समृद्धि और वैभव की गूंज पूरी दुनिया में सुनाई देती थी। लेकिन भारत के इसी वैभव ने भारत को गुलाम बना दिया और सैकड़ो सालों की गुलामी, ग़रीबी और कुर्बानिया देकर देश को आज़ाद कराया जा सका। भारत को अपनी आजादी ऐसे ही नहीं मिली है बल्कि हमें इसके लिए बहुत संघर्ष और त्याग और कुर्बानिया देनी पड़ी है।
महात्मा गाँधी जी के आह्वान पर बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री डॉ० श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में नमक कानून भंग करने का आदेश गाँधी ने दिया। उस समय भारत में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी। डॉ० श्रीकृष्ण सिंह ने पूरे बिहार का भ्रमण किया कि नमक कानून ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ कौन सा जिला में कानून भंग किया जाए, चूँकि नमक बनाने का काम नोनिया जाति द्वारा किया जाता था। प्रत्येक जिला भ्रमण किये लेकिन कहीं भी अंग्रेजों के खिलाफ किसी ने नमक कानून भंग करने का साहस नहीं जुटा सके। फिर बेगूसराय जिला आये उस समय मटिहानी में भी नोनिया जाति नमक बनाते थे, उन्होने बहुत प्रयास किया नमक कानून भंग यही किया जाय। लेकिन वहाँ उनको सहयोग नहीं मिला, वहाँ से फिर मंझौल गये वहाँ कुछ भुमिहार, सहनी, पासवान ने उनको सहयोग करने का वादा कर गढ़पुरा चलने का प्रस्ताव दिया और कहा गढ़पुरा में बुद्ध नोनिया का बहुत बड़ा गोदाम है नमक बनाने का वहाँ सोडा, बारूद सभी उनके गोदाम में बनता है आप उनसे मिलें हो सकता है मदद मिल जाए। मंझौल से वे सीधे गढ़पुरा रामजानकी ठाकुरबाड़ी मंदिर आये और यहीं रूके। ठाकुरबाड़ी में उनको खाना, रहन, सहन हुआ करता था। जिले के कुछ आन्दोलन कर्मी थे उनके साथ वही ठाकुरबाड़ी में उनकी मुलाकात श्री बिन्देश्वरी बाबू से हुई। बिन्देश्वरी बाबू ने श्रीबाबू से कहा कि बुद्ध नोनिया नमक बनाने का बहुत बड़ा कारोबारी भी है और बहुत बड़ा साहसी है और उनके यहां काम करने वाले सभी साहसी मजदूर महिला, पुरूष हैं चलिये उनसे मिला जाय। बुद्ध नोनिया का बहुत बड़ा आम, कटहल का बहुत बड़ा बगीचा था उसी बीच में बहुत बड़ा डेरा बनाये हुआ था जो सराय के रूप में था। जहां गांव के बड़े बुजुर्ग शिक्षा विद सरपंच, मुखिया सभी को वहां बैठना उठना होता था। बाबू बिन्देश्वरी सिंह के साथ गांव के सभी कर्मठ एवं सुयोग्य आम गाछी में बैठक हुई जिसमें निर्णय लिया गया नमक बनाने का काम बुद्ध नोनिया के नेतृत्व में होगा बाकी का काम बिन्देश्वरी सिंह के साथ और सहकर्मी करेंगे। बुद्धू नोनिया जी आजादी की लड़ाई में अपने व्यावसायिक हितों को ताक पर रखकर नमक कानून तोड़ने में अग्रणी भूमिका अदा की। बैठक में लिए गये निर्णय के आलोक में गांव में जितने भी कुँआ, तालाब था सभी में किरासन तेल (मिट्टी का तेल) डालने का आदेश दिया गया लेकिन पीने का पानी एक सप्ताह के लिये सभी को अपने-अपने घर में स्टॉक करने का भी आदेश दिया गया, फिर सभी कुँआ, तालाब में मिट्टी का तेल डालने के लिए बोल दिया गया। अंग्रेजों का सिपाही स्थानीय गढ़पुरा स्थित डाक बंगला में रहना सहना होता था उनके नजरों से बचा कर कहा गया था ताकि अंग्रेजों को नहीं मालूम हो, रात करीब 1 बजे आवश्यक बैठक हुई उन्होने कहा जितने भी आन्दोलन कर्मी है। उन सभी का उप नाम होगा उनको नाम से नहीं बुलाया जायेगा ताकि अंग्रेजों को नाम का पता नहीं चले फिर बुद्धू को आदेश दिया गया आप अपने सहयोगियों के साथ नमक बनाने का समान जमा करें अमुक तारीक को नमक कानून भंग करेंगें हुआ भी वही सारा व्यवस्था भी कर लिया गया। बेगूसराय, खगड़िया के कुछ आन्दोलन कर्मी भी आये थे। वे सभी लोग मुंगेर चले वहां भी बहुत स्वतंत्रता सेनानी थे, और नोनिया समुदाय के कई वीर सपूत थे साथ में सभी ने माँ चण्डिका स्थान में पूजा अर्चना किया फिर कस्टहरणी घाट आकर गंगा स्नान कर माँ गंगे की सौगन्ध खाकर शपथ लिया अंग्रेज द्वारा जो नमक पर टैक्स वसूला जाता है उस काले कानून को हम भंग करेंगे। दिनांक 19 मार्च 1930 को पदयात्रा की शुरूआत हुई मुंगेर से होकर श्रीपुर, छड़ापर्टी मटिहानी, बेगूसराय, खम्हार, मोहनपुर, मंझौल होते हुये हरसैन, जयमंगलागढ़, रजौड़, मणिकपुर, गढ़पुरा पहुँच दुर्गा मंदिर में पूजा अर्चना करने के बाद बुद्धू नोनिया अपने सहयोगियों के साथ नमक बनाने लगे। पहले से वहाँ चूल्हा वगैरह नमक बनाने का समान मौजूद था। बहुत बड़ा चुल्हा पर एक बड़ा कराह चढ़कर नोनिया मिट्टी का रस बनाने के लिये चुल्हा पर चढ़ाया गया और चुल्हे में लकड़ी डालकर आग लगा दिया गया था। जब नमक मिट्टी का रस से नमक बनकर तैया हुआ तो सभी स्वतंत्रता सेनानी श्रीबाबू के नेतृत्व में आये और पूछे क्या नमक बनाने का काम पूरा हुआ। बुद्धू नोनिया ने बोले की नमक बनकर तैयार हो गया हैं। सभी स्वतंत्रता सेनानियों ने नमक का कराह पकड़कर अंग्रेज के खिलाफ नमक कानून भंग करने का शांति पूर्वक सलाह दिया गया, लेकिन अंग्रेजों का सिपाही शांति को भंग कर दिया और बहुत बड़ा भगदड़ मच गया। वहाँ पर सभी स्वतंत्रता सेनानियों इधर-उधर भागने लगे।
बुद्धू नोनिया की गिरफ्तारी और शहादत:
‘बुद्धु नोनिया’ कलम का नहीं बल्कि नमक रूपी तलवार से ब्रिटिश सत्ता की जड़ काट दिए। आजादी के लड़ाई में कुछ ऐसे नाम थे जो गुमनाम हो गए ऐसे ही एक नाम था बुद्धू नोनिया। जब अंग्रेजों ने नमक पर ‘कर’ लगा दिया तब भारतीय के माथे ब्रजपात हुआ। परतंत्रता के वातावरण में इस प्रकार का आर्थिक तंगी के शिकार हुए भारतवासियों के लिए ‘बुद्धु नोनिया’ उम्मीद की किरण बन कर सामने आये। ‘बुद्धु नोनिया’ देशी नमक बनाकर भारतीयों की मदद कर रहे थे। वे नोनिया समाज के प्रथम वीर योद्धा हुए जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ नमक कानून तोड़ने का साहस किया। वे इतनी सावधानी से नमक बना कर भारतीय की मदद करते कि किसी को उसकी भनक तक नहीं पड़ती। अंग्रेज सैनिक बौखला गया और बुद्धु नोनिया को पकड़कर खौलते हुए नमक के कड़ाही में जिन्दा डाल दिया। गरम कड़ाही में वे छटपटाते रहे परन्तु उनके मुंह से “भारत माता की जय” की ध्वनि निरंतर निकलती रही।
महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए नमक आंदोलन के समय अंग्रेजों ने आम जनता को नमक बनाने से मना कर दिया था। बुद्धू नोनिया ने इस कानून को न मानते हुए मिट्टी से नमक बनाना शुरू किया। उन्होंने यह नमक जरूरतमंदों में मुफ्त बांटा और अंग्रेज सरकार को खुली चुनौती दी। जब अंग्रेजों को बुद्धू नोनिया के कार्यों की भनक लगी, इसी बीच वहां के स्थानीय चौकीदार अंग्रेज को सूचित किया की यही श्रीबाबू हैं इनको गिरफ्तार करो, तो उन्होंने श्रीबाबू और बुद्धू नोनिया को पकड़ लिया। और अंग्रेज का सिपाही बुद्धू नोनिया के साथ घोर अत्याचार करते हुये खौलते हुए कराह में धकेल दिया गया। जिसके कारण उनका आधा शरीर जल गया और कुछ दिनों के बाद 19 मार्च 1948 को उनकी मृत्यु हो गयी और श्रीबाबू को अंग्रेज सिपाही जेल ले गये और उनके साथ जितने भी स्वतंत्रता सिपाही थे उनको राँची जेल भेज दिया गया।
सम्मान और स्मृति:
त्याग और बलिदान के लिए देश के जनमानस को तैयार करने और गुलामी के पीड़ा के अहसास को जागृत करने के अथक प्रयासों के लिए ‘बुद्धु नोनिया’ जी ने अपने बलिदान के माध्यम से जो उद्बोधन किया है उसे भुलाया नहीं जा सकता। बिहार के कई इलाकों में आज भी बुद्धू नोनिया को श्रद्धा से याद किया जाता है। नोनिया समाज उन्हें अपना गौरव और प्रेरणा स्रोत मानता है। उनकी वीरता की स्मृति में स्मृति दिवस, श्रद्धांजलि कार्यक्रम, और सामुदायिक सभाएं आयोजित की जाती हैं। बुद्धू नोनिया उन असंख्य स्वतंत्रता सेनानियों में से एक हैं, जिन्हें इतिहास की मुख्यधारा में स्थान नहीं मिला, लेकिन जिनके बलिदान के बिना स्वतंत्रता अधूरी थी। उनका जीवन संदेश देता है कि देशभक्ति पद, पैसा या पढ़ाई की मोहताज नहीं होती, वह भावना है जो एक साधारण नमक बनाने वाले को भी अमर शहीद बना सकती है।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
कृपया कमेंट बॉक्स में कोई भी स्पैम लिंक न डालें - शंखनाद