झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री दिशोम गुरु शिबू सोरेन का "स्मृति शेष"

●घनकटनी और महाजनी प्रथा आंदोलन ने शिबू सोरेन को नई पहचान दी
 लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली

झारखंडी अस्मिता, शोषित, दमित, दलित और आदिवासियों के हक के लिए आजीवन संघर्ष करने वाले शिबू सोरेन को खोकर ये सभी गुरुविहीन हो गये हैं। वंचित समाज के लिए शिबू सोरेन सबसे बड़े दिशोम गुरु। उन्होंने आदिवासियों और कमजोर वर्ग के वंचितों को अपने हक के लिए लड़ना सिखाया। उन्होंने झारखंड अलग राज्य का सपना देखा ताकि इस क्षेत्र और यहां के लोगों का सर्वांगीण विकास हो सके और उन्होंने अपने सपने को जनांदोलन के जरिए साकार भी करवाया, जब 15 नवंबर 2000 को झारखंड अलग राज्य का गठन हुआ।
 
शिबू सोरेन का जन्म शिक्षा-दीक्षा और राजनैतिक सफर 

शिबू सोरेन संताल आदिवासी हैं और इनका पैतृक निवास रामगढ़ जिले के नेमरा गांव में है। इनके पिता सोबरन सोरेन पेशे से शिक्षक थे और इलाके में महाजनी प्रथा, सूदखोरी और शराबबंदी के खिलाफ आंदोलन चला रखा था। शिबू सोरेन का जन्म नेमरा में ही 11 जनवरी 1944 को हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में हुई थी, 27 नवंबर 1957 की सुबह शिबू सोरेन को पता चला कि उनके पिता सोबरन सोरेन की हत्या कर दी गई। लेकिन उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी। शिबू सोरेन की शुरुआती पढ़ाई नेमरा गांव के प्राथमिक विद्यालय से हुई, जिसके बाद उन्होंने हाई स्कूल की शिक्षा दुमका से पूरी की। इसके बाद उन्होंने कॉलेज की पढ़ाई भागलपुर विश्वविद्यालय (अब तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय) से की, जो बिहार में है। वहां से उन्होंने इंटरमीडिएट यानी 12वीं और ग्रेजुएशन की शिक्षा प्राप्त की।
जब वे महज 13 साल के थे तब उनके पिता सोबरन सोरेन की 1957 में हत्या कर दी गई थी। पिता की हत्या के बाद शिबू सोरेन के बाल मन पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा और उन्होंने साहूकारों और महाजनों के खिलाफ संघर्ष शुरू कर दिया। टुंडी प्रखंड के पलमा से शिबू सोरेन ने महाजनों और सूदखोरों के खिलाफ अपना आंदोलन शुरू किया था। संताल समाज को जागरूक करने और लोगों को शिक्षित करने के लिए सोनोत संताल समाज का गठन किया। शिबू सोरेन ने आदिवासी समाज को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने और नशे से दूर रखने के लिए काफी प्रयास किए।
महाजनों से आदिवासियों की जमीन को मुक्त कराने के लिए संघर्ष 

1960-70 के दशक में झारखंड में महाजनों का आतंक कायम था। वे आदिवासी किसानों को अपने ऋण के जाल में फंसा लेते थे और उनसे मनमाना सूद वसूलते थे। सूद ना दे पाने की स्थिति में वे आदिवासियों की जमीन पर कब्जा कर लेते थे। जमीन पर से हक खत्म हो जाने के बाद आदिवासी बदहाल हो जाते थे क्योंकि जमीन ही उनकी जीविका का साधन था। शिबू सोरेन के पिता की हत्या में भी इन महाजनों का ही हाथ माना जाता था, इसलिए शिबू सोरेन ने महाजनों के आतंक से मुक्ति दिलाने के लिए शिबू सोरेन ने उन जमीनों पर धान काटो अभियान चलाया, जिसे ऋण के बदले में महाजन कब्जाए बैठे थे। इस अभियान के दौरान आदिवासी महिलाएं जमीन से धान काट लेती थीं और धनकटनी के दौरान आदिवासी पुरुष तीर-धनुष लेकर सुरक्षा में तैनात रहते थे। इस तरह महाजनों को शिबू सोरेन ने टक्कर दी। इतना ही नहीं उन्होंने आदिवासियों को सामूहिक खेती और सामूहिक पाठशाला के लिए प्रेरित किया।

 संगठित करने के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया
 
शिबू सोरेन ने आदिवासी अधिकारों को सुरक्षित करने और उन्होंने शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए उन लोगों को एक मंच पर लाने का काम किया, जो एक ही तरह के कार्यों के लिए अलग-अलग संघर्ष कर रहे थे। झारखंड में एके राय, विनोद बिहारी महतो और शिबू सोरेन अलग-अलग बैनर के तले आंदोलन चला रहे थे। 4 फरवरी 1972 को शिबू सोरेन और कॉमरेड एक के रॉय, बिनोद बिहारी महतो के घर में इकट्ठा हुए थे इस बैठक में ये तय किया गया कि झारखंड में बदलाव और राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया जाएगा। इस घटना से इससे एक साल पहले ही बांग्लादेश पाकिस्तान से अलग होकर स्वतंत्र राष्ट्र बन चुका था और इस काम में बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी का अहम रोल था। इसी 'मुक्ति' शब्द से प्रभावित होकर अलग झारखंड के सपने को लेकर झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना की गई। तीनों कर्मयोगी नेता एक साथ बैठे और सोनोत संताल समाज और शिवाजी समाज का विलय कर ‘झारखंड मुक्ति मोर्चा’ नामक नया संगठन बनाने का निर्णय हुआ। इसके बाद झारखंड मुक्ति मोर्चा का जन्म हुआ। झामुमो के गठन के साथ ही विनोद बिहारी महतो इसके पहले अध्यक्ष बने थे और शिबू सोरेन को महासचिव बनाया गया था।
 
झारखंड मुक्ति मोर्चा का 1977 में राजनीति की ओर पहल

झारखंड मुक्ति मोर्चा के गठन के बाद उन्होंने पहली बार 1977 में लोकसभा और टुंडी विधानसभा क्षेत्र का चुनाव लड़ा, लेकिन दोनों ही चुनाव में उन्हें हार मिली। उसके बाद शिबू सोरेन ने संताल परगना का रुख किया और 1980 में दुमका लोकसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर जेएमएम के पहले सांसद बने। वहीं जेएमएम की एक बड़ी उपलब्धि यह रही कि 1980 के विधानसभा चुनाव में संताल परगना के 18 में से 9 सीटों पर जेएमएम को जीत मिली। उस वक्त झारखंड बिहार का हिस्सा था और जेएमएम की जीत से बिहार की राजनीति में बड़ा बदलाव हुआ।

झारखंड अलग राज्य के आंदोलन को बनाया जन आंदोलन

झारखंड अलग राज्य की मांग काफी पुरानी थी, लेकिन राजनीति में सक्रिय होने के बाद शिबू सोरेन ने इस आंदोलन को जनता का आंदोलन बना दिया और उनके आंदोलन की वजह से ही अलग राज्य का गठन हुआ, जो उनका सपना था। 1980 में जब वे जेएमएम के पहले सांसद बनकर संसद पहुंचे तो उन्होंने वहां आदिवासियों के मुद्दों को उठाना शुरू किया। आदिवासियों की संस्कृति, भाषा, जल-जंगल-जमीन पर उनके अधिकारों की बात की और अलग राज्य के आंदोलन के अलग दिशा दिया। उन्होंने अपने आंदोलन से सरकार पर इतना दबाव बनाया कि 15 नवंबर 2000 को झारखंड अलग राज्य का गठन हुआ। इस आंदोलन के लिए शिबू सोरेन ने व्यापक जनसमर्थन तैयार किया था, जो उनकी बहुत बड़ी उपलब्धि थी।
शिबू सोरेन झारखंड के तीन बार मुख्यमंत्री रहे
बिहार से झारखंड 15 नवंबर, 2000 को अलग करके झारखंड एक अलग राज्य बना। इस राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी बनाये गये थे, लेकिन गुरुजी ने इस राज्य की बागडोर 3 बार संभाली। शिबू सोरेन ने झारखंड के तीसरे मुख्यमंत्री के रूप में 2005 में शपथ ली, लेकिन वे महज 10 दिन के लिए सीएम बने थे। इनका कार्यकाल 2 मार्च, 2005 से लेकर 11 मार्च, 2005 तक रहा। इसके बाद दूसरी बार वे 2008 में मुख्यमंत्री बने। इस दौरान इनका कार्यकाल 27 अगस्त, 2008 से 12 जनवरी, 2009 तक रहा। वहीं, तीसरी बार वर्ष 2009 में मुख्यमंत्री बने। इस दौरान इनका कार्यकाल 30 दिसंबर, 2009 से 31 मई, 2010 तक रहा।  यह सरकार 5 महीने ही चली।
आदिवासियों के दिशोम गुरु शिबू सोरेन
शिबू सोरेन को आदिवासी समाज दिशोम गुरु कहता है। दिशोम संताली भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है राह दिखाने वाला या पथ प्रदर्शक। इसी वजह से शिबू सोरेन को दिशोम गुरु कहा जाता है, जो उनका सबसे बड़ा नेता या गुरु है। शिबू सोरेन ने आदिवासियों के हक और अधिकार के लिए आजीवन संघर्ष किया और कई बार जेल भी गए। उन्होंने आदिवासी समाज को जगाने का काम किया और उनके गुरु बने।
झारखंड के महानायक का निधन

झारखंड की संघर्ष परंपरा के बट वृक्ष रहे दिशोम गुरु महानायक और तीन बार के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन ने जिंदगी की जंग को भी एक योद्धा की तरह लड़ा और अंतत: वीरगति को प्राप्त हुए। 81 वर्षीय शिबू सोरेन 19 जून से दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में भर्ती थे और जीवन मृत्यु से संघर्ष कर रहे थे, सोमवार 4 अगस्त 2025 की सुबह को उनका निधन हो गया। शिबू सोरेन कमजोर वर्ग और आदिवासियों के सर्वमान्य नेता थे और उन्होंने अपना पूरा जीवन ही आदिवासी कल्याण के लिए लगाया। झारखंड अलग राज्य का संघर्ष उन्होंने किया और तब तक लड़े जबतक कि उनका यह सपना पूरा नहीं हुआ। दिशोम गुरु शिबू सोरेन ने न केवल झारखंड में, बल्कि पूरे देश में सामाजिक न्याय के लिए अनगिनत लड़ाइयाँ लड़ीं। उन्होंने 1970 और 1980 के दशक में रैलियों, प्रदर्शनों, और बंद जैसे आंदोलनों के माध्यम से आदिवासी समुदायों को संगठित किया। शिबू सोरेन ने "जंगल बचाओ, जमीन बचाओ" जैसे नारों के साथ लोगों को एकजुट किया।
 शिबू सोरेन का पारिवारिक जीवन :

झारखंड की संघर्ष परंपरा के बट वृक्ष शिबू सोरेन जब 18 साल के हुए, तो 1 जनवरी 1962 को उनका विवाह रूपी किस्कू से हुआ। रूपी सोरेन जमशेदपुर के चांडिल की निवासी हैं। विवाह के बाद, शिबू सोरेन तीन पुत्रों - स्वर्गीय दुर्गा सोरेन, हेमंत सोरेन, बसंत सोरेन और एक पुत्री अंजनी सोरेन के पिता बने।एक मां के रूप में रूपी किस्कू सोरेन ने न केवल शिबू सोरेन के संघर्ष और आंदोलन की तपिश में पूरे परिवार को संभाला, बल्कि उनमें संघर्ष के मजबूत संस्कार भी डाले। उन्हें यह शक्ति अपनी सास सोनामनी सोरेन से विरासत में मिली थी।
वहीं, आज पूरी दुनिया रूपी सोरेन और शिबू सोरेन के पालन-पोषण और दिए गए संस्कारों को देख रही है। बड़े पुत्र स्वर्गीय दुर्गा सोरेन दुमका के जामा से दो बार विधायक रहे। स्वर्गीय दुर्गा वर्ष 1995 और 2000 में जामा से विधायक रहे। उन्हें झामुमो का केंद्रीय महासचिव भी बनाया गया था। उनका जन्म वर्ष 1970 में हुआ था और 24 मई 2009 को अचानक उनकी मृत्यु हो गई।
बाद में उनकी पत्नी सीता सोरेन उनकी विरासत को आगे बढ़ाते हुए इस सीट से तीन बार विधायक चुनी गईं। सीता सोरेन लगातार 2009, 2014 और 2019 में जामा से विधायक चुनी गईं। उन्हें संगठन में केंद्रीय महासचिव भी बनाया गया था। हालांकि उन्होंने वर्ष 2024 में झामुमो छोड़ दिया है और भाजपा में शामिल हो गई हैं, लेकिन गुरुजी के प्रति उनकी भावनाएं अभी भी बहुत गंभीर हैं।
स्वर्गीय दुर्गा सोरेन और सीता सोरेन की तीन बेटियां हैं जिनके नाम जयश्री सोरेन, राजश्री सोरेन और विजयश्री सोरेन हैं। वर्तमान में दूसरे बेटे हेमंत सोरेन झारखंड के मुख्यमंत्री हैं। हेमंत झारखंड में लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बने हैं, जबकि वे एक बार उपमुख्यमंत्री भी रहे।
पार्टी संगठन में वे झारखंड छात्र मोर्चा, युवा मोर्चा, केंद्रीय कार्यकारी अध्यक्ष और अब अध्यक्ष की भूमिका में हैं हेमंत वहां से लगातार दूसरी बार विधायक बने हैं, जबकि हेमंत सोरेन ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत दुमका विधानसभा सीट से की थी।
वर्ष 2005 में उन्होंने दुमका सीट से झामुमो के टिकट पर पार्टी के दिग्गज नेता प्रो स्टीफन मरांडी के खिलाफ चुनाव लड़ा था। फिर बदली परिस्थितियों में प्रो स्टीफन ने झामुमो छोड़ दिया और निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीत हासिल की।
हालांकि, 2009 के चुनाव में हेमंत सोरेन झामुमो के टिकट पर दुमका से चुनाव जीतने में सफल रहे। इसी दौरान हेमंत सोरेन 24 जून 2009 से 7 जुलाई 2010 तक राज्यसभा के सदस्य भी रहे। इसके ठीक बाद वर्ष 2014 में हुए विधानसभा चुनाव में हेमंत सोरेन भाजपा की डॉ लुईस मरांडी से चुनाव हार गए।
फिर वर्ष 2019 में उन्होंने दुमका और बरहेट सीट से चुनाव लड़ा और दोनों सीटों पर जीत हासिल की इसके बाद, बसंत सोरेन वर्ष 2024 में चुनाव जीतकर विधायक भी बन गए हैं। बसंत सोरेन को पथ निर्माण मंत्री बनने का भी अवसर मिला है। बसंत झारखंड छात्र मोर्चा और युवा मोर्चा के केंद्रीय अध्यक्ष भी रह चुके हैं।
हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन गांडेय से विधायक हैं। हेमंत सोरेन और कल्पना सोरेन के दो बेटे हैं, बड़े बेटे का नाम नितिल सोरेन और छोटे बेटे का नाम विश्वजीत सोरेन है। जबकि शिबू सोरेन की बेटी अंजनी सोरेन की शादी ओडिशा में हुई है। हालाँकि, उनके पति देबानंद मरांडी का 2017 में निधन हो गया था। उनके एक बेटा साहेब मरांडी और एक बेटी प्रीति मरांडी हैं।
अंजनी भी झामुमो की राजनीति में शामिल हो गई हैं। 2024 के लोकसभा चुनाव में, उन्होंने ओडिशा की मयूरभंज सीट से भाजपा के नव चरण मांझी के खिलाफ चुनाव लड़ा। इससे पहले वर्ष 2024 में, उन्होंने ओडिशा के सरसकाना विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा था जिसमें उन्हें हार का सामना करना पड़ा था।
वर्ष 2019 में उन्होंने ओडिशा के मयूरभंज निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ा, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। वहीं वर्ष 2017 में अंजनी सोरेन पहली बार जिला परिषद का चुनाव भी लड़ चुकी हैं। उन्हें ओडिशा झामुमो का अध्यक्ष भी बनाया गया है।

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