क्रांतिकारी शहीद खुदीराम बोस की 117 वीं बलिदान दिवस पर विशेष.....!!

●आज बच्चे अपने महापुरुषों के कृतित्व को भूलते जा रहे हैं
●खुदीराम बोस का बलिदान देता देशभक्ति की शिक्षा
●बहन ने किया था खुदीराम का लालन-पालन
● बम फेंक खुदीराम ने हिला दी थी ब्रिटिश शासन की चूलें

लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली

‘आओ झुक कर सलाम करें उनको, जिनके हिस्से में ये मुकाम आता है, खुशनसीब होता है वो खून जो देश के काम आता है'। ये पंक्तियाँ अक्सर उन स्वतंत्रता सेनानियों के लिए गुनगुनायी जाती रही हैं जिन्होंने खुद को देश के लिए कुर्बान कर दिया। आजादी  की लड़ाई में कूदने वाले आजादी के मतवालों ने देश को अंग्रेजों की गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने में जो भूमिका निभाई है उसे भुलाया नहीं जा सकता।
छोटी उम्र में अपने पिता को खो देना, बड़ी बहन द्वारा पालन-पोषण और जीवन की सारी विषमताओं के बीच स्वयं को इतनी विशाल सोच और गहरे भावों वाला बनाकर अपना सब कुछ राष्ट्र हित समर्पित कर देने का दृढ़-संकल्प! अद्भुत है! अठारह बरस की छोटी-सी उम्र में शताब्दियों से बड़ा जीवन जीने का नाम है शहीद खुदीराम बोस।
आज समय बहुत तेज-रफ्तार है। देश और दुनिया दोनों ही भाग रहे हैं। चुनौतियां हर तरफ हैं। परीक्षाएं कठिन हैं और प्रतियोगिता से घिरी हुई इस सदी में विद्यार्थी एवं युवाओं को हमारी समृद्ध विरासत और गौरवशाली भारतीय अतीत विशेष रूप से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के स्मरण का अवकाश नहीं मिलता। हमारा स्वतंत्रता आंदोलन हमारे समृद्ध और गौरवशाली इतिहास का एक हिस्सा है लेकिन असंख्य ऐसे नि:स्वार्थ, साहसी स्वतंत्रता सेनानी भी रहे हैं, जिनका योगदान उजागर नहीं हुआ या जिनकी अनदेखी की गई। इन भूले-बिसरे नायकों को याद किए बिना भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की कहानी को पूर्ण रूप नहीं दिया जा सकता। अगर हम देश के उन महान सपूतों और वीरांगनाओं का स्मरण नहीं करते, तो भारत की स्वतंत्रता के अमृत काल का जश्न अधूरा है, जिनकी वजह से हम स्वतंत्र हैं।
अमर शहीद खुदीराम बोस भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रांतिकारियों में से एक थे। उन्होंने स्वतंत्रता के लिए अपना बलिदान दिया। उनका जीवन प्रेरणास्रोत है जो सभी को साहस, बलिदान और देशभक्ति की शिक्षा देता है। इतिहास के पन्नों में भारत की आजादी के लिए अंग्रेजों से लोहा लेने वाले देशभक्त क्रांतिकारियों के बलिदान की शौर्यगाथाएं भरी पड़ी हैं। ऐसा ही एक नाम है खुदीराम बोस, जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई में महज 18 साल की छोटी-सी उम्र में फांसी का फंदा चूम लिया था। अमर बलिदानी खुदीराम बोस को आज याद करने का दिन है। आजादी के जंग में कुर्बान होनेवाले इस सूपत को बिहार समेत पूरे भारत में याद किया जाता है।  
खुदीराम बोस पहले ऐसे क्रांतिकारी थे जो सबसे कम उम्र में फांसी पर चढ़ा दिए गए थे। भारत में किसी क्रांतिकारी को यह पहली फांसी थी। इस महान क्रांतिकारी ने कम उम्र में देश के लिए वह काम किए थे जो आज भी युवाओं के लिए प्रेरणादायी हैं। खुदीराम बोस की शहादत से पूरे देश में आजादी पाने की इच्छा और अधिक ज्वलंत हो गई थी और देशवासियों के अंदर राष्ट्रप्रेम की भावना विकसित हो गई थी खुदीराम बोस एक ऐसे क्रांतिकारी थे, जिनके सामने जाने से अंग्रेज तक खौफ खाते थे।
खुदीराम बोस के पारिवारिक जीवन और शिक्षा :

खुदीराम बोस जी का पूरा नाम खुदीराम त्रिलोक नाथ बोस था। खुदीराम का जन्म 3 दिसम्बर 1889 को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले के हबीबपुर नामक गाँव में कायस्थ परिवार में बाबू त्रिलोक नाथ बोस के यहाँ हुआ था। उनके पिताजी और माता लक्ष्मीप्रिया उनको बहुत प्रेम करते थे। उनके पिता शहर के तहसीलदार थे और माता एक धर्मनिष्ठ महिला। वह पिता के इकलौते बेटे थे और उनकी तीन बहनें थीं। खुदीराम का जीवन शुरू से ही कठिनाइयों से भरा रहा। उन्होंने अपने माता-पिता को बहुत छोटी उम्र में ही खो दिया और उनकी बड़ी बहन अपरुपा रॉय ने उनका पालन-पोषण किया। जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती गई वह पढ़ाई करने लगे, पढ़ाई करते समय उनके अंदर देश के प्रति जो भावना थी वह झलकने लगी थी। उन्होंने उत्तर 24 परगना जिले के हटगछा गाँव में हैमिल्टन हाई स्कूल में पढ़ाई की थी। 1900 के दशक की शुरुआत में, अरबिंदो घोष और बहन निवेदिता के सार्वजनिक भाषणों ने उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। धीरे-धीरे समय बीतता गया वैसे वैसे ही खुदीराम बोस को अंग्रेजों से नफरत होने लगी और उन्होंने देश की क्रांति में अपना योगदान देने की योजना बनाई और सन 1902 और 1903 की क्रांति में उन्होंने भाग लिया था।

स्कूल में लगाने लगे थे अंग्रेजों के खिलाफ नारे :

खुदीराम बोस स्कूल के दिनों से ही अंग्रेजों के खिलाफ राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेने लग गए थे। वे बेहद कम उम्र में ही आजादी के लिए लगने वाले जुलूसों में शामिल होकर अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ नारे लगाते थे। उनमें देश को आजाद कराने की ऐसी लगन लगी कि उन्होंने 9वीं कक्षा के बाद ही पढ़ाई छोड़ दी और 1905 में बंगाल का विभाजन होने के बाद देश को आजादी दिलाने के लिए स्वदेशी आंदोलन में कूद पड़े और सत्येन बोस के नेतृत्व में अपना क्रांतिकारी जीवन शुरू किया।

वंदे मातरम् पर्चा बांटने में निभाई अहम भूमिका :

उन दिनों आजादी की मांग को लेकर देश के हर कोने में जन आंदोलन होते थे. खुदीराम बोस रिवॉल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने और वंदे मातरम् पर्चा बांटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में चलाए गए आंदोलन में उन्होंने बढ़-चढ़कर भाग लिया। इस दौरान उन्हें 28 फरवरी 1906 को गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन वे कैद से भाग निकले। लगभग 2 महीने बाद अप्रैल में फिर से पकड़े गए। 16 मई 1906 को उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया। कुछ दिनों के बाद भारतीय क्रांतिकारी संगठन “युगांतर” ने क्रूर न्यायाधीश “किंग्जफोर्ड” को मारने के लिए दो क्रांतिकारियों को चुना था। उनमें से एक “खुदीराम बोस” है और दूसरे का नाम “प्रफुल्ल कुमार चाकी” था। दोनों ने मिलकर न्यायाधीश किंग्जफोर्ड को मारने की योजना बनाई। ज्ञात हो कि खुदीराम बोस की शहादत से भगत सिंह ने प्रेरणा ली थी। खुदीराम ने अंग्रेज जज पर हमला किया था और इसी को लेकर उनको अंग्रेजी हुकूमत ने फांसी की सजा सुनाई थी। स्वतंत्रता दिवस की वर्षगांठ के साथ-साथ खुदीराम बोस को याद करना इसलिए भी अहम है क्योंकि 11 अगस्त को ही 1908 में उनको फांसी हुई थी।
आज़ादी के लिए 18 की उम्र में फांसी पर चढ़ गए : 
 
खुदीराम बोस का जन्म बंगाल के मिदनापुर में हुआ था। बहुत कम उम्र से ही उन्होंने आजादी की लड़ाई के लिए खुद को समर्पित कर दिया। महज 15 साल की उम्र में वो बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियों का प्रचार-प्रसार करने वाली संस्था का हिस्सा बन गए थे। अंग्रेजों के जुल्म देख खुदीराम ने उनसे लड़ने को बम बनाना भी सीखा था। खुदीराम बोस चर्चा में तब आए जब क्रांतिकारियों के खिलाफ सख्त फैसले देने वाले एक जज किंग्सफोर्ड पर उन्होंने हमला किया था। जिसमें किंग्सफोर्ड बच गए थे और उनकी पत्नी मारी गई थीं।
 
खुदीराम बोस कोलकाता से मुजफ्फरपुर क्यों आए : 

भारत में सशस्त्र संघर्ष की नींव रखने वाले अनुशीलन समिति और युगांतर के सदस्य प्रफुल्ल चंद चाकी ने कोलकाता में क्रांतिकारियों के साथ क्रूरता बरतने वाले जज किंग्सफोर्ड से बदला साधने का फैसला लिया था। किंग्सफोर्ड कोलकाता की बजाय अब मुजफ्फरपुर के सेशन जज थे। संगठन ने बंगाल के कई देशभक्तों को कड़ी सजा देने वाले जज को कठोर सजा देने का निर्णय लिया था। खुदीराम बोस ने अपने साथी प्रफुल्लचंद चाकी के साथ मिलकर सेशन जज किंग्सफोर्ड से बदला लेने की योजना बनाई। और बम फेंक कर हिला दी ब्रिटिश शासन की चूलें। दोनों मुजफ्फरपुर आए और 30 अप्रैल 1908 को सेशन जज की गाड़ी पर बम फेंक दिया, लेकिन उस समय गाड़ी में किंग्सफोर्ड की जगह उसकी परिचित दो यूरोपीय महिला कैनेडी और उसकी बेटी सवार थीं। किंग्सफोर्ड के धोखे में दोनों महिलाएं मारी गईं, जिसका खुदीराम और प्रफुल्ल चंद चाकी को बेहद अफसोस हुआ। अंग्रेज पुलिस उनके पीछे लगी और मुजफ्फरपुर से समस्तीपुर की राह में वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। प्रफुल्लचंद चाकी ने मोकामा घाट में  खुद को गोली मारकर अपनी शहादत दे दी। और खुदीराम को मुजफ्फरपुर जेल में फांसी दे दी गई। उस समय उनकी उम्र 18 वर्ष 08 महीना 07 दिन यानि 19 साल से भी कम थी।

आक्रोश में जज पर किया था हमला : 

अंग्रेज जज किंग्सफोर्ड क्रांतिकारियों को सख्त सजाएं दिया करते थे, इसको लेकर उनके खिलाफ एक रोष था। किंग्सफोर्ड जब मुजफ्फरपुर में तैनात थे तो खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने उनके मारने की योजना बनाई। योजना बनाकर अप्रैल 1908 में जज किंग्सफोर्ड की बग्गी पर बम फेंका गया लेकिन उस दिन इत्तेफाक से उनकी जगह बग्गी में उनकी पत्नी और बेटी थीं। बग्गी बंद थी तो अंदर कौन है पता ना चल सका और दोनों क्रांतिकारियों ने बम फेंक दिया। हमले के बाद फरारी के दौरान प्रफुल्ल चाकी ने पुलिस से घिरने पर खुद को गोली मार ली। वहीं बोस पूसा रोड स्टेशन से गिरफ्तार कर लिए गए। उन पर मुकदमा चलाया गया और कुछ सुनवाई के बाद ही 13 जुलाई 1908 को खुदीराम बोस को फांसी की सजा सुनाई गई।

महान क्रांतिकारी खुदीराम बोस की उपेक्षा :

खुदीराम बोस की अभिभावक उनकी बहन अपरुपा रॉय थीं। जीजा अमृतलाल रॉय  की सरकारी नौकरी खोने के भय से बहन ना ही भाई से मिलने जेल तक आईं, ना ही उनके परिवारजन उनकी मृत शरीर ग्रहण करने मुजफ्फरपुर आए। उनके वकील और एक पत्रकार ने उनकी मृत शरीर की अंत्येष्टि की थी। बिहार में बंगाल से अलग होने का आन्दोलन जोरों से जारी था इसलिए बिहार के एक भी कांग्रेसी नेता खुदीराम बोस से मिलने जेल तक नहीं आया था। बिहार के विरासत की गौरव गाथाओं के गीत गाने वालों के पास इस बात का क्या जवाब होगा कि महान क्रांतिकारी खुदीराम बोस 114 वर्षों से मुजफ्फरपुर जेल के कैद खाने में क्यों बंद हैं? महान क्रांतिकारी के फांसी स्थल को राष्ट्रीय स्मारक बनाने के लिए अगर जेल को स्थानांतरित करने की जरूरत हो तो  इसके लिए ब्रिटिश सरकार से अनुमति की दरकार तो नहीं है। खुदीराम बोस का शहादत स्थल तो कैदखाने के भीतर सुरक्षित है। प्रफुल्ल चंद चाकी का शहादत स्थल कहां है, आने वाली पीढ़ी को आप क्या जवाब देंगे? प्रफुल्ल चंद चाकी की सूरत कैसी थी। हाय, उनकी एक अदद प्रतिमा-स्मारक भी बिहार में मुमकिन ना हुआ। जिलाधीश वुडमैन को खुदीराम से सहानुभूति हो गई थी। वकीलों को खुदीराम से मिलने की छूट दी गई। वुडमैन कि अनुमति मिलने पर ही उपेंद्र नाथ सेन मैजिनी, गैरीबाल्डी की जीवनी और रवींद्र नाथ टैगोर के लेखों को खुदीराम तक पहुंचा सके थे। निर्धारित समय पर भारत माता के इस वीर सपूत ने हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया। मुजफ्फरपुर सेंट्रल जेल में खुदीराम बोस को फांसी दे दी गई। इसके पूर्व उन्हें सेल में रखा गया। सेल के अंदर बोस का मन और प्राण कभी कैद नहीं रहा। वे अपनी क्रांतिकारी भावनाओं को सेल की दीवारों पर कोयले से उकेर देते। इन पंक्तियों को उकेरा था। एक बार विदाई दे मां, घुरे आसी। हांसी-हांसी पोरिबो फांसी, देखबे जोगोतवासी। जिस दिन खुदीराम को फांसी होनी थी, उस दिन बहुत सख्त इंतजाम किया गया था। उनमें से एक “बंगाली के संवाददाता उपेन्द्र नाथ सेन थे। उन्होंने अपनी रपट में लिखा है,” 11 अगस्त को सुबह 6 बजे फांसी होनी थी। हम लोगों ने फांसी के वक्त जेल के अंदर उपस्थित रहने की अनुमति मांगी थी। साथ ही खुदीराम की हिन्दू रीति-रिवाजों के अनुसार अंतिम क्रियाकर्म करने की भी। वुडमैन ने इसके लिए दो लोगों को अनुमति दी। उन्होंने बारह लोगों को मृत शरीर ले जाने के लिए और अन्य बारह लोगों को अंत्येष्टि में शामिल होने की अनुमति दी। शवयात्रा के लिए मार्ग का निर्धारण भी कर दिया गया था।
 खुदीराम बोस को आज भी सिर्फ बंगाल में ही नही बल्कि पूरे भारत में याद किया जाता है। उनके युवाशक्ति की आज भी मिसाल दी जी जाती है। भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में कई कम उम्र के शूरवीरों ने अपनी जान न्योछावर की, जिसमें खुदीराम बोस का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाता है। खुदीराम बोस को ‘स्वाधीनता संघर्ष का महानायक’ भी कहा जाता है। निश्चित ही जब-जब भारतीय आज़ादी के संघर्ष की बात की जाएंगी तब-तब खुदीराम बोस का नाम गर्व से लिया जाएगा। धन्य है वह धरती जहां इस महापुरुष ने जन्म लिया। वास्तव में यह मातृभूमि भारत रत्नगर्भा है और खुदीराम जैसे लोग इस मातृभूमि के रत्न हैं। खुदीराम बोस के बलिदान और उनके देश-प्रेम की कहानी बंगाल में एक प्रसिद्ध लोककथा है। कवि पीतांबर दास ने अपने लोकप्रिय बंगाली गीत एक बार बिदाये दे मा के द्वारा, उनके बलिदान को अमर कर दिया। यह गीत उस जुनून के साथ प्रतिध्वनित होता है जो इस युवा लड़के के मन में अपनी मातृभूमि के लिए था। ऐसे महापुरुष बार-बार हमारी मातृभूमि पर अवतरण लें, ऐसी मंगल कामना है।’

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