हरतालिका तीज वर्त पर विशेष.....!!

●कई व्रतों से भी कठिन है हरतालिका तीज
●सकारात्मक भावनाओं से जुड़े हैं दांपत्य जीवन
●सांस्कृतिक विविधता को सहेजता लोकपर्व हरतालिका तीज
●सांस्कृतिक विविधता को सहेजने का माध्यम हैं हरतालिका तीज
लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली

हरतालिका तीज का शाब्दिक अर्थ है "सखियों द्वारा किया गया हरण या अपहरण". यह शब्द 'हरत' (हरण/अपहरण) और 'आलिका' (सहेली) शब्दों से मिलकर बना है, और यह पार्वती की सहेलियों द्वारा किए गए उनके अपहरण को दर्शाता है, जिसके कारण इस व्रत का नाम हरतालिका पड़ा।
हरतालिका तीज का सनातनी धर्म में बहुत महत्व है। भारतीय पंचांग के अनुसार, हरतालिका तीज भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाई जाती है। इस दिन महिलाएं पति की लंबी उम्र की कामना के लिए निर्जला व्रत रखती हैं और लड़कियां भी इस दिन अच्छे वर की प्राप्ति के लिए व्रत रखती हैं। ऐसी मान्यता है कि महिलाएं अगर इस दिन सच्चे मन से व्रत रखती हैं तो उन्हें सौभाग्य का प्राप्ति होती है। इस दिन भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा की जाती है। ऐसा माना जाता है कि माता पार्वती ने भी भगवान शंकर को पाने के लिए यह व्रत किया था।

सांस्कृतिक विविधता को सहेजता लोकपर्व हरतालिका

सावन में जब सम्पूर्ण प्रकृति हरी ओढ़नी से आच्छादित होती है उस अवसर पर महिलाओं के मन मयूर नृत्य करने लगते हैं। स्त्रियां सामाजिक और पारिवारिक जीवन की धुरी कही जाती हैं। वे सम्बन्धों के निर्वहन के दायित्वबोध को पोसने और सांस्कृतिक थाती को सहेजने वाली सच्ची वाहक होती हैं। भारतीय संस्कृति के रंग बहुत से उत्सवों और अनुष्ठानों की बदौलत ही आज भी कायम हैं। विशेषकर लोक उत्सवों का जीवंत भाव तो महिलाओं की भागीदारी से ही बचा हुआ है। स्त्रियों के जीवन में परिवार और परम्पराओं की भूमिका बहुत अहम होती है। देखने में भी आता है कि आस्था का भाव हो या वास्तविक जीवन रिश्तों का जुड़ाव, महिलाएं बहुत कुछ साधे रखती हैं। हरितालिका तीज के पर्व पर भी सौभाग्य और परिवार की खुशहाली की कामना करते हुए महिलाएं पूरी व्यवस्था की कुशल कामना कर रही होती हैं। भारतीय परिवेश में व्रत-त्योहार मनोभावों की अभिव्यक्ति का माध्यम भी हैं। यही वजह है कि अधिकतर लोकपर्व परिवार के जुड़ाव, सम्बन्धों की समरसता और समाज में सह-अस्तित्व को पोसने का भाव लिए हुए हैं। सुखद और सकारात्मक भावनाओं से जुड़े ऐसे उत्सव स्त्रीमन से गहराई से जुड़े होते हैं। दांपत्य जीवन में सुख-साथ बने रहने की कामना सदा से महिलाएं मन से कराती हैं। असल में स्त्रियों का यह भाव-चाव समग्र समाज को थामने वाली बुनियाद है। दुनिया के जिस हिस्से में भी परिवार की नींव कमजोर होती है, वहां समाज का ढांचा भी ढह जाता है। परिवार की पृष्ठभूमि को मजबूती देने के लिए दांपत्य जीवन में जुड़ाव, ठहराव और निभाव आवश्यक है। समझना कठिन नहीं कि हमारे यहां देश, समाज और परिवार का आधार बनने वाले वैवाहिक जीवन को क्यों इतना महत्वपूर्ण माना गया है? लोकरंग लिए बहुत से उत्सव और अनुष्ठान इस जुड़ाव को झांकी बनते हैं। सांस्कृतिक विविधता को सहेजने का माध्यम बने हुए हैं। हरितालिका तीज का उपवास में भी अपनों की खुशियों और हित चिंतन भाव दिखता है। दांपत्य जीवन की सुख-शांति के लिए इस विशेष पर्व पर महिलाएं प्रार्थना कर जीवनसाथी के आयुष्य और मंगल की कामना करती हैं। इतना ही नहीं स्त्रीमन की आस्था का हर पहलू पारिवारिक सुख समृद्धि से भी जुड़ा होता है। विवाहित जीवन में स्नेहपूरित भाव-चाव के प्रतीक इस पर्व को मनाते हुए स्त्रियों का हृदय भावनाओं और भावुकता से भरा होता है दरअसल, वैवाहिक जीवन औपचारिकताओं से परे होता है। अपनापन और स्नेह ही साझी जिंदगी का आधार बनता है। शिव-पार्वती के पावन और अटूट दांपत्य बंधन का पूजन कर परिवार में भी आपसी स्नेह और साथ बने रहने की कामना की जाती है। व्यावहारिक रूप से भी देखा जाए तो कुशल कामना के इस पावन भाव की नींव पर घर-परिवार की खुशहाली ही नहीं पूरी सामाजिक व्यवस्था की मजबूती भी टिकी है। उत्साह के साथ इस लोकपर्व को भाद्रपद माह की शुक्ल तृतीया को मुख्यतः छत्तीसगढ़, बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश में मनाया जाता है। यूपी और बिहार में महिलाएं इसे मुख्य तौर पर मनाती हैं। साथ ही दक्षिण भारत में तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में इस को पर्व गौरी हब्बा कहा जाता है। हरितालिका तीज को छत्तीसगढ़ में तीजा के रूप में जाना जाता है। वहीं महाराष्ट्र में गणेश उत्सव के ठीक एक दिन पहले आने वाले हरितालिका तीज को हरितालिका तृतीया व्रत के नाम मनाने का रिवाज है। महाराष्ट्र में भी उत्तरी भारत की तरह ही परंपरागत ढंग से शिव-गौरी के पूजन का यह अनुष्ठान किया जाता है। पौराणिक कथा के अनुसार इस पावन व्रत को सबसे पहले माता पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए किया था। सुखद यह भी है कि आध्यात्मिक पक्ष के साथ ही हरितालिका तीज के पारंपरिक पर्व संग लोकरंग भी जुड़े हैं। प्रकृति की हरी-भरी गोद में मनाया जाने वाला शिव-गौरी के पूजन का यह पर्व स्नेह भरे साथ को ही नहीं, प्रकृति को भी समर्पित है। लोक जीवन में रचे-बसे इस पर्व के स्त्रीमन को हर्षोल्लास समाज को जुड़ाव की सौगात देते हैं।
हरतालिका तीज की पौराणिक कथा 

एक पौराणिक कथा के अनुसार माता पार्वती ने भगवान भोलेनाथ को पति के रूप में पाने के लिए कठोर तप किया था। हिमालय पर गंगा नदी के तट पर माता पार्वती ने भूखे-प्यासे रहकर तपस्या की। माता पार्वती की यह स्थिति देखकर उनके पिता हिमालय बेहद दुखी हुए। एक दिन महर्षि नारद भगवान विष्णु की ओर से पार्वती जी के लिए विवाह का प्रस्ताव लेकर आए लेकिन जब माता पार्वती को इस बात का पता चला तो, वे विलाप करने लगी।
एक सखी के पूछने पर उन्होंने बताया कि वे भगवान शिव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तप कर रही हैं। इसके बाद अपनी सखी की सलाह पर माता पार्वती वन में चली गई और भगवान शिव की आराधना में लीन हो गई। इस दौरान भाद्रपद में शुक्ल पक्ष की तृतीया के दिन हस्त नक्षत्र में माता पार्वती ने रेत से शिवलिंग का निर्माण किया और भोलेनाथ की आराधना में मग्न होकर रात्रि जागरण किया। माता पार्वती के कठोर तप को देखकर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिए और पार्वती जी की इच्छानुसार उन्हें पत्नी के रूप में स्वीकार किया। तभी से अच्छे पति की कामना और पति की दीर्घायु के लिए कुंवारी कन्या और सौभाग्यवती स्त्रियां हरतालिका तीज का व्रत रखती हैं और भगवान शिव व माता पार्वती की पूजा-अर्चना कर आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। इस पर्व का सुहागिन स्त्रियां पूरे वर्ष इंतजार करती हैं। हरतालिका का पर्व सुहागिन स्त्रियों का प्रिय पर्व है। इस पावन पर्व को कई अन्य नामों से भी जाना जाता है। ये नाम इस प्रकार हैं- हरतालिका तीज, तीज, हरियाली तीज, सावन तीज, श्रावण तीज इत्यादिक नाम से जाना जाता है।

हरतालिका तीज में सोलह श्रृंगार का महत्व

हरतालिका तीज श्रावण मास यानि सावन के महीने का प्रमुख पर्व है। पंचांग के अनुसार श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को हरतालिका तीज का पर्व मनाया जाता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार भगवान शिव और पार्वती जी का इस दिन पहली बार मिलन हुआ था। इस दिन सोलह श्रृंगार करने की भी परंपरा है। आइए जानते हैं कि सोलह श्रृंगार के अंर्तगत कौन-कौन से श्रृंगार आते हैं।
1. पुष्प का श्रृंगार- सोलह श्रृंगार में फुलों से श्रृंगार करना शुभ माना गया है। बरसात के मौसम में उमस बढ़ जाती है। सूर्य और चंद्रमा की शक्ति वर्षा ऋतु में क्षीण हो जाती है। इसलिए इस ऋतु में आलस आता है। मन को प्रसन्नचित रखने के लिए फुलों को बालों में लगाना अच्छा माना गया है। फुलों की महक स्फूर्ति प्रदान करती है।

2. माथे पर बिंदी या टिका- इसे भी एक श्रृंगार के तौर पर माना गया है। माथे पर सिंदूर का टिका लगाने से सकारात्मक ऊर्जा महसूस होती है। इससे मानसिक शांति भी मिलती है। इस दिन चंदन का भी टिका लगाया जाता है।

3. मांग में सिंदूर- मांग में सिंदूर लगाना सुहाग की निशानी है वहीं इस स्थान पर सिंदूर लगाने से चेहरे पर निखार आता है। इसका अपने वैज्ञानिक फायदे भी होते हैं। मांग में सिंदूर लगाने से शरीर में विद्युत ऊर्जा को नियंत्रित करने में भी मदद मिलती है।

4. गले में मंगल सूत्र- मोती और स्वर्ण से युक्त मंगल सूत्र या हार पहनने से ग्रहों की नकारात्मक ऊर्जा को रोकने में मदद  मिलती है वहीं इससे प्रतिरोधक क्षमता में भी वृद्धि होती है। गले में स्वर्ण आभूषण पहनने से हृदय रोग संबंधी रोग नहीं होते हैं। हृदय की धड़कन नियंत्रित रहती है। वहीं मोती चंद्रमा का प्रतिनिधित्व करते हैं इससे मन चंचल नहीं होता है।

5. कानों में कुंडल- कान में आभूषण पहनने से मानसिक तनाव नहीं होता है। कर्ण छेदन से आंखों की रोशनी तेज होती है। सिर का दर्द कम करने में भी सहायक होता है।

6. माथे पर स्वर्ण टिका- माथे पर स्वर्ण का टिका महिलाओं की सुंदरता बढ़ाता है वहीं मस्तिष्क का नर्वस सिस्टम भी अच्छा रहता है।

7. कंगन या चूडियां- हाथों में कंगन या चूडियां पहनने से रक्त का संचार ठीक रहता है। इससे थकान नहीं होती है। साथ ही हार्मोंस को भी नहीं बिगड़ने देती हैं।

8. बाजूबंद- इसे पहनने से भुजाओं में रक्त प्रवाह ठीक बना रहता है। दर्द से मुक्ति मिलती है। वहीं इससे सुंदरता में निखार आता है।

9. कमरबंद- इससे पहनने से पेट संबंधी दिक्क्तें कम होती हैं कई बीमारियों से बचाव होता है। हार्निया जैसी बीमारी होने का खतरा कम होता है।

10. पायल- पायल पैरों की सुंदरता में चारचांद लगाती हैं। वहीं इनको पहनने से पैरों से निकलने वाली शारीरिक विद्युत ऊर्जा को शरीर में संरक्षित करती है। इसका एक बड़ा कार्य महिलाओं में वसा को बढ़ने से रोकना भी है। वहीं चांदी की पायल पैरों की हड्डियों को मजबूत बनाती हैं।

11. बिछिया- बिछिया को सुहाग की एक प्रमुख निशानी के तौर पर माना जाता है लेकिन इसका प्रयोग पैरों की सुंदरता तक ही सीमित नहीं है। बिछिया नर्वस सिस्टम और मांसपेशियां को मजबूत बनाए रखने में भी मददगार होती है।

12. नथनी- नथनी चेहरे की सुंदरता में चारचांद लगाती है। यह एक प्रमुख श्रृंगार है। लेकिन इसका वैज्ञानिक महत्व भी है। नाक में स्वर्ण का तार या आभूषण पहनने से महिलाओं में दर्द सहन करने की क्षमता बढ़ती है।

13. मुद्रिका या अंगूठी- अंगूठी पहनने से रक्त का संचार शरीर में सही बना रहता है। इससे हाथों की सुंदरता बढ़ती है। इससे पहनने से आलस कम आता है।

14. मेहंदी- हरियाली तीज पर मेहंदी लगाने की परंपरा है। स्त्रियां खास तौर पर इस दिन हाथों में मेहंदी लगाती हैं। ये सोलह श्रृंगार में प्रमुख श्रृंगार में से एक है। मेहंदी शरीर को शीतलता प्रदान करती है और त्वचा संबंधी रोगों को दूर करती है।

15. काजल या सुरमा- काजल या सुरमा जहां आंखों की सुरंदता को बढ़ाता है। वहीं आंखों की रोशनी भी तेज करने में सहायक होता है। इससे नेत्र संबंधी रोग दूर होते हैं।

16. मुख सौंदर्य- इसे मेकअप भी कहा जाता है। मुख पर प्रकृति सौंदर्य प्रसाधन लगाने से मुख की सुंदरता बढ़ती है। वहीं इससे महिलाओं के आत्मविश्वास में वृद्धि होती है और ऊर्जा बनी रहती है।
हरतालिका तीज व्रत का महत्व

हरतालिका तीज पर सुहागिन स्त्रियां अपने पति की लंबी आयु और सुख, समृद्धि के लिए व्रत रखती है। तीज के व्रत को सबसे कठिन व्रतों में से एक माना गया है। इस व्रत में सुहागिन स्त्रियां अन्न और जल को ग्रहण नहीं करती हैं। इसलिए इस व्रत को कठिन माना गया है। इस व्रत को विधि पूर्वक करने से दांपत्य जीवन में आनंद बना रहता है। इसमें सोलह श्रृंगार का भी विशेष महत्व बताया गया है।

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