वंशवाद की राजनिति लोकतंत्र के लिए घातक...!!
●राजनीति में वंशवाद लोकतंत्र के लिए घातक
लेखिका :- सविता बिहारी, सक्रिय सदस्य शंखनाद साहित्यिक मंडली
भारतीय राजनीति से वंशवाद का अंत होता नहीं दिख रहा है। साल 1952 के बाद से लेकर वंशवाद जारी है और इसके अभी खत्म होने की संभावना भी नहीं दिख रही है। ये देखने में आया है कि जिस परिवार से कोई एक बड़ा नेता हो गया है वो अपने परिवार के अन्य सदस्यों को भी इसी में खीच लेता है जिसके कारण राजनीति को वंशवाद और परिवारवाद से निजात नहीं मिल पा रही है। हर राज्य में जिस परिवार का कोई बड़ा नेता है वहां उस परिवार के बाकी सदस्यों को विरासत में राजनीति मिल जाती है। सबसे अधिक समय तक विरासत की राजनीति गांधी और नेहरू परिवार की मानी जाती है। उसके बाद अन्य परिवार राजनीति में इसी को आगे बढ़ा रहे हैं। इस आलेख में समकालीन भारत में यंशवाद के इतिहास का राजनीतिक विश्लेषण प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। लोकतांत्रिक व्यवस्था अपने आप में एक सर्वोच्च व्यवस्था मानी जाती है। यह व्यवस्था राजतंत्र या तानाशाही से इस रूप में भिन्न होती है कि जहाँ राजतंत्र में एक ही परिवार / वंश के लोगों का राज पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है, वहीं लोकतंत्र में जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनती है।समाजशास्त्रियों के अनुसार दो तरह की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों होती हैं। प्रदत्त परिस्थिति' में व्यक्ति को पद, प्राधिकार और प्रतिष्ठा, जन्म, वंश या जाति आदि के आधार पर प्राप्त होते हैं, न कि गुण-क्षमता और कार्य निष्पादन के आधार पर तो दूसरी ओर 'अर्जित परिस्थिति में ये चीजें गुण-क्षमता व कार्य-निष्पादन के आधार पर ही हासिल होती हैं। समाजशास्त्रियों के अनुसार प्रदत्त परिस्थिति बंद समाजों जैसे- कबीला, राजतंत्र और तानाशाही आदि की विशेषता होती है. जबकि अर्जित परिस्थिति खुले समाजों अर्थात आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुकूल होती है। दुर्भाग्यवश भारत अथवा तीसरी दुनिया के विभिन्न देशों में लोकतंत्र के बावजूद प्रदत्त परिस्थिति हायी है। राजनीति में कुछ परिवारों का एकाधिपत्य चलता है। इस परिवारवादी या वंशवादी राजनीति का अपना इतिहास रहा है। उदाहरण के लिए भारत में नेहरू-गाँधी परिवार तथा कुछ अन्य देशों में जैसे नेपाल में कोइराला परिवार, बांग्लादेश में शेख मुजीबुर्रहमान परिवार एवं शेख जियाउर्रहमान परिवार, श्रीलंका में भंडारनायके परिवार एवं जयवर्द्धने परिवार और पाकिस्तान में भुट्टो परिवार एवं नवाज शरीफ परिवार के राजनीतिक दबदबे को इस परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता हैं। इनके अलावा देखा जाए तो अमेरिका, जापान, फिलीपीस, इंडोनेशिया आदि देशों में भी यही स्थिति है। उदाहरण के लिए सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका में कैनेडी परिवार, बुश परिवार और क्लिटन परिवार आदि को वंशवादी राजनीति के रूप में देखा जा सकता है। राजनीति में वंशवाद लोकतंत्र के लिए घातक साबित हो रहा है।
सच है कि भारतीय लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, लेकिन वंशवाद की परंपरा इसकी आत्मा को खोखला करती जा रही है। यह परंपरा किसी एक राजनीतिक दल या क्षेत्र तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे राजनीतिक परिदृश्य में फैली हुई है। एक ओर लोकतंत्र अवसर की समानता और प्रतिनिधित्व की विविधता का वादा करता है, तो दूसरी ओर वंशवाद की बेल आम जन को हाशिये पर धकेलते हुए सत्ता को चुनिंदा घरानों के इर्द-गिर्द केंद्रित कर देती है। एडीआर (एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स) की हालिया रिपोर्ट इस सच्चाई को और स्पष्ट करती है। देश के 5,204 मौजूदा सांसदों, विधायकों और विधान परिषद सदस्यों का विश्लेषण करने पर तथ्य सामने आया कि इनमें से 1,107 यानी करीब 21 प्रतिशत प्रतिनिधि ऐसे हैं, जिनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि वंशवादी है। चिंताजनक पहलू यह है कि लोक सभा में इनकी हिस्सेदारी 31 प्रतिशत तक पहुंच जाती है। इसका अर्थ यह है कि हर तीसरा सांसद राजनीतिक परिवार से आता है। अगर दलों की बात करें तो इसके 32 प्रतिशत नेता राजनीतिक परिवारों से आते हैं। दूसरी ओर, भाजपा, जो अक्सर वंशवाद के खिलाफ आवाज बुलंद करती है, के भी 18 प्रतिशत प्रतिनिधि वंशवादी पृष्ठभूमि से आते हैं। वामपंथी दलों में यह आंकड़ा 8 प्रतिशत है। किसी भी क्षेत्र राज्य या देश के लिए वंशवाद, परिवारवाद की राजनिति जहर के समान है। लोकतंत्र की आत्मा समान अवसर और समान अधिकार पर आधारित है। संविधान ने आश्वासन दिया है कि हर नागरिक को राजनीति में भाग लेने और सत्ता तक पहुंचने का अवसर मिलेगा। लेकिन जब राजनीति पर वंशवाद का कब्जा बढ़ता है तो यह अवसर केवल चुनिंदा परिवारों तक सीमित हो जाता है। आम युवाओं या नये चेहरों के लिए राजनीति में प्रवेश की राह ओर भी कठिन हो जाती है। यह भी विचारणीय है कि वंशवाद वर्तमान ही नहीं, बल्कि भविष्य को भी प्रभावित करता है। जब अगली पीढ़ी के सामने राजनीति का रास्ता पहले से तय हो, तो वे सत्ता को संघर्ष की बजाय विरासत मानने लगते हैं। यह लोकतंत्र को स्थायी नुकसान पहुंचाने वाली प्रवृत्ति है। लोकतंत्र का वास्तविक अर्थ तभी साकार होगा जब राजनीति हर नागरिक के लिए खुला मंच बने, न कि कुछ परिवारों की निजी जागीर।
भारतीय राजनीति में वंशवाद के कारण :
भारतीय राजनीति में वंशवाद के कई कारण है- भारत में राजनैतिक वंशवाद का सबसे महत्वपूर्ण कारण व्यक्ति पूजा रहा है, जिसके तहत किसी व्यक्ति विशेष को महान मानकर उसकी पूजा की जाने लगती है। भारत के संदर्भ में नेहरू, इंदिरा आदि ऐसे ही महान शख्सियत रहे हैं। वंशवादी राजनीति का दूसरा कारण विद्यमान सामंती सामाजिक संरचना और यहाँ के लोगों की सामंती मानसिकता है। उल्लेखनीय है कि भारत में आज भी सामंती मूल्य व अंधविश्वास प्रचलित हैं जिसके चलते कोई भी राज्य 'वंश वृक्ष राजनीति' से अछूता नहीं है। राजनीतिक परिवारों द्वारा लोकतंत्र में राजवंशीय शासन को बनाए रखने का प्रयास करना भी एक कारण रहा है। इसके लिए वे अपने बेटे-बेटियों, पत्नी या अन्य रिश्तेदारों को अपनी पार्टी के शीर्ष स्थान पर रखते हैं। उदाहरण के लिए प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा अपनी बेटी इंदिरा गांधी को भावी राजनेत्री के रूप में स्थापित करने का प्रयास, वर्तमान में सोनिया गाँधी के बाद राहुल गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष बनना, पंजाब में बादल परिवार, बिहार में लालू व रामविलास पासवान परिवार, आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू परिवार, तमिलनाडु में करूणानिधि, तेलंगाना में चंद्रशेखर, जम्मू और कश्मीर में अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार आदि। 2018 के अध्ययन के अनुसार, मेडिकल और कानून जैसे अन्य कुलीन प्रोफेशन की तुलना में उस व्यक्ति के लिए राजनीति में प्रवेश की संभावना ज्यादा होती है जिसके पिता राजनेता होते हैं। इन परिवारों में वंशवाद पनपने का एक मुख्य वजह, अपने कार्यकाल में धन का लाभ उठाने की लालसा है। वंशवादी राजनीति का एक अन्य महत्वपूर्ण कारण भारतीय राजनीतिक दलों की संरचना और इसके कार्य पद्धति एवं निर्णयन तक के स्तर में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव होना है। राजनीति में वंशवादिता चुनावी खर्च का भी परिणाम है। दरअसल भारत में गत वर्षों में चुनाव खर्च लगातार बढ़ा है जिसके चलते राजनीतिक भ्रष्टाचार की समस्या अत्यंत गंभीर हुई है।
राजनीतिक दलों की यह मानसिकता कि अपने दल के वरिष्ठ नेतओं को नाराज करना उनके ऊपर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है, राजनीतिक वंशवादिता को प्रगाढ़ बनाती है। जनता की यह मानसिकता कि कुलीन वर्ग के व्यक्ति मुक्तिदाता की भूमिका निभा सकते हैं और वे उन्हीं की छत्रछाया में सुरक्षित रह सकते हैं, वंशवादिता को बढ़ावा देती है। इस बात की पुष्टि फिलीपींस के मनीला स्थित एशियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट पॉलिसी सेंटर के द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट से होती है, जिसके अनुसार एशिया के सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों के कारण राजनीति में परिवारवाद को बढ़ावा मिलता है। इस बात पर सीगित अध्ययन हुआ है कि कुछ राज्य दूरारों की तुलना में राजनीतिक वंशों से अधिक लोगों का चुनाव क्यों करते हैं। इसका एक अन्य वजह जातिगत राजनीति की संरचना है। राजनीति में वंशवाद के प्रोत्साहन का एक कारण राजनीति का व्यवसाय में तब्दील हो जाना है, दरअसल इस व्यवसाय में लाभ की तुलना में जोखिम की संभावना अपेक्षाकृत कम होती है। इस प्रकार यह उन तमाम लाभकारी सुविधाओं के साथ पद एवं शक्ति उपलब्ध कराने में सक्षम है जिसकी व्यक्ति को लालसा होती है।
भारतीय राजनीति में वंशवाद को मिटाने का सुझाव :
भारतीय राजनीति में परिवारवाद एवं वंशवाद तब तक रहेगा जब तक कि इसका विरोध भीतर से न किया जाए। ऐसे में संबंधित दलों के नेता को पार्टी के भीतर लोकतंत्र स्थापित करना चाहिए। जनता को चाहिए कि वे सामाजिक एवं शैक्षिक दृष्टि से जागरूक बनें जिससे कि वह राजनीतिक दलों के नीतियों को समझते हुए गलत नीतियों का विरोध करें। सबसे लंबे समय तक सेवा करने वाले राजवंशों में से चालीस प्रतिशत को संसद में अपनी सीट विरासत में मिली है - वे अपने पिता, माता या पति या पत्नी के रूप में एक ही निर्वाचन क्षेत्र से चुने गए थे।
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